कायाकल्प/११

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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११

सभी लोग बड़े कुतूहल से आनेवालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुँचे। आगे आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे। पीछे कोई पचीस-तीस आदमी साफ सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। दोनों तरफ कई झण्डी-वरदार थे, जिनकी झण्डियाँ हवा में लहरा रही थीं। सबसे पीछे बाजेवाले थे! मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बाँधे हुए कुँवर साहब के सामने आकर खड़े हो गये। मुंशीजी की सज धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिन्दुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले—दीनबन्धु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभसूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थ यात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान् की छत्र-छाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज से श्रीमान् हमारे भाग्य विधाता हुए। यह पत्र है, [ ८३ ]जो महारानीजी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था।

यह कहकर ठाकुर साहब ने रानी का पत्र विशालसिंह के हाथ में रख दिया। कुँवर साहब ने एक ही निगाह में उसे आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मन्द हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले—यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यन्त खेद हो रहा है। लेकिन इस बात का सच्चा आनन्द भी है कि उन्होंने निवृत्ति-मार्ग पर पग रखा; क्योंकि ज्ञान ही से मुक्ति प्राप्त होती है। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गरदन पर जो कर्तव्य-भार रखा है, उसे सँभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने के भी शक्ति प्रदान करे। आप लोगों को मै विश्वास दिलाता हूँ कि मै यथासाध्य अपन कर्तव्य पालन करने में ऊँचे आदर्शों को सामने रखूँगा, लेकिन मेरी सफलता बहुत कुछ आप ही लोगो की सहानुभूति और सहकारिता पर निर्भर है, और मुझे आशा है कि आप मेरी सहायता करने में किसी प्रकार की कोताही न करेंगे। मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त हो रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए।

इस कथन में शिष्टता की मात्रा अधिक और नीति की बहुत कम थी, फिर भी सभी राज्य-कर्मचारियों को यह बातें अप्रिय जान पड़ीं। सबके कान खड़े हो गये और हरि सेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है। उनके प्राण सूख गये सभी आपस में काना-फूसी करने लगे।

कुँवर साहब ने लोगों को ले जाकर फर्श पर बैठाया और खुद मसनद लगाकर बैठे। नजराने की निरर्थक रस्म अदा होने लगी। बैंड ने बधाई देनी शुरू की। चक्रधर ने पान और इलायची से सबका सत्कार किया। कुँवर साहब का जी बार-बार चाहता था कि घर में जाकर यह सुख-संवाद सुनाऊँ; पर मौका न देखकर जब्त किये हुए थे मुंशी वज्रधर अब तक खामोश बैठे थे। ठाकुर हरसेवक को यह खुशखबरी सुनाने का मौका देकर उन्होंने अपने ऊपर कुछ कम अत्याचार न किया था। अब उनसे चुप न रहा गया। बोले—हुजूर, आज सबसे पहले मुझी को यह हाल मालूम हुआ।

हरिसेवक ने इसका खण्डन किया—मै भी तो आपके साथ ही पहुँच गया था।

वज्रधर—आप मुझसे जरा देर बाद पहुँचे। मेरी आदत है कि बहुत सबेरे उठता हूँ। देर तक सोता, तो एक दिन भी तहसीलदारी न निभती। बड़ी हुकूमत की जगह है, हुजूर! वेतन तो कुछ ऐसा ज्यादा न था; पर हुजूर, अपने इलाके का बादशाह था। खैर, ड्योढ़ी पर पहुँचा तो सन्नाटा छाया हुआ था। न दरबान का पता, न सिपाही का। घबराया कि माजरा क्या है! बेधड़क अन्दर चला गया। मुझे देखते ही गुजराती रोती हुई दौड़ी और तुरन्त रानी साहब का खत लाकर मेरे हाथ में रख दिया। रानी जी ने उससे शायद यह खत मेरे ही हाथ में देने को कहा था। [ ८६ ]ताल देने लगे। यहाँ तक कि वह नाचने लगे। उन्हें इसकी जरा भी झेंप न थी कि लोग दिल में क्या कहते होंगे। गुणी को अपना गुण दिखाते शर्म नहीं आती। पहल वान को अखाड़े में ताल ठोंककर उतरते क्या शर्म। जो लड़ना नहीं जानते, वे ढकेलने से भी अखाड़े में नहीं जाते। सभी कर्मचारी मुँह फेर-फेरकर हँसते थे। जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी यह ताण्डव नृत्य देखने के लिए आ पहुँचे। यहाँ तक कि विशालसिंह भी हँस रहे थे। मुंशीजी के बदले देखनेवालों को झेंप हो रही थी, लेकिन मुंशीजी अपनी धुन में मग्न थे। गुणी गुणियों के सामने अनुरक्त हो जाता है। अनाड़ी लोग तो हँस रहे थे और गुणी लोग नृत्य का आनन्द उठा रहे थे। नृत्य ही अनुराग की चरम सीमा है।

