कायाकल्प/१८

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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१८

चक्रघर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक नयी दुनिया में आ गये, जहाँ मनुष्य-ही-मनुष्य हैं, ईश्वर नहीं। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। मनुष्य के रचे हुए संसार में मनुष्यत्व की कितनी हत्या हो सकती है, इसका उज्ज्वल प्रमाण सामने था । भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते । वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी भी पैरों से ठुकरा देता,और परिश्रम इतना करना पड़ता था निवना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबरदस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार [ १४५ ]करते और बात हँसी में उड़ा देते। एक कहता—लो धन्नासिंह, अब हम लोग बैकुण्ठ चलेंगे, कोई डर नहीं है, भगवान् क्षमा कर ही देंगे, वहाँ खूब जलसा रहेगा। दूसरा कहता—धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूँगा कि हड्डियाँ टूट जायँगी। भगवान् से कह दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुण्ठ में रखोगे, तो तुम्हारे नरक में स्यार लोटेंगे। तीसरा कहता—यार, वहाँ गाँजा मिलेगा कि नहीं? अगर गाँजे को तरसना पड़ा, तो बैकुण्ठ ही किस काम का। बैकुण्ठ तो जब जानें कि वहाँ ताड़ी और शराब की नदियाँ बहती हों। चौथा कहता—अजी यहाँ से बोरियों गाँजा और चरस लेते चलेंगे, वहाँ के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे? उन्हें भी कुछ दे दिलाकर काम निकाल लेंगे। जब यहाँ जुटा लिया, तो वहाँ भी जुटा ही लेंगे। पर ऐसी अभक्तिपूर्ण आलोचनाएँ सुनकर भी चक्रधर हताश न होते। शनैः शनैः उनकी भक्ति चेतना स्वयं दृढ़ होती जाती थी। भक्ति की ऐसी शिक्षा उन्हें कदाचित् और कहीं न मिल सकती।

बलवान् आत्माएँ प्रतिकूल दशाओं ही में उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थिति में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती हैं। आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं, कठिनाइयों ही में ईश्वर के दर्शन होते हैं और हमारी उच्चतम शक्तियाँ विकास पाती हैं। जिसने कठिनाइयों का अनुभव नहीं किया, उसका चरित्र बालू की भीत है, जो वर्षा के पहले ही झोंके में गिर पड़ती है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। महान् आत्माएँ कठिनाइयों का स्वागत करती हैं, उनसे घबराती नहीं, क्योंकि यहाँ आत्मोत्कर्ष के जितने मौके मिलते हैं, उतने और किसी दशा में नहीं मिल सकते। चक्रधर इस परिस्थिति को एक शिक्षार्थी की दृष्टि से देखते थे और विचलित न होते थे। उन्हें विश्वास था कि प्रकृति उन्हीं प्राणियों को परीक्षा में डालती है, जिनके द्वारा उसे संसार में कोई महान् उद्देश्य पूरा कराना होता है।

इस भाँति कई महीने गुजर गये। एक दिन सन्ध्या-समय चक्रधर दिन-भर के कठिन श्रम के बाद बैठे सन्ध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले—आज इस दारोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो, गालियाँ दिया करता है, सीधे मुँह तो बात ही नहीं करता। बात बात पर मारने दौड़ता है। हम भी तो आदमी हैं। कहाँ तक सहें! अब आता ही होगा। ऐसा मारो कि जन्म-भर को दाग हो जाय! यही न होगा कि साल दो साल की मीयाद और बढ़ जायगी, बचा की आदत तो छूट जायगी। चक्रधर इस तरह की बातें अक्सर सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया मगर भोजन करने के समय ज्योंही दारोगा साहब आकर खड़े हुए और एक कैदी को देर में आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और 'मारो मारो' का शोर मच गया। दारोगाजी को सिट्टी पिट्टी भूल गयी। कहीं भागने का रास्ता नहीं, कोई मददगार नहीं। चारों तरफ दीन नेत्रों से देखा, जैसे कोई बकरा भेड़ियों के बीच में फँस गया हो। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोगाजी की [ १४६ ]गरदन पकड़ी और इतनी जोर से दबायी कि उनकी आँखें बाहर निकल आयी। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले—हट जाओ, क्या करते हो?

