कायाकल्प/१०

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ ७१ ] [ ७४ ]क्यों नहीं मँगवा लेतीं? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी-भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?

रोहिणी रसाई से बाहर निकलकर बोली—बहन, जरा मुँह सँभालकर बात करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।

वसुमती—अपमान तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन ठनकर अठिलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।

रोहिणी—मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरों की आँखें क्यों फूटती हैं? भगवान् के जन्म के दिन भी न बनूँ-ठनूँ? उत्सव में तो रोया नहीं जाता!

वसुमती—तो और बनो ठनो, मेरे अँगूठे से। आँखें क्यों फोड़ती हो? आँखें फूट जायेंगी, तो चिल्लू भर पानी भी तो न दोगी।

रोहिणी—क्या आज लड़ने ही पर उतारू होकर आयी हो, क्या? भगवान् सब दुःख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने कपड़े आँखों में गढ़ रहे हैं? न पहनूँगी। जाकर बाहर कह दे, पकवान प्रसाद किसी हलवाई से बनवा ले। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उनपर, जिनके कारण यह सब हो रहा है।

यह कहकर रोहिणी अपने कमरे में चली गयी। सारे गहने कपड़े उतार फेंके और मुँह ढाँपकर चारपाई पर पड़ रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले—इन चाण्डालिनों से आज शुमोत्सव के दिन भी शान्त नहीं बैठा जाता। इस जिन्दगी से तो मौत ही अच्छी। घर में आकर रोहिणी से बोले—तुम मुँह ढाँपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो? रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया—फट पड़े वह सोना जिससे टूटें कान। ऐसे उत्सव से बाज आयी, जिसे देखकर घरवालों की छाती फटे।

विशालसिंह—तुमसे तो बार-बार कहा कि उनके मुँह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा देता है। दो बातें सुन लो, तो तीसरी बात कहने का साहस न हो। फिर तुमसे बड़ी भी तो ठहरी, यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।

जिस दिन वसुमती ने विशालसिंह को व्यंग्य-बाण मारा था, जिसकी कथा हम कह चुके हैं, उसी दिन से उन्होंने उससे बोलना चालना छोड़ दिया था। उससे कुछ डरने लगे थे, उसके क्रोध की भयंकरता का अन्दाज़ पा लिया था। किन्तु रोहिणी क्यों दबने लगी। यह उपदेश सुना तो झुँझलाकर बोली—रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उसका लिहाज करे। इन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूँ। घर छोड़कर निकल जाऊँ? वह इसी पर लगी हुई हैं। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा काँपता है। तुम न शह देते तो उनकी मजाल थी कि यों मुझे आँखें दिखातीं!

विशालसिंह—तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूँ कि तुम्हें गालियाँ दें? [ ७५ ]रोहिणी—और क्या करते हो। जब घर में कोई न्याय करनेवाला नही रहा, तो इसके सिवा और क्या होगा। सामने तो चुड़ैल की तरह बैठी हुई हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? मुँह में कालिख क्यों नहीं लगाते? दूसरा पुरुष होता, तो जूतों से बात करता, सारी शेखी किरकिरी हो जाती। लेकिन तुम तो खुद मेरी दुर्गति कराना चाहते हो। न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था।

कुँवर साहब ज्यों ज्यों रोहिणी का क्रोध शान्त करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बफरती जाती थी और बार-बार कहती थी, तुमने मेरे साथ क्यों ब्याह किया। यहाँ तक कि अन्त में वह भी गर्म पड़ गये और बोले—और पुरुष स्त्रियों से विवाह करके कौनसा सुख देते हैं, जो मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ? रही लड़ाई-झगड़े की बात। तुम न लड़ना चाहो, तो कोई जबरदस्ती तुमसे न लड़ेगा। आखिर, रामप्रिया भी तो इसी घर में रहती है!

रोहिणी—तो मैं स्वभाव ही से लड़ाकू हूँ?

विशालसिंह—यह मैं थोड़े ही कहता हूँ।

रोहिणी—और क्या कहते हो? साफ साफ कहते हो, फिर मुकरते क्यों हो? मै स्वभाव से ही झगड़ालू हूँ। दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह! क्या नयी बात निकाली है। कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जायगा।

विशालसिंह—तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गयीं। रोहिणी—क्या करूँ, भगवान ने बुद्धि ही नहीं दी। वहाँ भी 'अन्धेर नगरी और चौपट राजा' होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियो के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के—नही नहीं, महारानी के—और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में ठूँस दी गयी।

विशालसिह—अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ खबर है, नौ बज रहे हैं।

रोहिणी—मेरी बला जाती है! उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।

विशालसिंह—तो तुम न उठोगी?

