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कामना/3.8

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कामना
जयशंकर प्रसाद

वाराणसी: हिंदी पुस्तक भंडार, पृष्ठ १२९ से – १३७ तक

 

आठवाँ दृश्य

स्थान-सैनिक न्यायालय

(रानी और सैनिक लोग बैठे हैं। एक ओर से विलास, दूसरी ओर से लालसा का प्रवेश)

विलास-रानी, यह बंदी स्त्री बड़ी भयानक है। हमारी सेना के समाचार लेने आई थी। इसको दंड देना चाहिये।

लालसा-और एक व्यक्ति मेरे मंडप में भी है। वह भी कुछ ऐसा ही जान पड़ता है। दोनो का साथ ही विचार हो।

(रानी के संकेत करने पर चार सैनिक जाते और दोनों को ले आते हैं। शत्रु सैनिक और स्त्री, दोनों एक दूसरे को देखते और चीत्कार करते हैं)

विलास-यह स्त्री प्राणदंड के योग्य है। इसने सेना का सब भेद जान लिया था। यदि यह पकड़ न ली जाती, तो उस दिन के युद्ध में हम लोगों को पराजित होना पड़ता।

लालसा-और सीमा पर मै इस पुरुष से मिली। यदि मैं इसे भुलावा देकर न ले आती, तो यह मेरा बड़ा अपमान करता, जो इस जाति के लिए बड़े कलंक की बात होती।

रानी-विलास!

विलास-कुछ नहीं रानी, इन्हें प्राणदंड?

लालसा-इनसे पूछने की क्या आवश्यकता है? हम लोगो का कहना ही क्या इनके लिए यथेष्ट प्रमाण नहीं है?

सब सैनिक-हाँ, हाँ, सेनापति का अनुरोध अवश्य माना जाय।

कामना-तब मुझे कुछ कहना नहीं है।

विलास-(सैनिकों से) दोनो को इसी वृक्ष से बाँध दो, और तीर मारो।

स्त्री-क्यों शत्रु-सेनापति! स्त्री पर अत्याचार न कर पाने पर उसका प्राण लेना ही न्याय है? परंतु प्राण तुम ले सकते हो, मेरा अमूल्य धन नहीं। शत्रु-सैनिक-सुंदरी लालसा, तुम स्त्री हो या पिशाचिनी?

लालसा-जा, जा, मर।

(दोनों को बाँधकर तीर मारे जाते हैं)

(एक सैनिक का प्रवेश)

सैनिक-रानी, द्वेष ने मुझे सोते में छुरा मारकर घायल किया है। न्याय कीजिये।

दूसरा-प्रमदा मेरे आभूषणों की पेटी लेकर दुर्वृत्त के साथ भाग गई। उससे मेरे आभूषण दिला दिये जायें।

तीसरा-रानी, मै बड़ा दुखी हूँ। मेरा मदिरा का पात्र किसी ने चुरा लिया। मैं बड़े कष्ट से रात बिताता हूँ।

चौथा-नवीना मेरी विश्वासपात्र प्रेमिका बनकर गहने के लोभ से स्वर्णभूति के साथ जाने के लिए तैयार है। उसे समझा दिया जाय, अन्यथा मै आत्महत्या करूँगा।

पाँचवाँ-रानी, मेरा लड़का सब धन बेचकर मदिरा पी आता है, उससे मेरा सम्बंध छुड़ा दिया जाय। एक स्त्री-मुझे विश्वास देकर, कौमार-भंग करके अब यह मद्यप मुझसे व्याह नहीं करता।

एक दूत-(प्रवेश करके) जिस नवीन नगर की प्रतिष्ठा कुछ लोगो ने की थी, जिसमे बहुत-से अपराधी नाकर छिपे थे, वह नगर अकस्मात् भूकम्प से भूगर्भ मे चला गया।

रानी-ठहरो। मुझे पागल न बनाओ। अपराधों की आँधी! चारों ओर कुकर्म! ओह!

(एक आठ वर्ष का बालक दौड़ा आता और दंडितों के शवो पर गिर पड़ता है। कामना उठकर खड़ी हो जाती है)

कामना-बालक, तुम कौन हो?

बालक-(रोता हुआ) मेरी माँ, मेरे पिता-

कामना-क्यों विलास, यह क्या हुआ?

लालसा-ठीक हुआ।

कामना-लालसा, चुप रहो। तुम न मंत्री हो, और न सेनापति।

लालसा-हाँ, मैं कुछ नही हूँ-तो फिर-

विलास-उन्हें उपयुक्त दंड दिया गया।

कामना-यदि राजकीय शासन का अर्थ हत्या और अत्याचार है, तो मैं व्यर्थ रानी बनना नही चाहती। मेरी प्रजा इस बर्बरता से जितना शीघ्र छुट्टी पावे, उतना ही अच्छा। (मुकुट उतारती हुई) यह लो, इस पाप-चिह्न का बोझ अब मै नही वहन कर सकती। यथेष्ट हुआ। प्यारे देशवासियो, लौट चलो, इस इन्द्रजाल की भयानकता से भागो। मदिरा से सिंचे हुए चमकीले स्वर्ण-वृक्ष की छाया से भागो।

(सिंहासन से हटती है)

(विवेक का उन्मत्त भाव से प्रवेश। कामना बालक को गोद मे लेती है)

विवेक-बहुत दिन हुए, जब मैने कहा था कि 'भागो-भागो।' तब तुम्हीं सब लोगों ने कहा था कि 'पागल है, और मैं पागल बन गया। (देखकर) कामना, आहा मेरी पगली लड़की! आ, मेरी गोद में आ-चल, हम लोग वृक्षो की शीतल छाया मे लौट चलें।

(कामना दौड़कर विवेक से लिपट जाती है)

विनोद-मदिरा और स्वर्ण के द्वारा हम लोगो मे नवीन अपराधों की सृष्टि हुई, और हुई एक महान् माया-स्तूप की रचना। हमारे अपराधों ने राजतंत्र की अवतारणा की। पिता की सदिच्छा, माता का स्नेह, शील का अनुरोध हम लोगो ने नहीं माना। तब अवश्य दंड के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। कामना, हम सब तुम्हारे साथ है।

विलास-सज्जनों। सैनिकों। देश दरिद्र है, भूखा है। क्या तुम लोग इन देश-द्रोहियों के पीछे चलोगे? यह भी क्या खेल है?

