कायाकल्प/१४

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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१४

गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैम्प भर गया। दीवान साहब ने कैम्प ही में बाजार लगवा दिया था, वहीं रसद पानी का भी इन्तजाम था। राजा साहब स्वय मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे, किन्तु जमघट बहुत बड़ा था। आठो पहर हरबोंग-सा मचा रहता था।

बड़े-बड़े नरेश आये थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव लश्कर लिये हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिये बाने की। कोई रत्न जटित आभूषण पहने, कोई अँगरेजी सूट से लैस, कोई इतना विद्वान् कि विद्वानों में शिरोमणि कोई इतना मूर्ख कि मूर्ख-मण्डली की शोभा! कोई पाँच घण्टे स्नान करता था और कोई सात घण्टे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था. कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिन अँगरेजी कैम्प का चक्कर लगाने ही में कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावादी भी थे। चक्रधर और उनकी टुकड़ी के और लोग इन लोगों का सेवा-सत्कार विशेष करने में लगे थे॥ [ १०५ ]किन्तु विद्वान या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी गरूर के नशे में मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए, एक भी ऐसा नहीं, जिसमें चरित्रबल हो, सिद्धान्त प्रेम हो, मर्यादा-भक्ति हो।

नरेशों की सम्मान लालसा पग-पग पर अपना जलवा दिखाती थी! वह मेरे आगे क्यों चले, उन्हें मेरे पीछे रहना चाहिए था। उनका पूर्वज हमारे पुरुखाओं का करदाता था। बातें करने में, अभिवादन में, भोजन करने के लिए बैठने में, महफिल में, पान और इलायची लेने में, यही अनैक्य और द्वेष का भाव प्रकट होता रहता था। राजा विशालसिह और कर्मचारियों का बहुत सा समय चिरौरी विनती करने में कट जाता था। कभी-कभी तो इन महान् पुरुषों को शान्त करने के लिए राजा साहब को हाथ जोड़ना और उनके पैरो पर सिर रखना पड़ता था। दिल में पछताते थे कि व्यर्थ ही यह आडम्बर रचा। भगवान किसी भाँति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल कभी न होगी। किसी अनिष्ट की शंका उन्हे हरदम उद्विग्न रखती थी। मेहमानों से तो काँपते रहते थे; पर अपने आदमियों से जरा-जरा सी बात पर बिगड़ जाते थे, जो मुँह में आता बक डालते थे।

अगर शान्ति थी तो अँगरेजी कैम्प में। न नौकरों की तकरार थी, न बाजारवालों से जूती-पैजार थी। सब की चाय का एक समय, डिनर का एक समय, विश्राम का एक समय, मनोरञ्जन का एक समय। सब एक साथ थिएटर देखते, एक साथ हवा खाने जाते। न बाहर गन्दगी थी, न मन में मलिनता। नरेशों के कैम्प में पराधीनता का राज्य था और अँगरेजी कैम्प में स्वाधीनता का। स्वाधीनता सद्गुणों को जगाती है, पराधीनता दुर्गुणों को।

उधर रनिवास में भी खूब जमघट था। महिलाओं का रंग रूप देखकर आँखों में चकाचौंध हो जाती थी। रत्न और कञ्चन ने उनकी कान्ति को और भी अलंकृत कर दिया था। कोई पारसी वेश में थी, कोई अँगरेजी वेश में और कोई अपने ठेठ स्वदेशी ठाट में। युवतियाँ इधर-उधर चहकती फिरती थी, प्रौढाएँ आँखें मटका रही थीं। वासना उम्र के साथ बढ़ती जाती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आँखो के सामने था। अँग्रेजी फैशनवालियाँ औरों को गँवारिनें समझती थीं; और गँवारिनें उन्हें कुलटा कहती थीं। मजा यह था कि सभी महिलाएँ ये बातें अपनी महरियों और लौड़ियों से कहने में भी संकोच न करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निन्दा और परिहास के लिए ही रचा है। मन और तन में कितना अन्तर हो सकता है, इसका कुछ अनुमान हो जाता था। मनोरमा को महिलाओं की सेवा सत्कार का भार सौंपा गया था; फिन्तु उसे यह यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था। उसे उनके पास बैठने में घृणा होती थी। हाँ, जब रानी रामप्रिया को बैठे देखती, तो उनके पास जा बैठती। इतने काँच के टुकड़ों में उसे वही एक रत्न नजर आता था।

