कायाकल्प/१७

विकिस्रोत से
कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ १३२ ]

१७

राजा विशालसिह की जवानी कब की गुजर चुकी थी, किन्तु प्रेम से उनका हृदय अभी तक वञ्चित था। अपनी तीनों रानियों में केवल वसुमती के प्रेम की कुछ भूली हुईसी याद उन्हें आती थी। प्रेम वह प्याला नहीं है, जिससे आदमी छक जाय, उसकी तृष्णा सदैव बनी रहती है। राजा साहब को अब अपनी रानियाँ गँवारिनें-सी जँचती थीं, जिन्हें इसका जरा भी ज्ञान न था कि अपने को इस नयी परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनायें, कैसे जीवन का आनन्द उठायें। वे केवल आभूषणों ही पर टूट रही थीं। रानी देवप्रिया के बहुमूल्य आभूषणों के लिए तो वह संग्राम छिड़ा कि कई दिन तक आपस में गोलियाँ-सी चलती रहीं। राजा साहब पर क्या बीत रही है, राज्य की क्या दशा है, इसकी किसी को सुध न थी। उनके लिए जीवन में यदि कोई वस्तु थी, तो वह रत्न और आभूषण थे। यहाँ तक कि रामप्रिया भी अपने हिस्से के लिए लड़ने-झगड़ने में सङ्कोच न करती थी। इस आभूषण-प्रेम के सिवा उनकी रुचि या विचार में कोई विकास न हुआ था। कभी-कभी तो उनके मुँह से ऐसी बातें निकल जाती थीं कि रानी देवप्रिया के समय की लौंडियाँ बाँदियाँ मुँह मोड़कर हँसने लगतीं। उनका यह व्यवहार देखकर राजा साहब का दिल उनसे खट्टा होता जाता था।

यों अपने अपने ढंग पर तीनों ही उनसे प्रेम करती थीं, वसुमती के प्रेम में ईर्ष्या थी, रोहिणी के प्रेम में शासन। और रामप्रिया का प्रेम तो सहामुभूति की सीमा के अन्दर ही रह जाता था। कोई राजा के जीवन को सुखमय न बना सकती थी, उनकी प्रेम तृष्णा को तृप्त न कर सकती थी। उन सरोवरों के बीच में वह प्यास से तड़प रहे थे—उस पथिक की भाँति जो गन्दे तालाबों के सामने प्यास से व्याकुल हो। पानी बहुत था, पर पीने लायक नहीं। उसमें दुर्गन्ध थी, विष के कीड़े। इसी व्याकुलता की दशा में मनोरमा मीठे, ताजे जल की गागर लिये हुए सामने से आ निकली—नहीं, उसने उन्हें जल पीने को निमन्त्रित किया—और वह उसकी ओर लपके, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।

राजा साहब के हृदय में नयी नयी प्रेम-कल्पनाएँ अंकुरित होने लगीं। उसकी एकएक बात उन्हें अपनी ओर खींचती थी। वेष कितना सुन्दर था! वस्त्रों से सुरुचि झलकती थी, आभूषणों से सुबुद्धि। वाणी कितनी मधुर थी, प्रतिभा में डूबी हुई, एक एक शब्द हृदय की पवित्रता में रंगा हुआ। कितनी अद्भुत रूप-छटा है, मानों ऊषा के हृदय से ज्योतिर्मय मधुर संगीत की कोमल, सरस, शीतल ध्वनि निकल रही हो। वह अकेली आयी थी, पर यह विशाल दीवानखाना भरा-सा मालूम होता था। हृदय कितना उदार है, कितना कोमल! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना आनन्दमय, कितना [ १३३ ]कल्याणमय हो सकता है! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सकती है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, इसकी कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था। जीवन स्वर्ग-तुल्य हो जायगा। और अगर परमात्मा की कृपा से किसी पुत्र का जन्म हुआ, तो कहना ही क्या! उसके शौर्य और तेज के सामने बड़े बड़े नरेश काँपेंगे। बड़ा प्रतापी, मनस्वी, कर्मशील राजा होगा, जो कुल को उज्ज्वल कर देगा। राजा साहब को इसकी लेशमात्र भी शंका न थी कि मनोरमा उन्हें बरने की इच्छा भी करेगी या नहीं। उनके विचार में अतुल सम्पत्ति अन्य सभी त्रुटियों को पूरा कर सकती थी।

दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। अब उनका विशेष आदर-सत्कार करने लगे। उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम न करते। दो-तीन बार उनके मकान पर भी गये और अपनी सज्जनता की छाप लगा आये। ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्टता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरो पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशाएँ और भी चमक उठीं। क्या उसका उनसे हँस-हँसकर बातें करना, बार बार उनके पास आकर बैठ जाना और उनकी बातों को ध्यान से सुनना, रहस्यपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर ताकना और नित्य नयी छवि दिखाना, उसके मनोभावों को प्रकट न करता था? रहे दीवान साहब, वह सांसारिक जीव थे और स्वार्थ-सिद्धि के ऐसे अच्छे अवसर को कभी न छोड़ सकते थे, चाहे समाज इसका तिरस्कार ही क्यों न करे। हाँ, अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वह राजा साहब का आना-जाना पसन्द न करती थी। वह उनके इरादों को भाँप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। मनोरमा को बार-बार आँखों से इशारा करती थी कि अन्दर जा। किसी-न-किसी बहाने से उसे हटाने की चेष्टा करती रहती थी। उसका मुँह बन्द करने के लिए राजा साहब उससे लल्लो चप्पो की बातें करते और एक बार एक कीमती साड़ी भी उसको भेंट की; पर उसने उसकी ओर देखे बिना ही उसे लौटा दिया। राजा साहब के मार्ग में यही एक कंटक था और उसे हटाये बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बेचारे इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुन्शीजी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया। वही एक ऐसे प्राणी थे, जो इस कठिन समस्या को हल कर सकते थे। एक दिन उन्हें एकान्त में बुलाया और राजसम्बन्धी बातें करने लगे।

राजा—इलाके का क्या हाल है? फसल तो अबकी बहुत अच्छी है।

मुंशी—हुजूर, मैने अपनी उम्र में ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी। अगर पूरब के इलाके मे २०० कुएँ बन जाते, तो फसल दुगुनी हो जाती। पानी का वहाँ बड़ा कष्ट है।

राजा—मैं खुद इसी फिक्र में हूँ। कुएँ क्या, मैं तो एक नहर बनवाना चाहता हूँ। अरमान तो दिल में बड़े बड़े हैं; मगर सामने अँधेरा देखकर कुछ हौसला नहीं होता। [ १३४ ]
१३४
[कायाकल्प
 


सोचता हूँ, किसके लिए यह जञ्जाल बढाऊँ।

इस भूमिका के बाद विवाह की चर्चा अनिवार्य थी।

राजा― मै अब क्या विवाह करूँगा? जब ईश्वर ने अब तक सतान न दी, तो अब कौन-सी आशा है?

मुशी―गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र हो क्या है। मैने ८० बरस की उम्र में आदमियों के भाग्य जागते देखे हैं।

राजा―फिर मुझसे अपनी कन्या का विवाह कौन करेगा?

मुन्शी―अगर आपका जरा-सा इशारा पा गया होता, तो अब तक कभी बहूजी घर में आ गयी होती। राजा से अपनी कन्या का विवाह करना किसे बुरा लगता है!

राजा―लेकिन मुझे तो अब ऐसी स्त्री चाहिए, जो सुशिक्षित हो, विचारशील हो। राज्य के मामलों को समझती हो, अँगरेजी रहन-सहन से परिचित हो। बड़े-बड़े अफसर आते हैं। उनकी मेमो का आदर-सत्कार कर सके। घर को अँगरेजी ढग से सजा सके। बातचीत करने मे चतुर हो। बाहर निकलने में न झिझके। ऐसी स्त्री आसानी से नही मिल सकती। मिली भी, तो उसमें चरित्र-दोष अवश्य होंगे। जहाँ ऐसी स्त्रियों को देखता हूँ, भ्रष्ट ही पाता हूँ। मैं तो ऐसी स्त्री चाहता हूँ, जो इन गुणों के साथ निष्कलक हो। ऐसी एक कन्या मेरी निगाह में है, लेकिन वहाँ मेरी रसाई नहीं हो सकती।

मुन्शी―क्या इसी शहर में है?

