कामायनी/कर्म

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कामायनी  (1936)  द्वारा जयशंकर प्रसाद
कर्म
[ ५१ ]

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी सोमलता तब मनु को,
चढ़ी शिंजिनी सी, खींचा फिर उसने जीवन-धनु को।
हुए अग्रसर उसी मार्ग में छुटे-तीर-से फिर वे ,
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से रह न सके अब थिर वे।

भरा कान में कथन काम का मन में नव अभिलाषा ,
लगे सोचने मनु—अतिरंजित उमड़ रही थी आशा।
ललक रही थी ललित लालसा सोमपान की प्यासी,
दिन के उस दीन विभव में जैसे बनी उदासी।
जीवन की अविराम साधना भर उत्साह खड़ी थी ,
ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी गहरे लौट पड़ी थी।
श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर काम-प्रेरणा मिल के।
भ्रांत अर्थ बन आगे आये बने ताड़ थे तिल के।
बन जाता सिद्धांत प्रथम-फिर पुष्टि हुआ करती है ,
बुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भरा करती है ।
मन जब निश्चित-सा कर लेता कोई मत है अपना ,
बुद्धि दैवबल से प्रमाण का सतत निरखता सपना ।
पवन वही हिलकोर उठाता वही तरलता जल में ।
वही प्रतिध्वनि अंतरतम की छा जाती नभ थल में ।
सदा समर्थन करती उसकी तर्कशास्त्र की पीढ़ी ,
"ठीक यही है सत्य ! यही है उन्नति सुख की सीढ़ी।

[ ५२ ]

और सत्य । यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है ?
मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में खोज तुम्हारी रट-सी लगी हुई है ,
किन्तु स्पर्श से तर्क-करों के बनता 'छुईमुई' है।
असुर पुरोहित उस विप्लव से बच कर भटक रहे थे ,
वे किलात--आकुलि थे--जिनने कष्ट अनेक सहे थे।
देखदेख कर मनु का पशु, जो व्याकुल चंचल रहती--
उनकी आमिष-लोलुप-रसना आंखों से कुछ कहती।
'क्यों किलात ! खाते-खाते तृण और कहाँ तक जीऊँ,
कब तक मैं देखूँ जीवित पशु घूँट लहू का पीऊँ !
क्या कोई इसका उपाय ही नहीं कि इसको खाऊँ ?
बहुत दिनों पर एक बार तो सुख की बीन बजाऊँ।
आकुलि ने तब कहा- 'देखते नहीं, साथ में उसके
एक मृदुलता की, ममता की छाया रहती हँस के।
अंधकार को दूर भगाती वह आलोक किरन-सी ,
मेरी माया बिंध जाती है जिससे हलके घन-सी ।
तो भी चलो आज कुछ करके तब मैं स्वस्थ रहूंगा ,
या जो भी आयेंगे सुख-दुःख उनको सहज सहूंगा।
यों ही दोनों कर विचार उस कुंज द्वार पर आये ,
जहाँ सोचते थे मनु बैठे मन से ध्यान लगाये।

"कर्म-यज्ञ से जीवन के सपनों का स्वर्ग मिलेगा ,
इसी विपिन में मानस की आशा का कुसुम खिलेगा।
किन्तु बनेगा कौन पुरोहित ? अब यह प्रश्न नया है ,
किस विधान से करुँ यज्ञ यह पथ किस ओर गया है ।
श्रद्धा ! पुण्य-प्राप्य है मेरी वह अनंत अभिलाषा ,
फिर इस निर्जन में खोजे अब किसको मेरी आशा !

कहा असुर मित्रों ने अपना मुख गंभीर बनाये--
"जिनके लिए यज्ञ होगा हम उनके भेजे आये।

[ ५३ ]

यजन करोगे क्या तुम ? फिर यह किसको खोज रहे हो ?
अरे पुरोहित की आशा में कितने कष्ट सहे हो ।
इस जगती के प्रतिनिधि जिनसे प्रगट निशीथ सबेरा--
'मित्र--वरुण' जिनकी छाया है यह आलोक-अंधेरा ।
वे ही पथ-दर्शक हों सब विधि पूरी होगी मेरी ,
चलो आज फिर से वेदी पर हो ज्वाला की फेरी।"

"परंपरागत कर्मों की वे कितनी सुन्दर लड़ियाँ ,
जीवन-साधन की उलझी हैं जिसमें सुख की घड़ियाँ ,
जिनमें हैं प्रेरणामयी-सी संचित कितनी कृतियाँ
पुलक भरी सुख देने वाली बन कर मादक स्मृतियां।
साधारण से कुछ अतिरंजित गति में मधुर त्वरा-सी
उत्सव-लीला, निर्जनता की जिससे कटे उदासी।
एक विशेष प्रकार कुतूहल होगा श्रद्धा को भी।
प्रसन्नता से नाच उठा मन नूतनता का लोभी।"

यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी धधक रही थी ज्वाला ,
दारुण-दृश्य? रुधिर के छींटे अस्थि खंड की माला।
बेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी ,
मिलकर वातावरण बना था कोई कुत्सित प्राणी।
सोमपात्र भी भरा, धरा था । पुरोडाश भी आगे ,
श्रद्धा वहां न थी मनु के तब सुप्त भाव सब जागे ।

“जिसका था उल्लास निरखना वही अलग जा बैठी ,
यह सब क्यों फिर! दृप्त-वासना लगी गरजने ऐंठी।
जिसमें जीवन का संचित सुख सुन्दर मूर्त्त बना है,
हृदय खोलकर कैसे उसको कहूं कि वह अपना है।
वही प्रसन्न नहीं : रहस्य कुछ इसमें सुनिहित होगा,
आज वही पशु मर कर भी क्या सुख में बाधक होगा।

[ ५४ ]

श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या उसे मनाना होगा ,
या वह स्वयं मान जायेगी, किस पथ जाना होगा।"
पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे मनु करने ,
लगे प्राण के रिक्त अंश को मादकता से भरने।

संध्या की धूसर छाया में शैल शृंंग की रेखा ,
अंकित थी दिगंत अंबर में लिये मलिन शशि-लेखा ।
श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में दुखी लौट कर आयी ,
एक विरक्ति-बोझ सी ढोती मन ही मन बिलखायी।
सूखी काष्ठ संधि में पतली अनल शिखा जलती थी,
उस धुंधले गृह में आभा से, तामस को छलती थी।
किन्तु कभी बुझ जाती पाकर शीत पवन के झोंके ,
कभी उसी से जल उठती तब कौन उसे फिर रोके ?
कामायनी पड़ी थी अपना कोमल चर्म बिछा के ,
श्रम मानो विश्राम कर रहा मृदु आलस को पा के।
धीरे-धीरे जगत चल रहा अपने उस ऋजुपथ में ,
धीरे-धीरे खिलते तारे मृग जुतते विघुरथ में !
अंचल लटकाती निशीथिनी अपना ज्योत्स्ना-शाली
जिसकी छाया में सुख पावे सृष्टि वेदना वाली।
उच्च शैलशिखरों पर हंसती प्रकृति चंचला बाला
धवल हंसी बिखराती अपना फैला मघुर उजाला।
जीवन की उद्दाम लालसा उलझी जिसमें ब्रीड़ा,
एक तीव्र उन्माद और मन मथने वाली पीड़ा।
मधुर विरक्ति भरी आकुलता, घिरती हृदय-गगन में
अंतर्दाह स्नेह का तब भी होता था उस मन में।
वे असहाय नयन थे खुलते—मुंदते भीषणता में ,
आज स्नेह का पात्र खड़ा था स्पष्ट कुटिल कटुता में।

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[ ५५ ]

"कितना दुःख जिसे मैं चाहूँ वह कुछ और बना हो ;
मेरा मानस-चित्र खींचना सुन्दरसा सपना हो।
जाग उठी है दारुण-ज्वाला इस अनंत मधुवन में ,
कैसे बुझे कौन कह देगा इस नीरव निर्जन में ?
यह अनंत अवकाश नीड़-सा जिसका व्यथित बसेरा ,
वही वेदना सजग पलक में भर कर अलस सबेरा
काँप रहे हैं चरण पवन के, विस्तृत नीरवता-सी--
घुली जा रही है दिशि-दिशि की नभ में मलिन उदासी ।
अंतरतम की प्यास विकलता से लिपटी बढ़ती है ,
युगयुग की असफलता का अवलंबन ले चढ़ती है ।
विश्व विपुल-आतंक-त्रस्त है अपने ताप विषम-से ,
फैल रही है घनी नीलिमा अंतर्दाह परम-से।
उद्वेलित है उदधि, लहरियाँ लोट रहीं व्याकुल-सी
चक्रवाल की धुंधली रेखा मानो जाती झुलसी।
सघन घूम कुंडल में कैसी नाच रही यह ज्वाला ,
तिमिर फणी पहने है मानो अपने मणि की माला !
जगती-तल का सारा कुंदन यह विषमयी विषमता
चुभने वाला अंतरंग छल अति दारुण निर्ममता।
जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा,
कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आंखों की क्रीड़ा ।
स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं ,
एक बिंदु, जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं।
आह वही अपराध जगत की दुर्बलता की माया ,
धरणी की वर्जित मादकता, संचित तम की छाया।
नील गरल से भरा हुआ यह चंद्र कपाल लिये हो ,
इन्हीं निमीलित ताराओं में कितनी शांति पिये हो।
अखिल विश्व का विष पीते हो सृष्टि जियेगी फिर से ,
कहो अमर शीतलता इतनी आती तुम्हें किधर से?