मेहमानों के आदर सत्कार की तो यह धूम थी और वे मजदूर, जो छाती फाड़[ १०६ ]फाड़कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। कोई उनकी खबर तक न लेता था। काम लेने को सब थे, पर भोजन पूछनेवाला कोई न था। चमार पहर रात रहे घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते, मगर कोई उनका पुरसाँहाल न था। चपरासी बात बात पर उन्हें गालियाँ सुनाते, क्योंकि उन्हें खुद बात-बात पर डाँट पड़ती थी। चपरासी सहते थे, क्योंकि उन्हें दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता था। बेगारों से न सहा जाता था, इसी लिए कि उनकी आँतें जलती थी। दिन भर धूप में जलते, रात-भर क्षुधा की आग में। रानी के समय में बेगार इससे भी ज्यादा ली जाती थी, लेकिन रानी को स्वय उन्हें खिलाने पिलाने का खयाल रहता था। बेचारे अब उन दिनों को याद कर-करके रोते थे। क्या सोचते थे, क्या हुआ? असन्तोष बढ़ता जाता था। न-जाने कब सब के सब जान पर खेल जायँ, हड़ताल कर दें, न जाने कब बारूद में चिनगारी पड़ जाय। दशा ऐसी भयंकर हो गयी थी। राजा साहब को नरेशों ही की खातिरदारी से फुरसत न मिलती थी, यह सत्य है, किन्तु राजा के लिए ऐसे बहाने शोभा नहीं देते। उसकी निगाह चारों तरफ दौड़नी चाहिए। अगर उसमें इतनी योग्यता नहीं, तो उसे राज्य करने का कोई अधिकार नहीं।

सन्ध्या का समय था। चारों तरफ चहल-पहल मची हुई थी। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारियाँ हो रही थी। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गयी थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। किसी कैम्प में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिये हुए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आँखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं। कितना अनर्थ है। सारा दिन गुजर गया और अभी तक किसी कैम्प में घास नहीं पहुँची! चमारों का यह हौसला! ऐसे बदमाशों को गोली मार देनी चाहिए।

एक चमार बोला—मालिक, आपको अख्तियार है। मार डालिए मुदा पेट बाँध कर काम नहीं होता।

चौधरी ने हाथ बाँधकर कहा—हुजूर, घास तो रात ही को पहुँचा दी गई थी, मैं आप जाकर रखवा आया था। हाँ, इस बेला अभी नहीं पहुँची। आधे आदमी तो माँदे पड़े हुए हैं। क्या करूँ?

मुंशी—बदमाश! झूठ बोलता है, सुअर, डैमफूल, ब्लाडी, रैस्केल, शैतान का बच्चा, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाये कैसे दौड़ेंगे?

एक युवक ने यहा—हम लोग तो बिना खाये आठ दिन से घास दे रहे हैं, घोड़े क्या बिना खाये एक दिन भी न दौड़ेंगे? क्या हम घोड़े से भी गये गुजरे हैं?

चौधरी डण्डा लेकर युवक को मारने दौड़ा, पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झपटकर उसे चार पाँच हटर सड़ाप सड़ाप लगा दिये। नंगी देह, चमड़ा फट गया, खून निकल आया। [ १०८ ]जौहर दिखायें। राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। एक आदमी उनकी पाग सँवार रहा था। इन वस्त्रों में उनकी प्रतिभा भी चमक ठठी थी। वस्त्रों मे इतनी तेज बढ़ानेवाली शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गये। वह अपनी समझ में प्रजा के सच्चे भक्त थे, उन पर कोई अत्याचार न होने देते थे, उनको लूटना नहीं, उनका पालन करना चाहते थे। जब वह प्रजा पर इतना प्राण देते थे, तो क्या प्रजा का धर्म न था कि वह भी उन पर प्राण देती, और फिर शुभ अवसर पर! जो लोग इतने कृतघ्न हैं, उन पर किसी तरह की रिआयत करना व्यर्थ है। दयालुता दो प्रकार की होती है—एक में नम्रता होती है, दूसरो में आत्म-प्रशंसा। राजा साहब की दयालुता इसी प्रकार की थी। उन्हें यश की बड़ी इच्छा थी, पर यहाँ इस शुभ-अवसर पर इतने राजाओं रईसों के सामने ये दुष्ट लोग उनका अपमान करने पर तुले हुए थे। यह उन पाजियों की घोर नीचता थी और इसका जबाब इसके सिवा और कुछ नहीं था कि उन्हें खूब कुचल दिया जाता। सच है, सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है। मैं जितना ही इन लोगों को संतुष्ट रखना चाहता हूँ, उतने ही ये लोग शेर हो जाते हैं। चलकर अभी उन्हें इसका मजा चखाता हूँ। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बन्दूक लिये खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुँचे।

चौधरी इतनी देर में झाड़-पोंछकर उठ बैठा था। राजा को देखते ही रोकर बोला—दुहाई है महाराज की। सरकार, बड़ा अन्धेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।

राजा—तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पाँव रखा, तो जान से मारा जायगा। दगा किया, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं।

चौधरी—सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?

राजा—काम न करोगे, तो जान ली जायगी।

चौधरी—काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें?