नाचते नाचते आनन्द से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे। उनका मुख अनुराग से प्रदीप्त हो रहा था। आज बड़े सौभाग्य से और बहुत दिनों के बाद उन्हें यह स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करने का अवसर मिला था। उनकी बूढ़ी हड्डियों में इतनी चपलता कहाँ से आ गयी, इसका निश्चय करना कठिन है। इस समय तो उनकी फुर्ती और चुस्ती जवानों को भी लज्जित करती थी। उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था। इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुँचा। सारी महफिल खड़ी हो गयी और सभी उस्तादों ने एक स्वर से मंगलगान शुरू किया। साजों के मेले ने समाँ बाँध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे, जिन्हें इस समय भी चिन्ता घेरे हुए थी। एक तो ठाकुर हरिसेवकसिंह, दूसरे कुँवर विशालसिंह। एक को यह चिन्ता लगी हुई थी कि देखें, कल क्या मुसीबत आती है, दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्योंकर पुरानी कसर निकालूँ। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुँह छिपाये बाहर खड़े थे, मंगल गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बाँटने लगे। किसी ने मोहन-भोग का थाल उठाया, किसी ने फलों का। कोई पञ्चामृत बाँटने लगा। हरबोग-सा मच गया। कुँवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला, दालान में ले जाकर पूछने लगे—दीवान साहब ने तो मौका पाकर खूब हाथ साफ किये होंगे।

वज्रधर—मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिन-भर सामान की जाँच पड़ताल करते रहे। घर तक न गये।

विशालसिंह—यह सब तो आपके कहने से किया। आप न होते, न जाने क्या गजब ढाते।

वज्रधर—मेरी बातों का यह मतलब न था कि वह आपसे कोना रखते हैं। इन छोटी छोटी बातों की ओर ध्यान देना उनका काम नहीं है। मुझे तो यह फिक्र थी कि दफ्तर के कागज तैयार हो जायँ। मैं किसीकी बुराई न करूँगा। दीवान साहब को आपसे अदावत थी, यह मैं मानता हूँ। रानी साहब का नमक खाते थे और आपका बुरा चाहना उनका धर्म था, लेकिन अब वह आपके सेवक हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि वह उतनी ही ईमानदारी से आपकी सेवा करेंगे। [ ८७ ]

विशालसिंह—आपको पुरानी कथा मालूम नहीं। इसने मुझपर बड़े-बड़े जुल्म किये हैं। इसी के कारण मुझे जगदीशपुर छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कत्ल करा दिया होता।

वज्रधर—गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता तो क्या रानीजी की जान बच जाती, या दीवान साहब जिन्दा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइए। भगवान् ने आज आपको ऊँचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए। मातहतों से उनके अफसर के विषय में कुछ पूछ-ताछ करना अफसर को जलील कर देना है। मैंने इतने दिनों तहसीलदारी की; लेकिन नायब साहब ने तहसीलदार के विषय में चपरासियों से कभी कुछ नहीं पूछा। मैं तो खैर इन मामलो को समझता हूँ; लेकिन दूसरे मातहतों से यदि आप ऐसी बाते करेंगे, तो वह अपने अफसर की हजारों बुराइयाँ आपसे करेंगे। मैंने ठाकुर साहब के मुँह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह मालूम हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।

विशालसिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा—मैं आपको ठाकुर साहब का मातहत नहीं, अपना मित्र समझता हूँ, और इसी नाते से मैंने आपसे यह बात पूछी थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूँगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें। हाँ, प्रजापर अत्याचार न करें।

वज्रधर—नौकर अपने मालिक का रुख देखकर ही काम करता है। रानीजी को हमेशा रुपए की तंगी रहती थी। दस लाख की आमदनी भी उनके लिए काफी न होती थी! इसी हालत में ठाकुर साहब को मजबूर होकर प्रजा पर सख्ती करनी पड़ती थी। वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं। जिस वक्त जितने रुपयो की उन्हें जरूरत पड़ती थी, ठाकुर साहब को देने पड़ते थे। जहाँ तक मुझे मालूम है, इस वक्त रोकड़ में एक पैसा भी नहीं है। गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबन्ध करना पड़ेगा। दो ही उपाय हैं—या तो कर्ज लिया जाय, अथवा प्रजा से कर वसूलने के सिवा ठाकुर साहब और क्या कर सकते हैं?

विशालसिंह—गद्दी के उत्सव के लिए मैं प्रजा का गला नही दबाऊँगा। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि उत्सव मनाया ही न जाय।

वज्रधर—हुजूर यह क्या फरमाते हैं। ऐसा भी कहीं हो सकता है?

विशालसिंह—खैर, देखा जायगा। जरा अन्दर जाकर रानियों को भी खुशखबरी दे आऊँ!

यह कहकर कुँवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। वह पीछे की तरफ की खिड़की खोले खड़ी थी। उस अन्धकार में उसे अपने भविष्य का रूप खिंचा हुआ नजर आता था। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदान्ध आँखें [ ८८ ]खोल दी थीं। वह घर से निकलने की भूल स्वीकार करती थी। लेकिन कुँवर साहब का उसको मनाने न जाना बहुत अखर रहा था। इस अपराध का इतना कठोर दण्ड। ज्यों-ज्यों वह उस स्थिति पर विचार करती थी, उसका अपमानित हृदय और भी तड़प उठता था।

कुँवर माहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा—रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अमिलाषा पूरी की। जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गयी।

रोहिणी—तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जायगा। जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जायगा। काहे को कोई जीने पायेगा?

विशालसिंह ने दुखित होकर कहा—प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनय सुन ली।

रोहिणी—जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाँगो?

विशालसिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायगी, कुछ बोले नहीं। वहाँ से वसुमती के पास पहुँचे। वह मुँह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले—क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें।

वसुमती—पटरानीजी को तो सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूँगी। अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी। तो यहाँ बचा हुआ सत्तू खानेवाले पाहुने नहीं हैं।

विशालसिंह—क्या कहती हो? मेरी समझ में नहीं आता।

वसुमती—हाँ, अभी भोले नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आयेगा। गरदन पर छुरी फेर रहो हो, ऊपर से कहते हो कि तुम्हारी बातें समझ में नहीं आतीं। ईश्वर मौत भी नहीं दे देते कि इस आये दिन की दाँता-किल किल से छूटती। यह जलन अब नहीं सही जाती। पीछेवाली आगे आयी, आगेवाली कोने में। मैं यहाँ से बाहर पाँव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो। किसी के हाथों में भी जस नहीं, किसी को लातों में भी जस है।

विशालसिंह दुखी होकर बोले—यह बात नहीं है, वसुमती! तुम जान बूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था। ईश्वर से कहता हूँ, उसका कमरा अँधेरा देखकर चला गया, देखें क्या बात है।

वसुमती—मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये। तुम्हें तो ईश्वर ने नाहक मँछे दे दीं। औरत होते, तो किसी भले आदमी का घर बसता। जाँघ-तले की स्त्री सामने से निकल गयी और तुम टुकुर-टुकुर ताकते रहे। मैं कहती हूँ, आखिर तुम्हें यह क्या हो गया है? उसने कहीं कुछ कर-करा तो नहीं दिया? जैसे काया ही पलट गयी। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या सँभालेगा?

