कामना/3.4

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १११ ]

चौथा दृश्य

स्थान-खेत में करुणा की कुटी

(सतोष अन्न की बाले एकत्रित कर रहा है। दुर्वृत्त आता है)

दुर्वृत्त-क्यों जी, इस खेत का तुम कितना कर देते हो?

संतोष-कर।

दुवृत्त-हाँ। रक्षा का कर!

संतोष-क्या इस मुक्त प्राकृतिक दान में भी किसी आपत्ति का डर है? और क्या उन आपत्तियो से तुम किसी प्रकार इनकी रक्षा भी कर सकते हो।

दुर्वृत्त-मुझे विवाद करने का समय नहीं है।

संतोष-तब तो मुझे भी छुट्टी दीजिये, बहुत काम करना है।

दुर्वृत्त-(क्रोध से देखता हुआ) अच्छा जाता हूँ।

(जाता है। करुणा आती है)

करुणा-भाई, तुम्हें काम करते बहुत विलम्ब हुआ। थक गये होगे-चलो, कुछ खा लो। [ ११२ ]संतोष-बहन! इस गाँठ को भीतर धर दूँ, तो चलूँ। ( परिश्रम से थका हुआ संतोष बोझ उठाता है। गिर पड़ता है। उसके पैर में चोट आती है। करुणा उसे उठाकर भीतर ले जाती हे)

(एक ओर से वनलक्ष्मी दूसरी ओर से महत्त्वाकांक्षा का प्रवेश)

वनलक्ष्मी-देखो, तुम्हारी कर लेने की प्रवृत्ति ने नानो का सत्व हलका कर दिया, कृषक थकने लगे है। खेतो को सीचने की आवश्यकता हो गई है। उर्वरा पृथ्वी को भी कृत्रिम बनाया जाने लगा है।

महत्त्वाकांक्षा-विलास के लिए साधन कहाँ से आवेंगे? यह जंगलीपन! अकर्मण्य होकर प्रकृति की पराधीनता क्यो भोग करें। शक्ति है, फिर अभाव क्यों रह जाय?

वनलक्ष्मी-विलास की महत्त्वाकांक्षा। तुम्हारा कहीं अन्त भी है। कब तक और कहाँ तक तुम मानव-जाति को भगड़ते देखना चाहती हो?

महत्त्वाकांक्षा-प्रकृति अपनी सीमा क्यों नही बनाती। फूल-उनकी कोमलता और उनका सौरभ एक ही प्रकार का रहने से भी तो काम चल नाता। [ ११३ ] फिर इतनी शिल्पकला, पंखड़ियो की विभिन्नता, रंग की सजावट क्यों? हम अनन्त साधनो से अपने सुख को अधिकाधिक सम्पूर्ण क्यों न बनावे।

वनलक्ष्मी-दौड़ानो काल्पनिक महत्त्व के लिए। अतृप्ति के कशाघात से उत्तेजित करो जिसमे कुछ लोग प्रशंसा करें। परन्तु प्रकृति के कोश से अनावश्यक व्यय करने का किसको अधिकार है? यह ऋण है। इसे कभी भी कोई चुका सकेगा? प्राकृतिक पदार्थों का अपव्यय करके भावी जनता को दरिद्र ही नही बनाया जा रहा है, प्रत्युत उनकी वृत्ति का उद्गम ही बन्द कर देने का उपक्रम है। वे अपने पूर्वनो के इस ऋण को चुकाने के लिए भूखों मरेंगे।

महत्त्वाकांक्षा-मरे, कौन निर्बलो का जीवन अच्छा समझता है। देखो यही न, संतोप और करुणा। इनकी क्या अवस्था है।

वनलक्ष्मी-इन पर तुम्हे दया नहीं, ये सच्चे है, सृष्टि की अमूल्य सम्पत्ति है। इनकी रक्षा करो।

महत्त्वाकांक्षा-(हँसती है) तुम सरल हो।

वनलक्ष्मी-तुम कुटिलता में ही सौन्दर्य देखती हो।

महत्त्वाकांक्षा-तरल जल की लहर भी सरल [ ११४ ] नहीं। बाँकपन ही तो सौन्दर्य है। मै उसी को मानती हूँ। करुणा और संतोप सृष्टि की दुर्बलतायें है। मेरे पास उनके लिए सहानुभूति नही (जाती

वनलक्ष्मी-मेरा मृदुल कुटुम्ब! मेरा कोमल शृंगार! इस क्रूर महत्त्वाकांक्षा से झुलस रहा है। मै उन्हे आलिंगन करूँगी। (खेत में बैठकर एक तृणकुसुम को देखती हुई) तू कुछ कह रहा है। तेरा कुछ संदेश है। तेरी लघुता एक महान रहस्य है। मै तेरे साथ स्वर मिलाकर गाऊँगी। (गाती है)

पृथ्वी की श्यामल पुलको मे सत्विक स्वेद बिन्दु रंगीन।
नृत्य कर रहा हिलता हूँ मैं मलयानिल से हो स्वाधीन।
आँधी की बहिया बह जाती चिढ़ कर चल जाती चपला।
मैं यों ही हूँ, ये कोई भी मेरी हँसी न सकते छीन॥
तितली अपना गिरा और भूला-सा पंख समझती है।
मुझे छोड़ देती, मेरा मकरन्द मुझी मे रहता लीन॥
मधु-सौरभ वाले फल-फूलों को लुट जाने का डर हो।
मैं झूला झूलती रही हूँ-बनी हुई अम्लान नवीन॥
व्यथित विश्व का राग-रक्त क्षत हूँ, मुझको पहचानो तो।
सुधा-भरी चाँदनी सुनाती मुझको अपनी जीवन-बीन॥