राजा—क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो। तुम सब के सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। हमेशा से लात खाते चले आये हो और वही तुम्हें अच्छा लगता है। मैंने तुम्हारे साथ भलमनसी का बर्ताव करना चाहा था, लेकिन मालूम हो गया कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता। तुम्हारी यही मरजी है, तो यही सही।

चौधरी—जब लात खाते थे, तब खाते थे। अब न खायेंगे।

राजा—क्यों? अब कौन सुरखाब के पर लग गये हैं?

चौधरी—वह समय ही लद गया है। क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुँह न खोलें? अब तो सेवा-सम्मती हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी [ १०९ ]न्याय न करेगी? हमारी राय से मेम्बर चुने जाते हैं; क्या कोई हमारी फरियाद न सुनेगा?

राजा—अच्छा! तो तुझे सेवा-समितिवालों का घमण्ड है?

चौधरी—हई है, वह हमारी रक्षा करती है, तो क्यों न उसका घमण्ड करें?

राजा साहब ओठ चबाने लगे—तो यह समितिवालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे साथ कपट-चाल चल रहे हैं, लाला चक्रधर! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियाँ खाता है। जिसे मित्र समझता था, वही आस्तीन का साँप निकला। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है। एक रुक्का बड़े साहब के नाम लिख दूँ, तो बचा के होश ठीक हो जायें। इन मूर्खों के सिर से यह घमण्ड निकाल ही देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गये, तो आफत मचा देंगे।

चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमियों की सूरत देखकर जिनके प्राण-पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय निःशंक और निर्भय बन्दूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमियों ने बाड़े की लकड़ियाँ और रस्सियाँ काट डालीं और हजारों आदमी उधर से भड़भड़ाकर निकल पड़े, मानों कोई उमड़ी हुई नदी बाँध तोड़कर निकल पड़े। उसी वक्त एक ओर सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखायी दिये। चक्रधर ने निश्चय कर लिया था कि राजा साहब के आदमियों को उनके हाल पर छोड़ देंगे, लेकिन यहाँ की खबरें सुन सुनकर उनके कलेजे पर साँप-सा लोटता रहता था। ऐसे नाजुक मौके पर दूर खड़े होकर तमाशा देखना उन्हें लज्जाजनक मालूम होता था। अब तक तो वह दूर ही से आदमियों को दिलासा देते रहे, लेकिन आज की खबरों ने उन्हें यहाँ आने के लिए मजबूर कर दिया।

उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान-सी पड़ गयी, जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाय। हजारों आदमियों ने घेर लिया—

'भैया आ गये! भैया आ गये!' की ध्वनि से आकाश गूँज उठा।

चक्रधर को यहाँ की स्थिति उससे कहीं भयावह जान पड़ी, जितना उन्होंने समझा था। राजा साहब की यह जिद कि कोई आदमी यहाँ से जाने न पाये। आदमियो को यह जिद कि अब हम यहाँ एक क्षण भी न रहेंगे। सशस्त्र पुलिस सामने तैयार। सबसे बड़ी बात यह कि मुंशी वज्रधर खुद एक बन्दूक लिये पैंतरे बदल रहे थे, मानों सारे आदमियों को कच्चा ही खा जायँगे।

चक्रधर ने ऊँची आवाज से कहा—क्यों भाइयों, तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?

चौधरी—भैया, यह भी कोई पूछने की बात है। तुम हमारे मालिक हो, सामी हो सहाय हो! क्या आज तुम्हें पहली ही बार देखा है? [ ११० ]चक्रधर—तो तुम्हें विश्वास है कि मैं जो कुछ कहूँगा और करूँगा, वह तुम्हारे ही भले के लिए होगा?

चौधरी—मालिक, तुम्हारे ऊपर विश्वास न करेंगे, तो और किस पर करेंगे। लेकिन इतना समझ लीजिए कि हम और सब कर सकते हैं, यहाँ नहीं रह सकते। यह देखिए (पीठ दिखाकर), कोड़े खाकर यहाँ किसी तरह न रहूँगा।

चक्रधर इस भीड़ से निकल कर सीधे राजा साहब के पास आये और बोले—महाराज, मैं आपसे कुछ विनय करना चाहता हूँ।

राजा साहब ने त्योरियाँ बदलकर कहा—मैं इस वक्त कुछ नहीं सुनना चाहता।

चक्रधर—आप कुछ न सुनेंगे, तो पछतायेंगे।

राजा—मैं इन सबों को गोली मार दूँगा।

चक्रधर—दीन प्रजा के रक्त से राजतिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं हो सकता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है। मैं आप का सेवक हूँ, आपका शुभचिन्तक हूँ, इसी लिए आपकी सेवा में आया हूँ। मुझे मालूम है कि आपके हृदय में कितनी दया है और प्रजा से आपको कितना स्नेह है। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। उन्हीं के कारण आज आप उन लोगों के रक्त के प्यासे बन गये हैं, जो आपकी दया और कृपा के प्यासे हैं। ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाये हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में न सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैंप उस रक्त से सिंच जायगा, उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मण्डप उखड़ जायगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। अभिषेक का दिन दान और दया का है, रक्तपात का नहीं। इस शुभ अवसर पर एक हत्या भी हुई, तो वह सहस्रों रूप धारण करके ऐसा भयंकर अभिनय दिखायेगी कि सारी रियासत में हाहाकार मच जायगा।

राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे, किन्तु इस समय उनका दिल काँप उठा। वही प्राणी, जो दिन-भर गालियाँ बकता है, प्रातः काल कोई मिथ्या शब्द मुँह से नहीं निकलने देता। वही दूकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रातः काल ग्राहक से मोल जोल तक नहीं करता। शुभ मुहूर्त पर हमारी मनोवृत्तियाँ धार्मिक हो जाती हैं। राजा साहब कुछ नरम होकर बोले—मैं खुद नहीं चाहता कि मेरी तरफ से किसी पर अत्याचार किया जाय, लेकिन इसके साथ ही यह भी नहीं चाहता कि प्रजा मेरे सिर पर चढ जाय। इन लोगों को अगर कोई शिकायत थी, तो इन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। अगर मैं न सुनता, तो इन्हें अख्तियार था, जो चाहते करते, पर मुझसे न कहकर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ा को घास नहीं दी और इस वक्त भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।

चक्रधर—आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपके द्वारपाल इन्हें दूर ही से भगा देते थे। आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह [ १११ ]से कुछ भोजन नहीं मिला?

राजा—एक सप्ताह से भोजन नहीं मिला। यह आप क्या कहते हैं? मैने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा पूर्ण भोजन दिया जाय। क्यों दीवान साहब, क्या बात है?

हरिसेवक—धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगायी हुई है। प्रजा को बहकाना और भड़काना इन लोगों ने अपना धर्म बना रखा है। यहाँ से हर एक आदमी को दोनों वक्त भोजन दिया जाता था।

मुंशी—दीनबन्धु, यह लड़का बिलकुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, उसे सच समझ लेता है। तुमसे किसने कहा बेटा, कि आदमियो को भोजन नहीं मिलता था? भण्डारी तो मैं हूँ, मेरे सामने जिन्स तौली जाती थी। मैं पूछ पूछकर देता था। बारातियों की भी कोई इतनी खातिर न करता होगा। इतनी बात भी न जानता, तो तहसीलदारी क्या खाक करता।

राजा—मैं इसकी पूछ-ताछ करूँगा।

हरिसेवक—हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। ये लोग सबसे कहते फिरते हैं कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बराबर-बराबर बनाया है, किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। प्रजा ऐसी बातें सुन-सुनकर शेर हो गयी है।

राजा—इन बातों में तो मुझे कोई बुराई नही नजर आती। मै खुद प्रजा से यही बातें कहना चाहता हूँ।

हरिसेवक—हुजूर, ये लोग कहते है, जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाये, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।

राजा—बहुत ठीक कहते हैं। इसमें मुझे तो बिगड़ने की कोई बात नहीं मालूम होती। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूँ; बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।

हरिसेवक—हुजूर, इन लोगो की बातें कहाँ तक कहूँ। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम ही नहीं।

राजा—बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और क्या करता हूँ।

चक्रधर ने झुँझलाकर कहा—ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी है लेकिन क्षमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं। मैने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाये हैं, लेकिन यह कभी नही कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं; क्योंकि मैं जानता हूँ, जिस दिन राजाओं की जरूरत न रहेगी, उस दिन उनका अन्त हो जायगा। देश में उसी की राज्यव्यवस्था होती है, जिसका अधिकार होता है।

राजा—में तो बुरा नहीं मानता, जरा भी नहीं। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हो। वास्तव में जो राजा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन [ ११२ ]न करे, उसका जीना व्यर्थ है।

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। यह अवसर मजाक का न था। हजारों आदमी साँस बन्द किये सुन रहे ये कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहाँ इन लोगों को मजाक सूझ रहा है। गरम होकर बोले—अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं को यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी मीठी बातों से भरे और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार न पहुँचने पाये, आदर्श नहीं कहा जा सकता।

राजा—किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी है।

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले—जिस आदर्श के सामने आपको सिर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। समाज की यह व्यवस्था अब थोड़े दिनों की मेहमान है और वह समय आ रहा है, जब या तो राजा प्रजा का सेवक होगा, या होगा ही नहीं। मैंने कभी यह अनुमान न किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्द इतना बड़ा भेद हो जायगा।

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक तो व्यंग्यों से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे, लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपटकर बोले—अच्छा, बाबूजी, अब अपनी जबान बन्द करो। मैं जितनी ही तरह देता जाता हूँ, उतने ही आप सिर चढ़े जाते हैं। मित्रता के नाते जितना सह सकता था, उतना सह चुका। अब नहीं सह सकता। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि उसके साथ जैसा उचित समझ, वैसा सलूक करूँ। किसी को हमारे और हमारी प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं है। आप अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और फिर कभी मेरी रियासत में कदम न रखिएगा, वरना शायद आपको पछताना पड़े। जाइए।