रोहिणी—नहीं, नहीं, नहीं, या और दो-चार बार कह दूँ?

वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियो की बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैठूँ। क्षण क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखायी देता था, फिर निकल जाता था, यहाँ तक कि अन्त में प्रतिद्वन्द्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे ही दिया। विशालसिह को मुँह लटकाये रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली—क्या मेरी सूरत देखने की कसम खा ली [ ७६ ]तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं? बहुत दिन तो हो गये रूठे, क्या जन्मभर रूठे ही रहोगे? क्या बात है? इतने उदास क्यों हो?

विशालसिंह ने ठिठककर कहा—तुम्हारी ही लगाई हुई आग को तो शांत कर रहा था, पर उलटे हाथ जल गये। यह क्या रोज रोज तूफान खड़ा किया करती हो। चार दिन की जिन्दगी है, इसे हँस खेलकर नहीं काटते बनता। मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊँ। सच कहता हूँ, जिन्दगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्ही लगा रही हो।

वसुमती—कहाँ भागकर जाओगे? नयी-नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नये ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं?

विशालसिंह—बहुत उठा चुका, जी भर गया।

वसुमती—बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिसमें चौकड़ी पूरी हो जाय।

विशालसिंह—क्यों बैठे बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोग विलास करने के लिए, या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी।

वसुमती—अच्छा, आओ, सुनते जाओ।

विशालसिंह—जाने दो, लोग बाहर बैठे होंगे।

वसुमती—अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घण्टे भर वहाँ बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई, मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सजा मिल रही है।

यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गयी और चारपाई पर बैठाती हुई बोली—औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आये, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गयी, मां बाप ने कुएँ में झोंक दिया, जिन्दगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछो, तुझे कोई जबरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे मां-बाप की आँखें फूट गयी थीं। वहाँ तो यह मसूबे थे कि बेटी मुँहजोर है ही, जाते-ही-नाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी! क्या मालूम था कि यहाँ उसका सिर कुचलने को कोई और भी बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हूँ, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरन्तर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानुस के साथ कुमानुस बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिलकुल सच है।

विशालसिंह—यहाँ वह खटवाँस लेकर पड़ी, अब पकवान कौन बनाये?

वसुमती—तो क्या जहाँ मुर्गा न होगा, वहाँ सवेरा ही न होगा? आखिर जब वह [ ७८ ]रामप्रिया—एक समय सखि सुअर सुन्दर! जवानी में कौन नहीं सुन्दर होता?

वसुमती—उसके माथे से तो तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न पहुँचे।

विशालसिंह—मैं मेहर-बस हूँ?

वसुमती—और क्या हो?

विशालसिंह—मैं उसे ऐसी ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।

वसुमती—क्या जाने, यहाँ तो जब देखती हूँ, उसे मुस्कराते देखती हूँ। कभी आँखों में आँसू न देखा।

रामप्रिया—कड़ी बात भी हँसकर कही जाय, तो मीठी हो जाती है।

विशालसिह—हँसकर नहीं कहता। डाँटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लट्टू हो जाऊँ।

वसुमती—डाँटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नयी बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ, लेकिन तुम्हारा मुँह जरा भी गिरा देखा और जान निकल गयी। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहाँ जब तक जाकर पैर न सहलाओ, तलुओं से आँखे न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हँसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जिसका अन्याय देखे, उसे डाँट दे, बुरी तरह डाँट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाय। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियाँ प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आँखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

रामप्रिया मुँह फेरकर मुस्करायी और बोली—बहन, तुम सब गुर बताये देती हो, किसके माथे जायगी?

वसुमती—हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?

रामप्रिया—जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगाम तानने से थोड़े ही काबू में आयी जाती है, और भी दुलत्तियाँ झाड़ने लगेगी।

विशालसिंह—मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की थी। आज ही देखो, कैसी फटकार बतायी।

वसुमती—क्या कहना है, जरा मँछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सवार दूँ। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बनी।

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा! रोहिणी रसोई के द्वार से दबे-पाँव चली जा रही थी। मुँह का रंग उड़ गया। दाँतों से ओठ दबाकर बोली—छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है। [ ७९ ]

विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक-नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गयी होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

वसुमती—उँह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे। आदमियों को बुलाओ, यह सामान यहाँ से ले जाएँ।

भादों की अँधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है, या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर-सागर में पाँव रखते काँपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था, कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भाँति खड़े रहे। दिल ने कहा—जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है। वह जहाँ जाती हो, जाय; जो जी में आये, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवा। बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूछूँ और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में और भी कालिख लग जाय। जब उसको मेरी परवा नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौड़ूँ। और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आँखें लाल किये कह रहे हैं—अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूँगा। जहाँ इच्छा हो जाय, मैंने तिलाञ्जलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूँगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?

चक्रधर—किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?

विशालसिंह—मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गयी हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गयी। अब तक तो मुँह फुलाये पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊँ! आप धक्के खायँगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।

चक्रधर—किधर गयी हैं, महरी?

महरी—क्या जानूँ, बाबूजी? मैं तो बरतन माँज रही थी। सामने ही गयी होंगी।

चक्रधर ने लपककर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दायें बायें निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गये होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलायी दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई [ ८० ]जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप आ पहुँचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली—क्या मुझे पकड़ने आये हो? अपना भला चाहते हो, तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुँह न देखूँगी।

चक्रधर—आप इस अंधेरे में कहाँ जायँगी? हाथ को तो हाथ सूझता नहीं।

रोहिणी—अँधेरे में डर उसे लगता है, जिसका कोई अवलम्ब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटनेवाले अपने होते हैं, पराये गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टाँगें फैलाकर सोइए, अब तो काँटा निकल गया।

चक्रधर—आप कुँवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।

रोहिणी—क्यों बातें बनाते हो? वह रोयेंगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊँगी, उस दिन घी के चिराग जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने मा बाप को क्या कहूँ। ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जायगी, तो हम राज करेंगे। यहाँ जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढ़ा हो, दरिद्र हो, पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।

चक्रधर—आपके यहाँ खड़े होने से कुँवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं?

रोहिणी—तुम्हीं ने तो मुझे रोक रक्खा है।

चक्रधर—आखिर आप कहाँ जा रही हैं?

रोहिणी—तुम पूछनेवाले कौन होते हो? मेरा जहाँ जी चाहेगा, जाऊँगी। उनके पाँव में मेंहदी नहीं रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुत्कार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।

चक्रधर—आपको मेरे साथ चलना होगा।

रोहिणी—तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है।

चक्रधर—जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अजान पर होता है, वही अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अन्धे को कुएँ में गिरने से बचाना हरएक प्राणी का धर्म है।

रोहिणी—मैं न अचेत हूँ, न अजान, न अन्धी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गयी हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना, हँसना-बोलना देख देखकर दूसरों की छाती फटती है, जहाँ कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहाँ तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते हैं, उस घर में कदम न रखूँगी।

यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा—आप आगे नहीं जा सकतीं। [ ८१ ]

रोहिणी—जबरदस्ती रोकोगे?

चक्रधर—हाँ, जबरदस्ती रोकूँगा।

रोहिणी—सामने से हट जाओ।

चक्रधर—मै आपको कदम भी आगे न रखने दूँगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं। जब वे देखेंगी कि बड़े-बड़े घरो की स्त्रियाँ भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी जरा-जरा-सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्ध कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।

रोहिणी—मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।

चक्रधर—जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है—यहाँ तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में कलंक लगानेवाली स्त्रियों से भी सबसे घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब कुछ झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे। हमारा मुँह हमारी देवियो से उज्ज्वल है और जिस दिन हमारी देवियाँ इस भाँति मर्यादा की हत्या करने लगेगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जायगा।

रोहिणी के रुँधे हुए कण्ठ से बोली—तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलूँ?

चक्रधर—हाँ, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र मे फूलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।

रोहिणी—लोग हँसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग से, आखिर झख मारकर लौट आयी।

चक्रधर—ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे। रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा—अच्छा चलिए आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हाँ, कुँवर साहब को इतना जरूर समझा दीजिएगा कि जिन महरानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह एक दिन उनको बड़ा धोखा देगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊँ; पर अपना ही प्राण दूँगी। वह बिगड़ेंगी, तो प्राण लेकर छोड़ेगी। आप किसी मौके से जरूर समझा दीजिएगा।

वह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी। लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयम् अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है। वह लौटते वक्त लज्जा से सिर नहीं गढ़ाये हुए थी। गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर [ ८२ ]इसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी करती थी, जिनसे वह कुँवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।

जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्त जन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने देहलीज में कदम रखा, मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा। जब वह अन्दर चली गयी, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले—मैं तो समझता था, किसी तरह न आयेगी, मगर आप खींच ही लाये। क्या बहुत बिगड़ती थी?

चक्रधर ने कहा—आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हाँ, मिजाज नाजुक है, बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।

विशालसिंह—मैं यहाँ से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी सी मालूम हो रही है। बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?

चक्रधर—हाँ मशालें और लालटेनें हैं। बहुत-से आदमी भी साथ हैं।

और लोग भी आँगन में उतर आये और सामने देखने लगे। सैकड़ों आदमी कतार बाँधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे, पर किसी को समझ में न आता था कि माजरा क्या है।