धन्नासिंह का हाथ ढीला पड़ गया, लेकिन अभी तक उसने गरदन न छोड़ी।

चक्रधर—छोड़ो ईश्वर के लिए।

धन्नासिंह—जाओ भी, बड़े ईश्वर की पूँछ बने हो। जब यह रोज गालियाँ देता है, बात बात पर हंटर जमाता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा। हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूँगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने तो न दौड़ेगा?

दारोगा—कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।

धन्नासिंह—कान पकड़ो।

दारोगा—कान पकड़ता हूँ।

धन्नासिंह—जाओ बचा, भले का मुँह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहाँ कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है।

चक्रधर—दारोगाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन गरीबों को भुनवा डालिए।

दारोगा—लाहौल विला कूवत! इतना कमीना नहीं हूँ।

दारोगा चलने लगे, तो धन्नासिंह ने कहा—मियाँ, गारद सारद बुलायी, तो तुम्हारे हक में बुरा होगा, समझाये देते हैं। हमको क्या, न जीने की खुशी है, न मरने का रञ्ज, लेकिन तुम्हारे नाम को कोई रोनेवाला न रहेगा।

दारोगाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बन्दूक लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा। पीछे-पीछे दारोगाजी भी दौड़े। कैदी चारों ओर से घिर गये।

चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी।

धन्नासिंह—अब कहो, भगतजी, छुड़वा तो दिया, जाकर समझाते क्यों नहीं? गोली चली तो?

एक कैदी—गोली चली, तो पहले इन्हीं की चटनी की जायगी।

चक्रधर—तुम लोग अब भी शान्त रहोगे, तो गोली न चलेगी। मैं इसका जिम्मा लेता हूँ।

धन्नासिंह—तुम उन सबों से मिले हुए हो। हमें फँसाने के लिए यह ढोंग रचा है।

दूसरा कैदी—दगाबाज है, मार के गिरा दो।

चक्रधर—मुझे मारने से अगर तुम्हारी भलाई होती हो, तो यही सही।

तीसरा कैदी—तुम जैसे सीधे आप हो, वैसे ही सबको समझते हो, लेकिन तुम्हारे [ १४७ ]कारन इम लोग सेंत-मेंत में पिटे कि नहीं?

धन्नासिंह—सीधा नहीं, उनसे मिला हुआ है। भगत सभी दिल के मैले होते हैं। कितनों को देख चुका।

तीसरा कैदी—तुम्हारी ऐसी-तैसी, तुम्हें फाँसी दिला कर इन्हें राज ही तो मिल जायगा। छोटा मुँह, बड़ी बात!

चक्रधर ने आगे बढ़कर कहा—दारोगाजी, आखिर आप क्या चाहते हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है?

दारोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा—यही उन सब बदमाशों का सरगना है। खुदा जाने किस हिकमत से उन सबों को मिलाये हुए है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं, उन्हें खूब मारो, मारते-मारते हलवा निकाल लो सुअर के बच्चों का। इनकी इतनी हिम्मत कि मेरे साथ गुस्ताखी करें।

चक्रधर—आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।

धन्नासिंह—जबान सँभाल के दारोगाजी!

दारोगा—मारो इन सूअरों को।

सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बन्दूकों के कुन्दों से मारना शुरू किया। चक्रधर ने देखा कि मामला संगीन हुआ चाहता है, तो बाले—दारोगाजी, खुदा के वास्ते यह गजब न कीजिए।

कैदियों में खलबली पड़ गयी। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला लाकर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा—मैं आपको फिर समझाता हूँ।

दारोगा—चुप रह सूअर का बच्चा!