राजा―शहर में ही नहीं, घर ही में समझिए।

मुन्शी―अच्छा, समझ गया। मैं तो चकरा गया कि इस शहर में ऐसा कौन राजा-रईस है, जहाँ हुजूर की रसाई नहीं हो सकती। वह तो सुनकर निहाल हो जायँगे, दौड़ते हुए करेंगे। कन्या सचमुच देवी है। ईश्वर ने उसे रानी बनने ही के लिए बनाया है। ऐसी विचारशील लड़की मेरी नजर से नहीं गुजरी।

राजा―आप जरा घरवालों को आजमाइए तो। आप जानते हैं न, दीवान साहब के घर की स्वामिनी लौंगी?

मुन्शी―वह क्या करेगी?

राजा―वही सब कुछ करेगी। दीवान साहब को तो उसने भेड़ा बना रखा है। और है भी अभिमानिनी। न उस पर लालच का कुछ दाँव चलता है, न खुशामद का।

मुन्शी―हुजर, उसकी कुञ्जी मेरे पास है। खुशामद से तो उसका मिजाज और भी बढता है। कितने ही बड़े दरजे पर पहुँच जाय, पर है तो वह नीच जात। उसे धमकाकर, मारने का भय दिखाकर, आप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं। नीच जात बातों में नहीं, लातों ही से मानती हैं।

दूसरे दिन प्रात काल मुन्शीजी दीवान साहब के मकान पर पहुँँचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गगा-स्नान को गये हुए थे। लौगी अकेली बैठी हुई थी। मुन्शीनी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी। [ १३५ ]

लौंगी ने कहा—तहसीलदार साहब, कैसी बातें करते हो? हमें अपनी रानी को धन के साथ बेचना थोड़े ही है। ब्याह जोड़ का होता है कि ऐसा बेजोड़। लड़की कंगाल को दे दे, पर बूढे को न दे। गरीब रहेगी तो क्या, जन्म-भर का रोना-झीकना तो न रहेगा।

मुंशी—तो राजा बूढे हैं?

लौंगी—और नहीं क्या छैला-जवान हैं?

मुंशी—अगर यह विवाह न हुआ, तो समझ लो कि ठाकुर साहब कहीं के न रहेंगे। तुम नीच जात राजाओं का स्वभाव क्या जानो? राजा लोगों को जहाँ किसी बात की धुन सवार हो गयी, फिर उसे पूरा किये बिना न मानेंगे, चाहे उनका राज्य ही क्यों न मिट जाय। राजाओं की बात को दुलखना हँसी नहीं है, क्रोध में आकर न जाने क्या हुक्म दे बैठें। बात तो समझती ही नही हो, सब धान बाईस पसेरी ही तौलना चाहती हो।

लौंगी—यह तो अनोखी बात है कि या तो अपनी बेटी दे, या मेरा गाँव छोड़। ऐसी धमकी देकर थोड़े ही ब्याह होता है।

मुंशी—राजाओं-महाराजाओं का काम इसी तरह होता है। अभी तुम इन राजा साहब को जानती नहीं हो। सैकड़ों आदमियों को भुनवा के रख दिया, किसी ने पूछा तक नहीं। अभी चाहे जिसे लुटवा लें, चाहे जिसके घर में आग लगवा दें। अफसरों से दोस्ती है ही, कोई उनका कर ही क्या सकता है? जहाँ एक अच्छी-सी डाली भेज दी, काम निकल गया।