[ ५६ ]

अचल अनंत नील लहरों पर बैठे आसन मारे ,
देव ! कौन तुम, झरते तन से श्रमकण से ये तारे !
इन चरणों में कर्मकुसुम की अंजलि वे दे सकते ,
चले आ रहे छायापथ में लोक-पथिक जो थकते ,
किन्तु कहाँ वह दुर्लभ उनको स्वीकृति मिली तुम्हारी ?
लौटाये जाते वे असफल जैसे नित्य भिखारी !
प्रखर विनाशशील नर्तन में विपुल विश्व की माया ,
क्षण-क्षण होती प्रकट नवीना बन कर उसकी काया।
सदा पूर्णता पाने को सब भूल किया करते क्या ?
जीवन में यौवन लाने को जी-जी कर मरते क्या ?
यह व्यापार महागतिशाली कहीं नहीं बसता क्या ?
क्षणिक विनाशों में स्थिरमंगल चुपके से हँसता क्या ?
यह विराग संबंध हृदय का कैसी यह मानवता !
प्राणी को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता !
जीवन का संतोष अन्य का रोदन बन हंसता क्यों ?
एक-एक विश्राम प्रगति को परिकरसा कसता क्यों ?
दुर्व्यवहार एक का कैसे अन्य भूल जावेगा ,
कौन उपाय ! गरल को कैसे अमृत बना पावेगा !"

जाग उठी थी तरल वासना मिली रही मादकता ,
मनु को कौन वहाँ आने से भला रोक अब सकता !
खुले मसृण भुजमूलों से वह आमंत्रण था मिलता ,
उन्नत वक्षों में आलिंगन सुख लहरोंसा तिरता।
नीचा हो उठता जो धीमे-धीमे निःश्वासों में ,
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा हिमकर के हासों में ।
जागृत था सौंदर्य यद्यपि वह सोती थी सुकुमारी ,
रूप-चंद्रिका में उज्ज्वल थी आज निशासी नारी।

[ ५७ ]

वे मांसल परमाणु किरण से विद्युत थे बिखराते,
अलकों की डोरी में जीवन कण-कण उलझे जाते।
विगत विचारों के श्रम-सीकर बने हुए थे मोती,
मुख मण्डल पर करुण कल्पना उनको रही पिरोती।
छूते थे मनु और कंटकित होती थी वह बेली,
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी जो अंग-लता थी फैली।
वह पागल सुख इस जगती का आज विराट बना था,
अंधकार-मिश्रित प्रकाश का एक वितान तना था ।
कामायनी जगी थी कुछ-कुछ खोकर सब चेतनता,
मनोभाव आकार स्वयं ही रहा बिगड़ता बनता।
जिसके हृदय सदा समीप है वही दूर जाता है ,
और क्रोध होता उस पर ही जिससे कुछ नाता है।
प्रिय को ठुकरा कर भी मन की माया उलझा लेती,
प्रणय-शिला प्रत्यावर्तन में उसको लौटा देती।

जलदागम-मारुत से कंपित पल्लव सदृश हथेली ,
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने अपने कर में ले ली।
अनुनय वाणी में, आंखों में उपालंभ की छाया ,
कहने लगे-"अरे यह कैसी मानवती की माया !
स्वर्ग बनाया है जो मैंने उसे न विफल बनाओ,
अरी अप्सरे ! उस अतीत के नूतन गान सुनाओ ।
इस निर्जन में ज्योत्स्ना-पुलकित विद्युत नभ के नीचे,
केवल हम तुम-और कौन है ? रहो न आँखें मींचे।
आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा ,
जीवन के दोनों कूलों में बहे वासना धारा ।
श्रम की, इस अभाव की जगती उसकी सब आकुलता ,
जिस क्षण भूल सकें हम अपनी यह भीषण चेतनता।
वही स्वर्ग की बन अनंतता मुसक्याता रहता है ,
दो बूंदो में जीवन का रस लो बरबस बहता है।

[ ५८ ]

देवों को अर्पित मधु-मिश्रित सोम, अधर से छू लो,
मादकता दोला पर प्रेयसी! आओ मिलकर झूलो।"

श्रद्धा जाग रही थी तब भी छाई थी मादकता ,
मधुर-भाव उसके तन-मन में अपना हो रस छकता ,
बोली एक सहज मुद्रा से यह तुम क्या कहते हो ,
आज अभी तो किसी भाव की धारा में बहते हो।
कल ही यदि परिवर्तन होगा तो फिर कौन बचेगा !
क्या जाने कोई साथी बन नूतन यज्ञ रचेगा।

