कामना/3.7

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १२५ ]

सातवाँ दृश्य

स्थान-आकांत देश का एक गाँव

(एक बालिका और विवेक)

बालिका-आज तक तो हमारे ऊपर अत्याचार होता रहा है, परंतु कोई इतनी मित्रता नहीं दिखलाने आया। तू आज छल करने आया है। [ १२६ ]विवेक-नही माँ, जा बड़े-बूढ़ो को बुला ला।

बालिका-परंतु-

विवेक-हाय रे पाप। इन निरीह बालको में भी विश्वास का अभाव हो गया है। विश्वास करो माँ, बुला लो।

(बालिका जाती है, चार वृद्ध और युवक आते है)

विवेक-मै उसी शापित देश का हूँ, जिसमे सोने की ज्वाला धधक उठी है, मदिरा की बन्या बाढ़ पर है। क्या मुझ पर विश्वास करोगे?

युवक-कहो, तुम्हारा प्रयोजन सुन लें।

विवेक-हमारे और तुम्हारे देश की सीमा मे एक नया राज्य स्थापित हो गया है। वह हमारे देश के विद्रोहियों का एक घृणित संगठन है। उसने अत्याचार का ठेका ले लिया है। उससे क्या हम-तुम दोनो बचना चाहते हैं?

युवक-परंतु उपाय क्या है?

विवेक-हम लोगों को भाई समझकर मित्र-भाव की स्थापना करो, और इनके अत्याचारों से रक्षा करो। हम परस्पर दूसरे के सहायक हो।

युवक-किस प्रकार? [ १२७ ]विवेक-आज न्यायालय मे विचार होनेवाला है, और तुम्हारे देश के जो दो बंदी हुए हैं, उन्हे दंड मिलेगा। हम लोगो में से बहुतेरे उसके विरुद्ध हैं। यदि तुम लोग भी हमारी सहायता करो, तो इस भीषण आतंक से सबकी रक्षा हो।

युवक-हम लोग ठीक समय पर पहुँचेंगे। परंतु वहाँ तक जाने कैसे पावेंगे?

विवेक-हमारी सेवा से जितने आहत अच्छे हो चुके है, उन्ही लोगो के दल के साथ। और, इस अच्छे कर्म के लिए बहुत सहायक मिलेंगे।

युवक-अच्छा, तो हम जाते हैं। विवेक-तुम्हारा कल्याण हो ।

(युवक और उसके साथी जाते हैं, दूसरी ओर से वही बालिका दौडती हुई आती है। पीछे दो उन्मत्त मद्यप है)

बालिका–दोहाई है, बचाओ। बचाओ।

मद्यप सैनिक-सुंदरी, इतनी दौड़-धूप करने पर तो प्रेम का आनंद नहीं रहता। माना कि यह भी एक भाव है, पर वह मुझे रुचिकर नहीं। सुन तो लो-

(पकड़ता है)

[ १२८ ]बालिका–अरे, तुम क्या मनुष्यता को भी मदिरा के साथ घोलकर पी गये हो।

सैनिक-मदिरा के नाम से वही तो पीता हूँ।

विवेक-(आगे बढ़कर) क्यो, तुम वीर सैनिक हो न?

सैनिक-क्या इसमे भी संदेह है?

विवेक-डरपोक, कायर! छोड़ दो, नही तो दिखा दूँगा कि इन सूखी हड्डियों में कितना बल है।

सैनिक-जा पागल! तू क्यों मरना चाहता है?

विवेक-दूसरे की रक्षा मे, पाप का विरोध और परोपकार करने में प्राण तक दे देने का साहस किस भाग्यवान् को होता है? नीच। आ, देखूँ तो।

(सैनिक तलवार से प्रहार करने को उद्यत होता है। विवेक सामने तन कर खड़ा होता और उसकी कलाई पकड़ लेता है)

सैनिक-अब छोड़ दो, हाथ टूटता है।

विवेक-(छोड़कर) इसी बल पर इतना अभिमान! जा, अब सीधा हो जा। देश का कलंक धोने मे हाथ बँटा, कल परीक्षा होगी।

सैनिक-पिता! क्षमा करो, जो आज्ञा होगी, [ १२९ ] मैं और मेरे साथी, सब वही करेंगे।

विवेक-स्मरण रखना।

(दोनो सिर झुकाकर जाते हैं)