लौंगी—तो यों कहो कि पूरे डाकू हैं।

मुंशी—डाकू कहो, लुटेरे कहो, सभी कुछ हैं। बात जो थी मैंने साफ-साफ कह दी। यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जायगा।

लौंगी—तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गये हो। रानी रुठेगी, अपना सोहाग लेंगी। अपनी नौकरी ही लेंगे, ले जायँ। भगवान् का दिया खाने-भर को बहुत है।

मुंशी—अच्छी बात है; मगर याद रखना, खाली नौकरी से हाथ धोकर गला न छूटेगा। राजा लोग जिसे निकालते हैं कोई-न-कोई दाग भी जरूर लगा देते हैं। एक झूठा इलजाम भी लगा देंगे, तो कुछ करते-धरते न बनेगा। यही कह दिया कि इन्होंने सरकारी रकम उड़ा ली है, तो बताओ क्या होगा? समझ से काम लो। बड़ों से रार मोल लेने में अपना निबाह नहीं है। तुम अपना मुँह बन्द रखो, हम दीवान साहब को राजी कर लेंगे। अगर तुमने भाँजी मारी, तो बला तुम्हारे ही सिर आयगी। ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्हारा कहना मान जायँ, पर जब चरखे में मन तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे। कहेंगे, तुम्हीं ने मुझे चौपट किया। सोचो जरा।

लौंगी गहरे सोच में पड़ गयी। वह और सब कुछ सह सकती थी, दीवान साहब [ १३६ ]का क्रोध न सह सकती थी। यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा खयाल आना असम्भव नहीं है। मनोरमा के रंग ढंग से भी उसे मालूम हो गया था कि वह राजा साहब को दुत्कारना नहीं चाहती। जब वे लोग राजी हैं, तो मै क्यों बोलूँ। कहीं पीछे से कोई आफत आयी, तो मेरे ही सिर के बाल नोचे जायँगे। मुंशीजी ने भले चेता दिया, नहीं तो मुझसे बिना बोले कब रहा जाता।

अभी उसने कुछ जवाब न दिया था कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये। उन्हें देखते ही लौंगी ने इशारे से बुलाया और अपने कमरे में ले जाकर उनके कान में बोली—राजा साहब ने मनोरमा के ब्याह के लिए संदेशा भेजा है।

ठाकुर—तुम्हारी क्या सलाह है?

लौंगी—जो तुम्हारी इच्छा हो करो, मेरी सलाह क्या पूछते हो?

ठाकुर—यही मेरी बात का जवाब है। मुझे अपनी इच्छा से करना होता, तो पूछता ही क्यों?

लौंगी—मेरी बात मानोगे तो हई नहीं, पूछने से फायदा?

ठाकुर—कोई बात बता दो, जो मैंने तुम्हारी इच्छा से न की हो।

लौंगी—कोई बात भी मेरी इच्छा से नहीं होती। एक बात हो, तो बताऊँ। तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो। तुम करते हो अपने ही मन को। हाँ, मैं अपना धर्म समझ के भूँक लेती हूँ।

ठाकुर-तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरा मारने को जी चाहता है। तू क्या चाहती है कि मैं अपनी जवान कटवा लूँ?

लौंगी—उसकी परीच्छा तो अभी हुई जाती है। तब पूछती हूँ कि मेरी इच्छा से हो रहा है कि बिना इच्छा के। मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आँख नहीं भाता। मानते हो?

ठाकुर—हाँ, मानता हूँ! जाकर मुंशीजी से कहे देता हूँ।

लौंगी—मगर राजा साहब बुरा मान जायें, तो?

ठाकुर—कुछ परवा नहीं।

लौंगी—नौकरी जाती रहे, तो?