मुंशी वज्रधर की छाती धक धक करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले—हुजूर की कृपा-दृष्टि ने इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों की सोहबत में बैठने का मौका तो मिला नहीं, बात करने की तमीज कहाँ से आये।

लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धान्तों के पक्के, आदर्श पर मिटनेवाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन, वह राजा साहब के उद्दण्ड शब्दों से जरा भी भयभीत न हुए। यह उस सिंह की गरज थी, जिसके दाँत और पंजे टूट गये हों। यह उस रस्सी की ऐंठन थी, जो जल गयी हो। तने हुए सामने आये और बोले—आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर सम्पत्ति से इतना पतन हो सकता है, तो मैं कहूँगा कि इससे बुरी चीज संसार में कोई नहीं। आपके [ ११३ ]भाव कितने पवित्र थे। कितने ऊँचे! आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बेरोक-टोक आने दूँगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जायगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गयीं? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों को धूल है। ईश्वर आपको सुबुद्धि दे।

राजा साहब कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। या यों कहिए कि आँसू अव्यक्त भावों ही का रूप है। ग्लानि थी या पश्चात्ताप, अपनी दुर्बलता का दुःख था या विवशता का; या इस बात का रंज था कि यह दुष्ट मेरा इतना अपमान कर रहा है और मै कुछ नहीं कर सकता—इसका निर्णय करना कठिन है।

मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गये। प्रभुता ने आँसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले—मैं कहता हूँ, यहाँ से चले जाओ!

हरिसेवक—आपको शर्म नहीं पाती कि किससे ऐसी बातें कर रहे हैं।

वज्रधर—बेटा, क्यों मेरे मुँह में कालिख लगा रहे हो?

चक्रधर—जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।

राजा—मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।

चक्रधर—तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहाँ से हटा ले जाऊँ।

यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायँगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिलमिलाकर बन्दूक लिये हुए चक्रधर के पीछे दोड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुन्दा पीठे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पाँच हजार आदमी बाड़े को तोड़ कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आये और नरेशों के कैम्प की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैम्प में लूट मच गयी है। दूकानदार अपनी दूकानें समेटने लगे। दर्शकगण अपनी धोतियाँ सँभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गयी। जितने बेफ्रिके, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहाँ तक कि नरेशों के कैम्प तक पहुँचते पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गयी।

राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसन्द नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवा कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे [ ११४ ]लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान-ध्यान में मग्न था और लोग तिलक मंडप जाने की तैयारियाँ कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कही कवित्त चर्चा हो रही थी और वहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतन्त्रता अपनी विविध लीलाएँ दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैम्म में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशो का अन्त हो जाता, किन्तु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अँगरेजी कैम्प में १०-१२ आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अन्धाधुन्ध बन्दूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बन्दूकों की परवा न की, उसे अपनी संख्या का बल था। लोग सोचते थे, मरते मरते हममें से इतने आदमी कैम्प में पहुँच जायँगे कि नरेशों को कहीं भागने की भी जगह न मिलेगी। हम सारे प्रान्त को इन अत्याचारियों से मुक्त कर देंगे। ये सब भी तो अपनी प्रजा पर ऐसा ही अत्याचार करते होंगे।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।

गोलियों की पहली बाढ़ आयी। कई आदमी गिर गये।

चौधरी—देखो भाई, घबराना नही। जो गिरता है, उसे गिरने दो, आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी को।

एक मजदूर—ढ़ेढे आओ, चढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो

उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जायँ या पीछे? सहसा एक युवक ने कहा—मारो, रुक क्यों गये? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की।

दूसरा बोला—आज जो मरेगा, वह बैकुण्ठ में जायगा। बोलो हनुमानजी की जय।

उसे भी गोली लगी और चक्कर खाकर गिर पड़ा।

इतने में दीवान साहब बन्दूक लिये पीछे से दौड़ते हुए आ पहुँचे। गुरुसेवक भी उनके साथ थे। दोनों एक दूसरे रास्ते से कैम्प के द्वार पर पहुँच गये थे।

हरिसेवक—तुम मेरे पीछे खड़े हो जाओ और यहीं से निशाना लगाओ।

गुरुसेवक—अभी फैर न कीजिए। मैं जरा इन्हें समझा लूँ। समझाने से काम निकल जाय, तो रक्त क्यों बहाया जाय?