इतना सुनना था कि चक्रधर बाज की तरह लपककर दारोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुन्दों की मार पड़नी शुरू हो गयी थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थरों की वर्षा करनी शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।

एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जायगी, अभी सिपाही बन्दूक चलाना शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायँगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले—पत्थर न फेंको, पत्थर न फेंको! सिपाहियों के हाथों से बन्दूक छीन लो।

सिपाहियों ने संगीनें चढ़ानी चाहीं; लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एकएक सिपाही पर दस दस कैदी टूट पड़े और दम के दम में उनकी बन्दूक छीन ली। सिपाहियों ने रोब के बल पर आक्रमण किया था। उन्हें विश्वास था कि कुन्दों की मार पड़ते ही कैदी भाग जायँगे। अब उन्हें मालूम हुआ कि हम धोखे में थे। फिर वे एक साथ में नहीं, उधर-उधर बिखरे खड़े थे। इससे उनकी शक्ति और भी कम हो गयी थी। उन पर आगे पीछे, दायें-बायें चारों तरफ से चोट पड़ सकती थी। संगीनें चढ़ाकर भी [ १४८ ]वे किसी तरह न बच सकते थे। कैदियों में पिल पड़ना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। उनके ऐसे हाथ-पाँव फूले, होश ऐसे गायब हुए कि कुछ निश्चय न कर सके कि इस समय क्या करना चाहिए। कैदियों ने तुरन्त उनकी मुश्कें चढ़ा दीं और बन्दूक ले-लेकर उनके सिर पर खड़े हो गये। यह सब कुछ पाँच मिनट में हो गया। ऐसा दाँव पड़ा कि वही लोग जो जरा देर पहले हेकड़ी जताते थे, कैदियों को पाँव की धूल समझते थे, अब उन्हीं कैदियों के सामने खड़े दया प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे। दारोगाजी की सूरत तो तसवीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक, हवाइयाँ उड़ी हुईं, थर-थर काँप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।

कैदियों ने देखा, इस वक्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्नासिंह लपका हुआ दारोगा के पास आया और जोर से एक धक्का देकर बोला—क्यों खाँ साहब, उखाड़ लूँ डाढ़ी के एक-एक बाल?

चक्रधर—धन्नासिंह हट जाओ।

धन्नासिंह—मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें?

चक्रधर—हम कहते हैं, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा।

धन्नासिंह—अच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किये हैं, उसका मजा चखाये बिना न छोड़ेंगे।

एक कैदी—हमारी जान तो जाती ही है, पर इन लोगों को तो न छोड़ेंगे।

दूसरा कैदी—एक-एक की हड्डियाँ तोड़ दो। दो-दो, चार-चार साल और सही। अभी कौन सुख भोगरहे हैं, जो सजा को डरें। आखिर घूम-घाम के यहीं तो फिर आना है।

चक्रधर—मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हाँ, मर जाऊँ तो जो चाहे करना!

धन्नासिंह—अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितनी साँसत होती है। तुम्हीं कौन बचे हुए हो। कुत्तों को भी मारते दया आती है। क्या हम कुत्तों से भी गये बीते हैं।

इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला-मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों और अफसरों के साथ आ पहुँचे थे। दारोगाजी ने अन्दर आते वक्त किवाड़ बन्द कर लिये थे, जिसमें कोई कैदी भागने न पाये। यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गया कि पुलिस आ गयी। बोले—अरे भाई, क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो? बन्दूकें रख दो और फौरन् जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गयी।

धन्नासिंह-कोई चिन्ता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा-न्यारा किये डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो चार को मार के मरें।

कैदियों ने फौरन् संगीने चढ़ायीं और सबसे पहले धन्नासिंह दारोगाजी पर झपटा। करीब था कि संगीन की नोंक उनके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए 'धन्नासिंह, ईश्वर के लिए.' दारोगाजी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्नासिंह वार कर चुका [ १४९ ]था। चक्रधर के कन्धे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धँस गयी। दाहिने हाथ से कन्धे को पकड़कर बैठ गये। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गयी—ये शब्द उनकी पशु-वृत्तियों को दबा बैठे। धन्नासिंह ने बन्दूक फेंक दी और फूट-फूटकर रोने लगा। मैंने भगत के प्राण लिये! जिस भगत ने गरीबों की रक्षा करने के लिए सजा पायी, जो हमेशा उनके लिए अफसरों से लड़ने को तैयार रहता था, जो नित्य उन्हें अच्छे रास्ते पर ले जाने की चेष्टा करता था, जो उनके बुरे व्यवहारों को हँस-हँसकर सह लेता था, वही भगत आज धन्नासिंह के हाथ जख्मी पड़ा है। धन्नासिंह को कई कैदी पकड़े हुए हैं। ग्लानि के आवेश में वह बार-बार चाहता है कि अपने को उनके हाथों से छुड़ाकर वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने जोर से उसे जकड़ रखा है कि उसका कुछ बस नहीं चलता।

दारोगा ने मौका पाया तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूँ। धन्नासिंह ने देखा कि यह हजरत, जो सारे फिसाद की जड़ हैं, बेदाग बचे जाते हैं, तो उसकी हिंसक वृत्तियों ने इतना जोर मारा कि एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बन्दूक उठाकर उनके पीछे दौड़ा। चक्रधर के खून का बदला लेना जरूरी था। करीब था कि दारोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर सँभलकर उठे और एक हाथ से अपना कन्धा पकड़े, लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पाँव रुक गये। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बन्दूक फेंककर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रखकर रोने लगा। ऐसी सच्ची खुशी उसे अपने जीवन में कभी न हुई थी!

चक्रधर ने कहा—सिपाहियों को छोड़ दो।

धन्नासिंह—बहुत अच्छा, भैया? तुम्हारा जी कैसा है?

चक्रधर—देखना चाहिए, बचता हूँ या नहीं।

धन्नासिंह—दरोगा के बच जाने का कलंक रह गया।

सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुए। उन्हें देखते ही सारे कैदी भर से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे। धन्नासिह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी अपनी बन्दूकें सँभाली और एक कतार में खड़े हो गये।

जिम—वेल दारोगा, क्या हाल है?

दारोगा—हुजूर के अकबाल से फतह हो गयी। कैदी भाग गये।

जिम—यह कौन आदमी पड़ा है?

दारोगा—इसी ने हम लोगों की मदद की है, हुजूर। चक्रधर नाम है।

जिम—अच्छा! यह चक्रधर है, जो बगावत के मामले में हमारे इजलास से सजा पाया था। [ १५० ]

दारोगा—जी हाँ, हुजूर! अभी उसी की बदौलत हमारी जान बची। जो जख्म उसके कन्धे में है, यह शायद इस वक्त मेरे सीने में होता।

जिम—इसने कैदियों को भड़काया होगा?

दारोगा—नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा बुझाकर ठण्डा किया।

जिम—तुम कुछ नहीं समझता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है, जिसमें कैदी समझे कि यह हमारी तरफ से लड़ रहा है। यह कैदियों को मिलाने का हिकमत है। वह कैदियों को मिलाकर जेल का काम बन्द कर देना चाहता है।

दारोगा—देखने में तो हुजूर, बहुत सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।

जिम—खुदा के जानने से कुछ नहीं होगा, तुमको जानना चाहिए। तुमको हर एक कैदी पर निगाह रखनी चाहिए। यही तुम्हारा काम है। यह आदमी कैदियों से मजहब की बात चीत तो नहीं करता।

दारोगा—मजहबी बातें तो बहुत करता है, हुजूर! इसी से कैदियों ने उसे 'भगत' का लकब दे दिया है।

जिम—ओह! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। मजहबवाले आदमी पर बहुत कड़ी निगाह रखनी चाहिए। कोई पढ़ा लिखा आदमी दिल से मजहब को नहीं मानता। मजहब पढ़े लिखे आदमियों के लिये नहीं है। उनके लिए तो Ethics काफी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मजहब की बात चीत करे, तो फौरन् समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है। Religion (धर्म) के साथ Politics (राजनीति) बहुत खतरनाक हो जाता है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा?

दारोगा—जी हाँ, हमेशा!

जिम—सरकारी हुक्म को खूब मानता होगा?

दारोगा—जी हाँ, हमेशा।

जिम—कभी कोई शिकायत न करता होगा? कड़े-से कड़े काम खुशी से करता होगा?

दारोगा—जी हाँ, शिकायत नहीं करता। ऐसा बेजबान आदमी तो मैंने कभी देखा ही नहीं।

जिम—ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है। उस पर कभी एतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुकदमा चलायेगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।

दारोगा—हुजूर, पहले उसे डाक्टर साहब को तो दिखा लूँ। ऐसा न हो कि मर जाय, गुलाम को दाग लगे।

जिम—वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता, और मर भी जायगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।