ठाकुर—कुछ परवा नही। ईश्वर का दिया बहुत है, और न भी हो तो क्या? एक बात निश्चय कर ली, तो उसे करके छोड़ेंगे, चाहे उसके पीछे प्राण ही क्योंन चले जायँ।

लौंगी—मेरे सिर के बाल तो न नोचने लगोगे कि तूने ही मुझे चौपट किया। अगर ऐसा करना हो, तो मैं साफ कहती हूँ, मंजूर कर लो। मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है।

ठाकुर—क्या मुझे बिलकुल गया गुजरा समझती है। मैं जरा झगड़े से बचता हूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम ही नहीं है। लत्ते-लत्ते उड़ जाऊँ, पर विशाल[ १३७ ]सिंह से लड़की का विवाह न करूँ। तूने मुझे समझा क्या है? लाख गया—बीता हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ।

दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले—आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नही।

लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आयी थी। मुंशीजी ने उसकी तरफ तिरस्कार से देखकर कहा—आप इस वक्त गुस्से में मालूम होते हैं। राजा साहब ने बड़ी मिन्नत करके और बहुत डरते-डरते आपके पास यह सन्देशा भेजा है। आपने मंजूर न किया, तो मुझे भय है कि वह जहर न खा लें।

लौंगी—भला, जब जहर खाने लगेंगे, तब देखी जायगी। इस वक्त आप जाकर यही कह दीजिए।

मुंशी—दीवान साहब, इस मामले में जरा सोच-समझकर फैसला कीजिए।

लौंगी—राजा साहब के दौलत के सिवा और क्या है? दौलत ही तो संसार में सब कुछ नहीं।

मुंशी—सब कुछ न हो; लेकिन इतनी तुच्छ भी नहीं।

लौंगी—शादी-ब्याह के मामले में मैं उसे तुच्छ समझती हूँ।

मुंशी—यह मै कब कहता हूँ कि दौलत संसार की सब चीजों से बढ़कर है। इतना आप लोगों की दुआ से जानता हूँ कि सुख का मूल सन्तोष है। एक आदमी जल और स्थल के सारे रत्न पाकर गरीब रह सकता है, दूसरा फटे वस्त्रों और रूखी रोटियों में भी धनी हो सकता है।

सहसा मनोरमा आकर खड़ी हो गयी। यह वाक्य उसके कान में भी पड़ गया। समझी, धन की निन्दा हो रही है। बात काटकर बोली—इसे सन्तोष नही, मूर्खता कहना चाहिए।

ठाकुर—अगर सन्तोष मूर्खता है, तो संसार-भर के नीति-ग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर कुरान तक मूर्खता के ढेर हो जायँगे। सन्तोष से अधिक और किसी तप की महिमा नहीं गायी गयी है। धन ही पाप, द्वेष और अन्याय का मूल है।

मनोरमा—संसार के धर्मग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं जो रोटियों को मुहताज थे। उन्होंने अंगूर खट्‌टे समझकर धन की निन्दा की, तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर कुछ ऐसे आदमी है, जो धनी होकर भी धन की निन्दा करते है, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं।

ठाकुर साहब ने समझा, मनोरमा ने यह व्यंग उन्हीं पर किया है। चिढ़कर बोले—ऐसे लोग भी तो हो गये हैं, जिन्होंने धन ही नहीं, राज-पाट पर भी लात मार दी है।

मनोरमा—ऐसे आदमियों के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मेरी समझ में तो धन ही सुख और कल्याण का मूल है। संसार में जितना परोपकार होता है, धनियों ही के हाथों होता है। [ १३८ ]ठाकुर—संसार में जितना अत्याचार होता है, वह भी तो धनियों ही के हाथों होता है।

मनोरमा—हाँ मानती हूँ, धन से भी अत्याचार होता है, लेकिन काँटे से फूल का आदर कम नहीं होता। संसार में धन सर्वप्रधान वस्तु है। जिन्दगी का कौन-सा काम है, जो धन के बिना चल सके। धर्म भी बिना धन के नहीं हो सकता। यही कारण है कि संसार ने धन को जीवन का लक्ष्य मान लिया है। धन का निरादर करके हमने प्रभुत्व खो दिया और यदि हमें संसार में रहना है, तो हमें धन की उपासना करनी पड़ेगी। इसी से लोक-परलोक में हमारा उद्धार होगा।

मुंशीजी ने विजय-गर्व से हँसकर कहा—कहिए, दीवान साहब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं?