विवेक-खेल था, और खेल ही रहेगा। रोकर खेलो चाहे हँसकर। इस विराट् विश्व और विश्वात्मा की अभिन्नता, पिता और पुत्र, ईश्वर और सृष्टि, सबको एक मे मिलाकर खेलने की सुखद क्रीड़ा भूल जाती है, होने लगता है विषमता का विषमय द्वंद्व। तब सिवा हाहाकार और रुदन के क्या फैलेगा? हँसने का काम भूल गये। पशुता का आतंक हो गया। मनुष्यता की रक्षा के लिए, पाशवी वृत्तियो का दमन करने के लिए राज्य की अवतारणा हो गई; परंतु उसकी आड़ मे दुर्दमनीय नवीन अपराधो की सृष्टि हुई। इसका उद्देश तब सफल होगा, जब वह अपना दायित्व कम करेगी-जनता को, व्यक्ति को, आत्मसंयम और आत्मशासन सिखाकर विश्राम लेगी। जब अपराधों की मात्रा घटेगी, और क्रमशः समूल नष्ट होगी, तब संघर्षमय शासन स्वयं तिरोहित होगा। आत्मप्रतारकों उस दिन की प्रतीक्षा मे कठोर तपस्या करनी होगी, जिस दिन ईश्वर और मनुष्य, राजा और प्रजा, शासित और शासकों का भेद विलीन होकर विराट् विश्व, जाति, और देश के वर्षों से स्वच्छ होकर एक मधुर मिलन-क्रीड़ा का अभिनय करेगा।

विनोद-आओ, हम सब उस मधुर मिलन के योग्य हों। उस अभिनय का मंगल-पाठ पढ़ें।

(अपना स्वर्णपट्ट और आभूषण उतारकर फेंकता है। लीला भी उसका अनुकरण करती है)

लीला-जितने भूले-भटके होंगे, वे इन्हीं पागलों के पीछे चलेंगे। हम अपने फूलों के द्वीप से काँटो को चुनकर निकाल बाहर करेंगे।

(बहुत-से लोग अपने स्वर्ण-भूषण और मदिरा के पात्र तोड़ते हैं। विलास और लालसा आश्चर्य के भाव से देखते हैं)

विलास-सैनिको, तुम्हारी क्या इच्छा है? तुम वीर हो। क्या तुम इन्हीं का-सा दीन और निरीह जीवन बिताओगे? क्या फिर उसी दुःख-पूर्ण देश में जाओगे, जहाँ न तो सोने के पान-पात्र हैं, और न माणिक के रंग की मदिरा? कुछ लोग-हम लोग यहीं नगर बसाकर रहेंगे।

एक-और तुम हमारे राजा बनो।

(वह गिरा हुआ मुकुट उसे पहनाता है। लालसा भी रानी का स्थान ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ती है। 'ठहरो-ठहरो' कहते हुए दोनों ओर से सैनिकों के साथ संतोष का प्रवेश)

विवेक-सन्तोष! तुमने बहुत विलम्ब किया।

आगन्तुक सैनिक-क्या, यह हत्या? तुम हत्या करके भी यह साहस करते हो कि हम लोग तुम्हें अपना सर्वस्व मानें| यह ठीक है कि हम लोगों को विधि-निषेधात्मक एक सर्वमान्य सत्ता की अब आवश्यकता हो गई है; परंतु तुम कदापि इसके योग्य नहीं हो। सोने से लदी हुई लालसा रानी! और मदिरा से उन्मत्त विलास राजा!! आश्चर्य!!

(विलास के साथी सैनिक भी स्वर्ण और अस्त्र रख देते हैं)

कामना-सन्तोष! प्रिय सन्तोष! सन्तोष-मेरी मधुर कामना-

(दोनों हाथ पकड़ लेता है)

विलास-तब लालसा?

लालसा-अनंत समुद्र मे, काल के काले परदे में, कहीं तो स्थान मिलेगा-चलो विलास।

(दोनो जाते हैं)

(परिवर्तित दृश्य। समुद्र में नौका पर विलास और लालसा। सब नागरिक उस पर स्वर्ण फेकतें हैं। नाव डगमगाती है, लालसा का क्रन्दन-'सोने से नाव डूबी, अब नहीं, बस'। तुमुल तरंग। परिवर्तित दृश्य में अंधकार। दूसरी ओर आलोक। फूलों की वर्षा)

(समवेत स्वर से गान)

खेल लो नाथ, विश्व का खेल।
राजा बनकर अलग न बैठो, बनो नहीं अनमेल॥
वही भाव लेगी फिर जनता, भूल जायगी सारी समता।
कहाँ रही प्यारी मानवता, बढ़ी फूट की बेल॥
रुदन, दुःख, तम-निशा, निराशा, इन द्वंद्वों का मिटे तमाशा।
स्मित आनंद उषा औ' आशा, एक रहे कर मेल॥
हम सब हैं हो चुके तुम्हारे, तुम भी अपने होकर प्यारे।
आओ, बैठो साथ हमारे, मिलकर खेले खेल॥

[यवनिका-पतन]