हरिसेवक—अब समझाने का मौका नहीं है। अभी दम के दम में सब के सब अन्दर घुस आयेंगे, तो प्रलय हो जायगी।

किन्तु गुरुसेवक के हृदय में दया थी। पिता की बात न मानकर वह सामने आ गये और ललकारकर बोले—तुम लोग यहाँ क्यों आ रहे हो? यह न समझो कि तुम [ ११५ ]कैम्प के द्वार पर पहुँच गये हो। यहाँ आते-आते तुम आधे हो जाओगे।

एक मजदूर—कोई चिन्ता नहीं। मर-मरकर जीने से एक बार मर जाना अच्छा है। मारो, आगे बढ़ो, क्या हिम्मत छोड़ देते हो?

गुरुसेवक—आगे एक कदम भी रखा और गिरे! यह समझ लो कि तुम्हारे आगे मौत खड़ी है।

मजदूर—हम आज मरने के लिए कमर बाँधकर..

अँग्रेजी कैम्प से फिर गोलियों की बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गयी। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैम्प से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आये थे और साफ नजर आ रहे थे।

एक चमार बोला—साहब लोग गोली चला रहे हैं।

दूसरा—गोरों की फौज है, फौज।

तीसरा—चलो, उन्हीं सबों को पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाये हुए हैं।

चौथा—यही सब तो राजाओँ को बिगाड़े हुए हैं। दो शिकार भी मिल गये, तो मेहनत सफल हो जायगी।

लेकिन कायरों की हिम्मत टूटने लगी थी। लोग चुपके चुपके दायें बायें से सरकने लगे थे। यहाँ प्राण देने से बाजार में लूट मचाना कहीं आसान था। देखते देखते पीछे के सभी आदमी खिसक गये। केवल आगे के लोग खड़े रह गये थे। उन्हें क्या खबर थी कि पीछे क्या हो रहा है। वे अँगरेजी कैम्प की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अँगरेजी कैम्प के फाटक तक आ पहुँचे। अब तो यहाँ भी भगदड़ पड़ी। एक ओर नरेशों के कैम्प से मोटरें निकल-निकलकर पीछे की ओर से दौड़ती चली आ रही थीं। इधर अँगरेजी कैम्प से मोटरों का निलकना शुरू हुआ। एक क्षण में सारी लेडियाँ गायब हो गयीं। मर्दों में भी आधे से ज्यादा निकल भागे। केवल वही लोग रह गये, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुँह में जाना था; मगर उन सबों के हाथों में मार्टिन और मॉजर के यन्त्र थे। इधर ईश्वर की दी हुई लाठियाँ थी, या जमीन से चुने हुए पत्थर। यद्यपि हड़तालियों का दल एक ही हल्ले में इस फाटक तक पहुँच गया; पर यहाँ तक पहुँचते पहुँचते कोई बीस आदमी गिर पड़े। अगर इस वक्त ५० गज के अन्तर पर भी इतने आदमी गिरे होते, तो शायद सबके पर उखड़ जाते, लेकिन यह विश्वास, कि अब मार लिया है, उनके हौसले बढ़ाये हुए था। विजय के सम्मुख पहुँचकर कायर भी वीर हो जाते हैं। घर के समीप पहुँचकर थके हुए पथिक के पैरों में भी पर लग जाते हैं।

इन मनुष्यों के मुख पर इस समय हिंसा झलक रही थी। चेहरे विकृत हो गये थे। जिसने इन्हें इस दशा में न देखा हो यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि ये वही दीनता के पुतले हैं, जिन्हें एक काठ की पुतली भी चाहे जो नाच नचा सकती थी। अँगरेज [ ११६ ]योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खड़े बन्दूकें छोड़ रहे थे, लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, दो तीन मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पाँच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी और इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। वे जान पर खेले हुए थे। क्षण क्षण पर बन्दूक चलाते थे, मानो बन्दूक की कलें हों। जो आगे बढ़ता था, उनके अचूक निशाने का शिकार हो जाता था। इधर ढेले और पत्थरों की वर्षा हो रही थी, जो फाटक तक मुश्किल से पहुँचती थी। अब सामने पहुँच कर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किये। यहाँ तक कि अँगरेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था, दूसरे की बाँह टूट गयी थी। केवल तीन आदमी रह गये, और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गये थे। कठिन समस्या थी। प्राण बचने की कोई आशा नहीं। भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती है। जिन मनुष्यों को हमेशा पैरों से ठुकराया किये, जिन्हें कुली कहते और कुत्तों से भी नीच समझते रहे, उनके सामने पीठ दिखाना ऐसा अपमान था, जिसे वे किसी तरह न सह सकते थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुँह से लार टपक रही थी।

एक आदमी ने कहा—हाँ बहादुरों, बस, एक हल्ले की और कसर है, घुस पड़ो। अब कहाँ जाते हैं।

दूसरा बोला—फाँसी तो पड़ेंगे ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें।

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ता हुआ आकर बोला—बस, बस, क्या करते हो। ईश्वर के लिए हाथ रोको। क्या गजब करते हो! लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमो उन्मत्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय-जयकार की ध्वनि से आकाश गूँजने लगा।

एक मजदूर ने कहा—हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।

चक्रधर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा—कोई एक कदम आगे न बढ़े। खबरदार।

मजदूर—यारो, बस, एक हल्ला और!

चक्रधर—हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे।

जिले के मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा—बाबू साहब, खुदा के लिए हमें बचाइए।

फौज के कप्तान मिस्टर सिम बोले—हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपका सिफारिश करेगा।

एक मजदूर—हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहाँ थे? यारो, क्या खड़े हो, बाबूजी का क्या बिगड़ा है। मारे तो हम गये हैं न? मारो बढके।

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा—अगर तुम्हें खून की प्यास है, तो मैं हाजिर हूँ। मेरी लाश को पैरों से कुचलकर तभी तुम आगे बढ़ सकते हो। [ ११७ ]

मजदूर—भैया, हट जाओ, हमने बहुत मार खायी है, बहुत सताये गये हैं, इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो!

चक्रधर—मेरा लहू इस ज्वाला को शान्त करने के लिए काफी नहीं है?

मजदूर—भैया, तुम सान्त-सान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है। हमें जो चाहता है, मारता है; जो चाहता है, पीसता है, तो क्या हमी सान्त बैठे रहें? सान्त रहने से तो और भी हमारी दुरगत होती है। हमें सान्त रहना मत सिखाओ। हमें मरना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।

चक्रधर—अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो, तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे। संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान् ने उद्धार के जो उपाय बताये हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।

मजदूर—हमारी फाँसी तो हो ही जायगी। तुम माफी तो न दिला सकोगे।

मिस्टर जिम—हम किसी को सजा न देंगे।

मिस्टर सिम—हम सबको इनाम दिलायेगा।

चक्रधर—इनाम मिले या फाँसी, इसकी क्या परवा। अभी तक तुम्हारा दामन खून के छीटों से पाक है; उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।

मजदूर—अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा; लेकिन तुम्हारी यही मरजी है, तो लौट जाते हैं। आखिर फाँसी पर तो चढ़ना ही है।

चक्रधर कुन्दे की चोट से कुछ देर तक तो अचेत पड़े रहे थे। जब होश आया, तो देखा कि दाहिनी ओर हड़तालियों का एक दल अँगरेजी कैम्प के द्वार पर खड़ा है, बायीं ओर बाजार लुट रहा है और मशस्त्र पुलिस के सिपाही हड़तालियों के साथ मिले हुए दूकानें लूट रहे हैं और विशाल तिलक-मण्डप से अग्नि की ज्वाला उठ रही है। वह उठे और अँगरेजी कैम्प की ओर भागे। वहीं उनके पहुँचने की सबसे ज्यादा जरूरत थी। बाजार में रक्तपात का भय न था। रक्षक स्वयं लुटेरे बने हुए थे। उन्हें लूट से कहाँ फुरसत थी कि हड़तालियों का शिकार करते। अँगरेजी कैम्प में ही स्थिति सबसे भयावह थी। इस नाजुक मौके पर वह न पहुँच जाते, तो किसी अँगरेज की जान न बचती, सारा कैम्प लुट जाता और खेमे राख के ढेर हो जाते। हड़तालियों की रक्षा करनी तो उन्हें बदी न थी; लेकिन विदेशियों को उन्होंने मौत के मुँह से निकाल लिया। एक क्षण में सारा कैम्प साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

इन आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिये, जो पहले लूट के लालच से चले आये थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है, ग्राहक, दूकानदार और दूकानें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती हैं, उसी भाँति एक क्षण में सारे कैम्प में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक मण्डप से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने गिनाये आदमी उसके [ ११८ ]सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह क्रिया कर रहे हों। बाजार लुटा, गोलियाँ चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गये, पर राजा साहब मण्डप के सामने ही खड़े रहे। उन्हें अपनी सारी मनोकामनाएँ अग्नि राशि में भस्म होती हुई मालूम होती थीं।

अँधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उनके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-ही-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे। कुछ लोग शेष घायलों की देख-भाल में लगे। रियासत का डाक्टर सज्जन मनुष्य था। यहाँ से सन्देशा जाते ही आ पहुँचा। उसकी सहायता ने बड़ा काम किया। आकाश पर काली घटा छायी हुई थी। चारों तरफ अँधेरा था। तिलक मण्डप की आग भी बुझ चुकी थी। उस अंधकार में ये लोग लालटेनें लिये घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे।

एकाएक कई सिपाहियो ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अँगरेजी कैम्प की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।

चक्रधर ने सोचा—मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया है, जिसका यह दण्ड हो। फिर यह पकड़ धकड़ क्यों? सम्भव है, मुझसे कुछ पूछने के लिए बुलाया हो और ये मूर्ख सिपाही उसका आशय न समझकर मुझे यों पकड़े लिये जाते हों। यह सोचते हुए वह मिस्टर जिम के खेमे में दाखिल हुए।

देखा, तो वहाँ कचहरी लगी हुई है। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुरसत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीने चढ़ाये खड़े थे। अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किये सिगार पी रहे थे, मानों क्रोधाग्नि मुँह से निकल रहो हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आँखे लाल किये मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बाँधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा—राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है। तुम और तुम्हारा साथी लोग बहुत दिनों से रियासत के आदमियों को भड़का रहा है, और आज भी तुम न आता, तो यह दंगा न मचता।

चक्रधर आवेश में आकर बोले—अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुःख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थान्ध अमलों के फन्दों से बचाने का उपाय करते हैं, और उन्हें अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करने का उपदेश देते हैं। हम चाहते हैं कि वे मनुष्य बनें और मनुष्यो की भाँति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहें। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।

जिम—तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता? [ ११९ ]चक्रधर—यहाँ उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहाँ से चले जाने या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शान्ति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी न आती।

राजा—हमें परम्परा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नही छोड़ सकते। आप असामियों को बेगार देने से मना करते हैं, और आज के हत्याकाण्ड का सारा भार आपके ऊपर है।

चक्रधर—कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परम्परा से सहते आये हैं।

जिम—हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकदमा चलायेगा। तुम dangerous (खतरनाक) आदमी है।

राजा—हुजूर, मैं इनके साथ कोई सख्ती नहीं करना चाहता, केवल यह प्रतिज्ञा लिखाना चाहता हूँ कि यह अथवा इनके सहकारी लोग मेरी रियासत में न जायँ।

चक्रधर—मैं ऐसी प्रतिज्ञा नही कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि राजा साहब के विचार मेरे विचारों से पूरे-पूरे मिलते थे। उन्हें अपने विचारों को बदलने के नये कारण हो गये हों, मेरे लिए कोई कारण नहीं।

राजा—मेरे प्रजा-हित के विचारों में कोई अन्तर नहीं हुआ है। मैं अब भी प्रजा का सेवक हूँ, लेकिन आप उन्हें राजनीतिक यन्त्र बनाना चाहते हैं, और इसी उद्देश्य से आप उनके हितचिन्तक बनते हैं। मैं उन्हें राजनीति में नहीं डालना चाहता। आप उनके आत्म-सम्मान की रक्षा करते हैं और मैं उनके प्राणों की। बस, आपके और मेरे विचारों में केवल यही अन्तर है।

मिस्टर जिम ने सब-इन्स्पेक्टर से कहा—इनको हवालात में रखो, कल इजलास पेश करो।

वज्रधर ने आगे बढ़कर जिम के पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले—हुजूर, यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जाँबख्शी करें। हुजूर का पुराना गुलाम हूँ। जब मैं खुरजे का तहसीलदार था, तब हुजूर ने सनद अता फरमायी थी, हुजूर!

मिस्टर जिम—ओ! तहसीलदार साहब, यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसे घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पाले। हम तुम्हारा पेंशन बन्द कर देगा। पेशन इसीलिए दिया जाता है तुम सरकार का वफादार नौकर बना रहे।

वज्रधर—हुजूर मेरे मालिक हैं। आज इसका कुसूर माफ़ कर दिया जाये। आज से मैं इसे घर से निकलने ही न दूँगा।

चक्रधर ने पिता को तिरस्कार-भाव से देखकर कहा—आप क्यों ऐसी बातों से मुझे लज्जित करते हैं! मिस्टर जिम और राज साहब मुझे जेल के बाहर भी कैद करना [ १२० ]चाहते है। मेरे लिए जेल की कैद इस कैद से कहीं आसान है।

वज्रधर—बेटा, मैं अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ। मुझे मर जाने दो, फिर तुम्हारे जो जी में आये, करना। मैं मना करने न आऊँगा।

हरिसेवक—तहसीलदार साहब, आप व्यर्थ हैरान होते हैं। आपका काम समझा देना है। वह समझदार है। अपना भला-बुरा समझ सकते हैं। जब वह खुद आग में कूद रहे हैं, तो आप कब तक उन्हें रोकिएगा?

वज्रधर—मेरी यह अर्ज है हुजूर, कि मेरी पेंशन पर रेप न आये।

जिम—तुमको इस मुकदमे में शहादत देना होगा। तुमने अच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बहाल रखा जायगा।

चक्रधर—लीजिए, आपकी पेंशन बहाल हो गयी, केवल मेरे विरुद्ध गवाही भर दे दीजिएगा।

राजा—बाबू चक्रधर, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता। हाँ, इतना ही चाहता हूँ कि फिर ऐसे हंगामे न खड़े हों।

चक्रधर—राजा साहब, क्षमा कीजिएगा, जब तक असन्तोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनाएँ होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शान्ति हो, पर वह असन्तोष अणुमात्र भी कम न होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असन्तोष को भड़काकर आप प्रजा को शान्त नहीं कर सकते। हाँ, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करनेवाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।