यह कहकर उठी और झल्लायी हुई छत पर चली गयी। विशालसिंह कुछ देर [ ८९ ]उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर ऊपर उठाया. तो आँखों में आँसू भरे हुए थे। विशालसिंह ने चौंककर पूछा—क्या बात है, प्रिये, रो क्यों रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ?

रामप्रिया ने आँसू पोंछते हुए कहा—सुन चुकी हूँ मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार मे चली गयी, क्या यह खुशखबरी है? अब तक और कुछ नहीं था तो उसकी कुशल-क्षेम का समाचार तो मिलता रहता था। अब क्या मालूम होगा कि उसपर क्या बीत रही है। दुखिया ने संसार का कुछ सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते-ही-रोते उम्र बीत गयी।

यह कहकर रामप्रिया फिर सिसक-सिसककर रोने लगी।

विशालसिंह—उन्होंने पत्र में तो लिखा है कि मेरा मन संसार से विरक्त हो गया है।

रामप्रिया—इसको विरक्त होना नहीं कहते। यह तो जिन्दगी से घबराकर भाग जाना है। जब आदमी को कोई आशा नहीं रहती, तो वह मर जाना चाहता है। यह विराग नहीं है। विराग ज्ञान से होता है, और उस दशा में किसी को घर से निकल भागने की जरूरत नहीं होती। जिसे फूलों की सेज पर भी नींद नहीं आती थी, वह पत्थर की चट्टानों पर कैसे सोयेगी। बहन से बड़ी भूल हुई। क्या अन्त समय ठोकरें खाना ही उनके कर्म में लिखा था?

यह कहकर वह फिर सिसकने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गये। मेडू खाँ सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फजलू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नजर आते थे। ऐसा मालूम होता था, मानो सुधा का अनन्त प्रवाह स्वर्ग की सुनहरी शिलाओं से गले मिल मिलकर नन्ही-नन्ही फुहारों में किलोलें कर रहा हो। सितार के तारों से स्वर्गीय तितलियों की कतारें-सीं निकल-निकलकर समस्त वायु-मण्डल में अपने झीने परों से नाच रही थीं। उसका आनन्द उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे।

किन्तु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हँसती थी, दूल्हा रो रहा था।

राजा साहब! ऐश्वर्य के उपासक थे। तीन पीढ़ियों से उनके पुरखे यही उपासना करते चले आते थे। उन्होने स्वयं इस देवता की तन मन से आराधना की थी। आज देवता प्रसन्न हुए थे। तीन पीढ़ियों की अविरल भक्ति के बाद उनके दर्शन मिले थे। इस समय घर के सभी प्राणियों को पवित्र हृदय से उनको वन्दना करनी चाहिए थी, सबको दौड़-दौड़कर उनके चरणों को धोना और उनकी आरती करनी चाहिए थी। इस समय ईर्ष्या, द्वेष और क्षोभ को हृदय में पालना उस देवता के प्रति घोर आसक्ति थी। राजा साहब को महिलाओं पर दया न आती, क्रोध आता था। सोच रहे थे जब [ ९० ]अभी से ईर्ष्या के मारे इनका यह हाल है, तो आगे क्या होगा। तब तो आये दिन तलवारें चलेंगी। इनकी सजा यह है कि इन्हें इसी जगह छोड़ दूँ। लड़ें जितना लड़ने का बूता हो। रोयें जितना रोने की शक्ति हो। जो रोने के लिए बनाया गया हो, उसे हँसाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। इन्हें राज भवन ले जाकर गले का हार क्यों बनाऊँ? उस सुख को, जिसका मेरे जीवन के साथ ही अन्त हो जाना है, इन क्रूर क्रीड़ाओं से क्यों नष्ट करूँ?