और किसी की फिर बलि होगी किसी देव के नाते,
कितना धोखा ! उससे तो हम अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो बचे हुए हैं इस अचला जगती के,
उनके कुछ अधिकार नहीं क्या वे सब ही हैं फीके ?
मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी उज्ज्वल नव मानवता।
जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत ! बची क्या शवता।"

तुच्छ नहीं है अपना सुख भी श्रद्धे ! वह भी कुछ है,
दो दिन के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।
इंद्रिय की अभिलाषा जितनी सतत सफलता पावे,
जहां हृदय की तृप्ति-विलासिनि मधुर-मधुर कुछ गावे।
रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में मृदु मुसक्यान खिले तो,
आशाओं पर श्वास निछावर होकर गले मिले तो ।
विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख मुकुर बनी रहती हो,
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है ! यह तुम क्या कहती हो ?
जिसे खोजता फिरता मैं इस हिमगिरि के अंचल में ,
वही अभाव स्वर्ग बन हंसता इस जीवन चंचल में।
वर्तमान जीवन के सुख से योग जहाँ होता है,
छली-अदृष्ट अभाव बना क्यों वहीं प्रकट होता है।

[ ५९ ]

किंतु सकल कृतियों की अपनी सीमा हैं हम ही तो ,
पूरी हो कामना हमारी, विफल प्रयास नहीं तो ।"

एक अचेतनता लाती सी सविनय श्रद्धा बोली--
"बचा जान यह भाव सृष्टि ने फिर से आँखें खोली !
भेद-बुद्धि निर्मम ममता की समझ, बची ही होगी ,
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी लौट गयी ही होंगी।
अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हंसते देखो मनु--हंसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ !
रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ यह यज्ञ-पुरुष का जो है,
संसृति-सेवा भाग हमारा उसे विकसने को है !
सुख को सीमित कर अपने में केवल दुःख छोड़ोगे ,
इतर प्राणियों की पीड़ा लख अपना मुंह मोड़ोगे ,
ये मुद्रित कलियाँ दल में सब सौरभ बंदी कर लें ,
सरस न हों मकरंद बिंदु से खुल कर, तो ये मर लें--
सूखे, झड़े और तब कुचले सौरभ को पाओगे,
फिर आमोद कहाँ से मधुमय वसुधा पर लाओगे ।
सुख अपने संतोष के लिए संग्रह-मूल नहीं है ,
उसमें एक प्रदर्शन जिसको देखें अन्य, वही है।
निर्जन में क्या एक अकेले तुम्हें प्रमोद मिलेगा ?
नहीं इसी से अन्य हृदय का कोई सुमन खिलेगा ।
सुख-समीर पाकर, चाहे हो वह एकांत तुम्हारा ,
बढ़ती है सीमा संसृति की बन मानवता-धारा।"

हृदय हो रहा था उत्तेजित बातें कहते-कहते ,
श्रद्धा के थे अधर सूखते मन की ज्वाला सहते।

[ ६० ]

उधर सोम का पात्र लिये मनु, समय देखकर बोले-
"श्रद्धे ! पी लो इसे बुद्धि के बंधन को जो खोले ।
वही करूँगा जो कहती हो सत्य, अकेला सुख क्या !
यह मनुहार ! रुकेगा प्याला पीने से फिर मुख क्या ?"

आँखे प्रिय आँखों में, डूबे अरुण अधर थे रस में
हृदय काल्पनिक-विजय में सुखी चेतनता नस-नस में ।
छल-वाणी की वह प्रवंचना हृदयों की शिशुता को,
खेल खिलाती, भुलवाती जो उस निर्मल विभुता को,
जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य की प्रगति दिशा को पल में
अपने एक मधुर इंगित से बदल सके जो छल में--
वही शक्ति अवलंब मनोहर निज मनु को थी देती ,
जो अपने अभिनय से मन को सुख में उलझा लेती।

"श्रद्धे, होगी चंद्रशालिनी यह भव-रजनी भीमा ,
तुम बन जाओ इस जीवन के मेरे सुख की सीमा।
लज्जा का आवरण प्राण को ढंक लेता है तम से ,
उसे अकिंचन कर देता है अलगाता 'हम तुम' से
कुचल उठा आनंद,—यही है बाधा, दूर हटाओ,
अपने ही अनुकूल सुखों को मिलने दो मिल जाओ।"

और एक फिर व्याकुल चुंबन रक्त खौलता जिससे ,
शीतल प्राण धधक उठते हैं तृषा-तृप्ति के मिस से ।
दो काठों की संधि बीच उस निभृत गुफा में अपने ,
अग्निशिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने।