कायाकल्प/१३
३१
मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे । राजभवन आबाद हुआ। बरसात मे मकानो की मरम्मत न हो सकती थी, इसलिए क्वार तक शहर ही में गुजर करना पड़ा। कार्तिक लगते ही एक ओर जगदीशपुर के राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियाँ शुरू हुईं। शहर से सामान लद लदकर जगदीशपुर जाने लगा। राजा साहब स्वयं एक बार रोज जगदीशपुर जाते, लेकिन रहते शहर में ही। रानियाँ जगदीशपुर चली गयी थीं और राजा साहब को अब उनसे चिढ़ सी हो गयी था। घण्टे दो घण्टे के लिए भी वहाँ जाते तो सारा समय गृह-कलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मुद्दलत न मिलती थी। रानियों में पहले ही बम-चख मची रहती थी। राजा साहब ने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया था।
राजा साहब ताकीद करते थे कि प्रजा पर जरा भी सख्ती न होने पाये। दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया था कि बिना पुरी मजदूरी दिये किसीसे काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित् वह राज-कर्मचारियों को फाड़ खाते लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर न जाय, वह जबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था। अपना काम तो बारहों मास करते ही हैं, मालिक की भी तो कुछ सेवा होनी चाहिए। यह खयाल करके सभी लोग उत्सव की तैयारियों में लगे हुए थे। सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दयालु, प्रजा-वत्सल पुरुष हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे। समझते थे, महीने दो महीने का झंझंट है, फिर तो चैन-ही-चैन है। रानी साहब के समय की सी धाँधली तो इनके समय में न होगी।
तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई, मिस्त्री, दरजी, चमार, कहार सब दिल तोड़ कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती रहती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे। अकसर खुद जाकर मजूरों और कारीगरों को समझाते थे। १५ ही मील का तो रास्ता था। रेलगाड़ी आध घण्टे में पहुँचा देती थी। इस तरह तीन महीने गुजर गये। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गये, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया। चारों तरफ भवन में, पण्डाल में, कस्बे में सफाई और सजावट नजर आती थी। कर्मचारियों को नई वरदियाँ बनवा दी गयीं। प्रान्त भर के रईसों के नाम निमन्त्रण पत्र भेज दिये गये और रसद का सामान जमा होने लगा। वसन्त की ऋतु थी, चारों तरफ बसन्ती रंग की बहार नजर आती थी। राजभवन बसन्ती रंग से पुताया गया था। पण्डाल भी बसन्ती था। मेहमानों के लिए जो कैंप बनाये गये थे, वे भी बसन्ती थे। कर्मचारियों की बरदियाँ भी बसन्ती। दो मील के घेरे में बसन्ती ही बसन्ती था। सूर्य के प्रकाश से सारा दृश्य कञ्चनमय हो जाता था। ऐसा मालूम होता था, मानो स्वयं ऋतु राज के अभिषेक की तैयारियाँ हो रही हैं।
लेकिन अब तक बहुत-कुछ काम बेगार से चल गया था। मजूरों को भोजन मात्र मिल जाता था, अब नकद रुपये की जरूरत सामने आ रही थी। राजायो का आदर सत्कार और अँगरेज हुक्काम की दावत तवाजा तो वेगार मे न हो सकती थी! कलकत्ते से थिएटर की कम्पनी बुलायी गयी थी, मथुरा की रासलीला-मण्डली को नेवता दिया गया था। खर्च का तखमीना पाँच लाख से ऊपर था। प्रश्न था, ये रुपए कहाँ से पाये। खजाने में झझी कौड़ी न थी! असामियो से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय न होता था। यहाँ तक कि केवल १५ दिन और रह गये।
सन्ध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेहखाँ के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे। राज्य पाकर उन्होंने अब तक केवल यही एक व्यसन पाला था। वह कोई नयी बात करते हुए डरते रहते थे कि कहीं लोग कहने लगें कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया। वह छोटे बड़े सभी से बड़ी नम्रता से बोलते थे और यथाशक्ति किसी टहलू पर भी न बिगड़ते थे। मेंडूखा इस वक्त उन्हे डॉट रहे थे-सितार बजाना कोई मुँह का नेवाला नहीं है कि दीवान साहब और मुशीजी आकर खड़े हो गये।
विशालसिंह ने पूछा—कोई जरूरी काम है?
ठाकुर—जरूरी काम न होता, तो हुजूर को इस वक्त क्या कष्ट देने आता?
मुंशी—दीवान साहब तो पाते हिचकते थे। मैंने कहा कि इन्तजाम की बात मे कैसी हिचक। चलकर साफ-साफ कहिए। तब डरते-डरते आये हैं।
ठाकुर—हुजूर, उत्सव को अब केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपए को कोई सबोल नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से ५ लाख कर्ज ले लिया जाय।
राजा—हरगिज नहीं। आपको याद है तहसीलदार साहब, मैंने वापसे क्या कहा था? मैने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जन कौड़ी-कौडी का मुहताज था। कर्ज का तो आप जिक्र ही न करें।
मुंशी—हजूर, कर्ज और फर्ज के रूप में तो केवल जरा सा अन्तर है, पर अर्थ में जमीन और आसमान का फर्क है।
दीवान—तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं?
राजा—ये हीरे जवाहिरात ढेरो पड़े हुए हैं। क्यो न इन्हें निकाल डालिए? किसी जौहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए।
दीवान—महाराज, इसमे तो रियासत की बदनामी है।
मुंशी—घर के जेवर ही तो आबरू हैं। वे घर से गये और आबरू गयी।
राजा—हाँ, बदनामी तो जरूर है, लेकिन दूसरे उपाय ही क्या है?
दीवान-मेरी तो राय है कि असामियों पर हल पीछे १०) चन्दा लगा दिया जाय।
राजा—मैं अपने तिलकोत्सव के लिए अमामियों पर जुल्न न करूंगा। इमसे तो कही अच्छा है कि उत्सव ही न हो।
दीवान—महाराज, रियासतों में पुरानी प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे, किसी को आपत्ति न होगी।
मुन्शी—गाते-बजाते आयेंगे और दे जायँगे।
राजा—मैं किस मुँह से उनसे रुपए लूँ? गद्दी पर बैठ रहा हूँ, मेरे उत्सव के लिए असामी क्यों इतना जब सहें?
दीवान—महाराज, यह तो परस्पर का व्यवहार है। रियासत भी तो अवसर पड़ने पर हर तरह से असामियों की सहायता करती है। शादी गमी में रियासत से लकड़ियाँ मिलती हैं, सरकारी चरावर में लोगों की गौएँ चरती हैं। और भी कितनी बातें हैं। जब रियासत को अपना नुकसान उठाकर प्रजा की मदद करनी पड़ती है, तब प्रजा राजा की शादी-गमी में क्यों न शरीक हो।
राजा—अधिकांश असामी गरीब हैं, उन्हें कष्ट होगा।
मुंशी—हुजूर असामियों को जितना गरीब समझते हैं, उतने गरीब वे नहीं हैं। एक-एक आदमी लड़के-लड़कियों की शादी में हजारों उड़ा देता है। दस रुपए की रकम इतनी ज्यादा नहीं कि किसी को अखर सके। मेरा तो पुराना तजरबा है। तहसीलदार था, तो हाकिमों को डाली देने के लिए बात की बात में हजारों रुपए वसूल कर लेता था।
राजा—मैं असामियों को किसी भी हालत में कष्ट नहीं देना चाहता। इससे तो कहीं अच्छी बात होगी कि उत्सव को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया जाय, लेकिन अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट न होगा और लोग खुशी से मदद देंगे, तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक कोई शिकायत न आये।
दीवान—हुजूर, शिकायत तो थोड़ी बहुत हर हालत में होती ही है। इससे बचना असम्भव है। अगर कोई शिकायत न होगी, तो यही होगी कि महाराज साहब की गद्दी हो गयी और हमारा मुँह भी न मीठा हुआ, कोई जलसा तक न हुआ। अगर किसी से कुछ न लीजिए, केवल तिलकोत्सव में शरीक होने के लिए बुलाइए, तब भी लोग शिकायत से बाज न आयेंगे। नेवते को तलबी समझेंगे और रोयेंगे कि हम अपने काम-धन्धे छोड़कर कैसे जायें। रोना तो उनकी घुट्टी में पड़ गया है। रियासत का कोई नौकर जा पड़ता है, तो उसे उपले तक नहीं मिलते, और कोई धूर्त जटा बढ़ाकर पहुँच जाता है, तो महीनों उसका आदर सत्कार होता है। राजा और प्रजा का सम्बन्ध ही ऐसा है। प्रजा-हित के लिए भी कोई काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे १०) बैठा देने से कोई ५ लाख रुपये हाथ आयँगे। रही रसद, यह तो बेगार में मिलती ही है। आपकी अनुमति की देर है।
मुंशी—जब सरकार ने यह कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? इसका मतलब तो इतना गहरा नहीं है कि बहुत डूबने से मिले। आप महाजनों को देखते हैं, मालिक मुनीम को लिखता है कि फलाँ काम के लिए रुपया दे दो, मुनीम हीले हवाले करके टाल देता है। हमारी अँगरेजी सरकार ही को देखिए। ऊपरवाले हुक्काम कितनी मुलायमियत से बातें करते हैं; लेकिन उनके मातहत खूब जानते हैं कि किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। चलिए, अब हुजुर को तकलीफ न दीजिए। मेंडूखाँ, बस यही समझ लो कि निहाल हो जाओगे।
राजा—बस, इतना खयाल रखिए कि किसी को कष्ट न होने पाये। आपको ऐसो व्यवस्था करनी चाहिए कि आसामी लोग सहर्ष आकर शरीक हों।
मुंशी—हुजूर का फरमाना बहुत वाजिब है। अगर हुजूर सख्ती करने लगेंगे, तो उन गरीबो के आँसू कौन पोंछेगा। उन्हें तसकीन कौन देगा। हुकूमत करने के लिए तो आपके गुलाम हम हैं। सूरज जलता भी है, रोशनी भी देता है। जलानेवाले हम हैं, रोशनी देनेवाले आप हैं। दुआ का हक आपका है, गालियों का हक हमारा। चलिए, दीवान साहब, अब हुजूर को सितार का शौक करने दीजिए।
दोनों आदमी यहाँ से चले, तो दीवान साहब ने कहा—ऐसा न हो कि शोर-गुल मचे तो हमारी जान आफत में फँसे।
मुंशीजी बोले—यह सब बगला भगत पन है। मैं तो रुख पहचानता हूँ। गरीबों का जिक्र ही क्या, हमें कभी एक पैसा का नुकसान हो जाता है, तो कितना बुरा मालूम होता है। जिससे आप १०) ऐंठ लेंगे, क्या वह खुशी से दे देगा? इसका मतलब यही है कि धड़ल्ले से रुपए की वसूली कीजिए। किसी राजा ने आज तक न कहा होगा कि प्रजा को सताकर रुपये वसूल कीजिए। लेकिन चन्दे जब वसूल होने लगे और शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियो की तम्बीह नहीं की। यही हमेशा से होता आया है और यही अब भी हो रहा है।
हुक्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बाग-बाग हो गये। फिर तो वह अन्धेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम पड़ गया। आसामियों ने नये राजा साहब से दूसरी आशाएँ बाँध रखी थीं। यह बला सिर पड़ी, तो झल्ला गये। यहाँ तक कि कर्मचारियों के अत्याचार देखकर चक्रधर का भी खून उबल पड़ा। समझ गये कि राजा साहब भी कर्मचारियों के पंजे मे आ गये। उनसे कुछ कहना-सुनना व्यर्थ है। चारों तरफ लूट-खसोट हो रही थी। गालियाँ और ठोंक-पीट तो साधारण बात थी, किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी को गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिये गये। बेदखली और इजाफे की धमकियाँ दी जाती थीं। जिसने खुशी से दिये, उसका तो १०) ही में गला छूटा। जिसने हीले हवाले किये, कानून बघारा, उसे १०) के बदले २०), ३०), ४०) देने पड़े। आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी।
राजा साहब ने त्योरी बदल कर कहा—मेरे पास तो आज तक कोई आसामी शिकायत करने नहीं आया। जब उनको कोई शिकायत नहीं है, तो आप उनकी तरफ से क्या वकालत कर रहे हैं?
चक्रधर—आपको आसामियों का स्वभाव तो मालूम होगा? उन्हें आपसे शिकायत करने का क्योंकर साहस हो सकता है?
राजा—यह मैं नहीं मानता। आसामी ऐसे बे सींग की गाय नहीं होते। जिसको किसी बात की अखर होती है, वह चुप नहीं बैठा रहता। उसका चुप रहना हो इस बात का प्रमाण है कि उसे अखर नहीं, या है तो बहुत कम। आपके पिताजी और दीवान साहब यही दो आदमी करता धरता हैं, आप उनसे क्यों नहीं कहते?
चक्रधर—तो आपसे कोई आशा न रखूँ?
राजा—में अपने कर्मचारियों से अलग कुछ नहीं हूँ।
चक्रधर ने इसका और कुछ जवाब न दिया। दीवान साहब या मुंशीजी से इस मामले में सहायता की याचना करना अन्धे के आगे रोना था। क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त जगदीशपुर चले और सारे आदमियों से कह दूँ, अपने घर जाओ। देखूँ, लोग क्या करते हैं। समिति के सेवकों के साथ रियासत में दौरा करना शुरू करूँ, देखूँ, लोग कैसे रुपये वसूल करते हैं, पर राजा साहब की बदनामी का खयाल करके रुक गये। अभी राजभवन ही में थे कि मुंशीजी अपना पुराना तहसीलदारी के दिनों का ओवर कोट डाटे, मोटरकार से उतरे और इन्हें देखकर बोले—तुम यहाँ क्या करने आये थे? अपने लिए कुछ नहीं कहा?
चक्रधर—अपने लिए क्या कहता? सुनता हूँ, रियासत में बड़ा अन्धेर मचा हुआ है।
वज्रधर—यह सब तुम्हारे आदमियों की शरारत है। तुम्हारी समिति के आदमी जो नौकर आसामियों को भड़काते रहते हैं। इन्हीं लोगों की शह पाकर के सब शेर हो गये हैं, नहीं तो किसी की मजाल न थी कि चूँ करता। न जाने तुम्हारी अक्ल कहाँ गयी है?
चक्रधर—हम लोग तो केवल इतना ही चाहते हैं कि आसामियों पर सख्ती न की जाय और आप लोगों ने इसका वादा भी किया था, फिर यह मार-धाड़ क्यों हो रही है?
वज्रधर—इसीलिए कि आसामियों से कह दिया गया है कि राजा साहब किसी पर जब्र नहीं करना चाहते। जिसको खुशी हो दे, जिसकी खुशी हो न दे। तुम अपने आदमियों को बुला लो, फिर देखो कितनी आसानी से काम हो जाता है। नशे का जोश ताकत नहीं है। ताकत वह है, जो अपने बदन में हो। जब तक प्रजा खुद न सँभलेगी, कोई उसकी रक्षा नहीं कर सकता। तुम कहाँ कहाँ उन पर हाथ रखते फिरोगे! चौकीदार से लेकर बड़े हाकिम तक सभी उनके दुश्मन हैं। मान लो, हमने छोड़ दिया। मगर थानेदार है, पटवारी है, कानूनगो है, माल के हुक्काम हैं। सभी उनकी जान के गाहक हैं। तुम फकीर बन जाओ, सारी दुनिया तो तुम्हारे लिए संन्यास न लेगी? तुम आज ही अपने आदमियों को बुला लो। अब तक तो हम लोग उनका लिहाज करते आये हैं। लेकिन रियासत के सिपाही उनसे बेतरह बिगड़े हुए हैं। ऐसा न हो कि मार पीट हो जाय।
चक्रधर—यहाँ से अपने आदमियो को बुला लेने का वादा करके तो चले; लेकिन दिल में आगा पीछा हो रहा था। कुछ समझ में न आता था कि क्या करना चाहिए। इसी सोच में पड़े हुए मनोरमा के यहाँ चले गये।
मनोरमा उन्हें उदास देखकर बोली—आप बहुत चिन्तित से मालूम होते हैं घर में तो सब कुशल है?
चक्रधर—हाँ, कोई बात नहीं। लाओ, देखूँ तुमने क्या काम किया है?
मनोरमा—आप मुझसे छिपा रहे हैं। आप जब तक न बतायेंगे, मै कुछ न पढ़ूँगी। आप तो यों कभी मुरझाये न रहते थे।
चक्रधर—क्या करूँ मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियो में जकड़ा हुआ है, फिर भी हम अपने भाइयों की गर्दन पर छुरी फेरने से बाज नहीं आते। इतनी दुर्दशा पर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं। जिनसे लड़ना चाहिए, उनके तो तलुवे चाटते हैं और जिनसे गले मिलना चाहिए, उनकी गरदन दबाते हैं। और यह सारा जुल्म हमारे पढ़े-लिखे भाई ही कर रहे हैं। जिसे कोई अख्तियार मिल गया, वह फौरन दूसरो को पीसकर पी जाने की फिक्र करने लगता है। विद्या ही से विवेक होता है; पर जब रोगी असाध्य हो जाता है, दवा भी उस पर विष का काम करती है। हमारी शिक्षा ने हमें पशु बना दिया है। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी कैसी आशाएँ थी; लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढङ्ग अख्तियार कर लिया। प्रजा से डण्डों के जोर से रुपये वसूल किये जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता। सबसे ज्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मन्त्री और इस अत्याचार के मुख्य कारण है।
सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उद्दण्ड होकर कहा—आप असामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी न दें। कोई देगा ही नहीं, तो ये लोग कैसे ले लेंगे।
चक्रधर को हँसी आ गयी। बोले—तुम मेरी जगह होती, तो असामियों को मना कर देती?
मनोरमा—अवश्य। खुलम खुल्ला कहती, खबरदार! राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे। मैं तो राजा के आदमियों को इतना पिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम ही न लेते।
चक्रधर ने फिर हँसकर कहा—और दीवान साहब से क्या कहती?
मनोरमा—उनसे भी यही कहती कि आप चुपके से घर चले जाइए, नहीं तो अच्छा न होगा। आप मेरे पूज्य पिता हैं, मैं आपकी सेवा करूँगी, लेकिन आपको दूसरों का खून न चूसने दूँगी। गरीबों को सताकर अपना घर भर लिया, तो कौन सा बड़ा तीर मार लिया। बीर तो जब बखानूँ, जब सबलों के ताल ठोंकिए। अभी एक गोरा आ जाय, तो घर में दुम दबाकर भागेंगे। उस वक्त जबान भी न खुलेगी। उससे जरा आँखें मिलाइये तो देखिए, ठोकर जमाता है या नहीं। उससे तो बोलने की हिम्मत नही, बेचारे दीनों को सताते फिरते हैं। यह तो मरे को मारना हुआ। इसे एकमत नहीं कहते। यह चोरी भी नहीं है। यह केवल मुरदे और गिद्ध का तमाशा है।
चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कराकर बोले—अगर दीवान साहब खफा हो जाते?
मनोरमा—तो खफा हो जाते। किसी के खफा होने के डर से सच्ची बात पर परदा थोड़ा ही डाला जाता है। अगर आज वह आ गये, तो मैं आज ही जिक्र करूँगी।
यह कहते कहते मनोंरमा कुछ चिन्तित-सी हो गयी और चक्रधर भी विचार में पड़ गये। दोनों के मन में एक ही भाव उठ रहे थे—इसका फल क्या होगा। वह सोचती थी, कहीं लालाजी ने गुस्से में आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो? चक्रधर सोच रह थे, यह शंका मुझे क्यों इतना भयभीत कर रही है! इस विषय पर फिर कुछ बातचीत न हुई, लेकिन चक्रधर यहाँ से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था—क्या अब यहाँ मेरा आना उचित है। आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अन्तस्तल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहाँ न रहना चाहिए था। रोग जब तक कष्ट न देने लगे, हम उसकी परवा नहीं करते। बालक की गालियाँ हँसी में उड़ जाती हैं, लेकिन सयाने लड़के की गालियाँ कौन सहेगा?