ठाकुर—मुझे मालूम होता है, धन के माहात्म्य पर इसने कोई लेख लिखा था और वही पढ़ सुनाया। क्यों मनोरमा, है न यही बात?

मनोरमा—अभी तो मैंने यह लेख नहीं लिखा, लेकिन लिखूँगी तो उसमें यही विचार प्रकट करूँगी। मेरे शब्दों में कदाचित् आपको दुराग्रह का भाव झलकता हुया मालूम होता हो। इसका कारण यह कि मैं अभी एक अँग्रेजी किताब पढ़े चली आती हूँ, जिसमें सन्तोष ही का गुणानुवाद किया गया है।

मुंशीजी ने देखा मनोरमा के मन की थाह लेने का अच्छा अवसर है। ठाकुर साहब की ओर आँखें मारकर बोले—मनोरमा, मेरे विचार तुम्हारे विचारों से बिलकुल मिलते हैं। धन से जितना अधर्म होता है, अगर ज्यादा नहीं, तो उतना ही धर्म भी होता है; लेकिन कभी-कभी ऐसे भी मौके आ जाते हैं, जब धन के मुकाबले में और कितनी ही बातों का लिहाज करना पड़ता है। कन्या का विवाह ऐसा ही मौका है। मेरी कन्या का विवाह होनेवाला है। मेरे सामने इस वक्त दो वर हैं। एक तो अधेड़ आदमी है, पर दौलत उसके घर में गुलामी करती है। दूसरा एक सुन्दर युवक है, बहुत ही होनहार, लेकिन गरीब। बताओ, किससे कन्या का विवाह करूँ?

ठाकुर—अगर कन्या की बात है, तो मैं यही सलाह दूँगा कि आप दौलत पर न जाइए। उसी युवक से विवाह कीजिए।

लौंगी—ऐसा तो होना ही चाहिए। ब्याह जोड़े का अच्छा होता। ऐसा ब्याह किस काम का कि वह बहू का बाप मालूम हो, बेचारी कन्या के दिन रोते ही बीते।

मुंशी—और तुम्हारी क्या राय है, मनोरमा?

मनोरमा ने कुछ लजाते हुए कहा—आप जैसा उचित समझे, करें।

मुंशी—नहीं, इस विषय में तुम्हारी राय बुड्ढों की राय से बढ़कर है।

मनोरमा—मैं तो समझती हूँ कि जो दिन खाने पहनने, सैर-तमाशे के होते हैं, अगर वे किसी गरीब आदमी के साथ चक्की चलाने और चौका बरतन करने में कट गये, तो जीवन का सुख ही क्या? हाँ, इतना में अवश्य कहूँगी कि उम्र का एक साल एक लाख से कम मूल्य नहीं रखता। [ १३९ ]

यह कहकर मनोरमा चली गयी। उसके जाने के बाद दीवान साहब कई मिनट तक जमीन की ओर ताकते रहे। अन्त में लौंगी से बोले—तुमने इसकी बातें सुनीं?

लौंगी—सुनी क्यों नहीं, क्या बहरी हूँ?

ठाकुर—फिर?

लौंगी—फिर क्या, लड़के हैं, जो मुँह में आया बकते हैं, उनके बकने से क्या होता है। मा-बाप का धर्म है कि लड़कों के हित ही को करें। लड़का माहुर माँगे, तो क्या मा-बाप उसे माहुर दे देंगे? कहिए, मुंशीजी!

मुंशी—हाँ, यह तो ठीक ही है; लेकिन जब लड़के अपना भला-बुरा समझने लगें, तो उनका रुख देखकर ही काम करना चाहिए।

लौंगी—जब तक मा-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख्तियार ही क्या है। आप जाकर राजा साहब से यही कह दीजिए।

मुंशी—दीवान साहब, आपका भी यही फैसला है?

ठाकुर—साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूँगा। हाँ, आप मेरे दोस्त हैं; इस नाते आपसे इतना कहता हूँ कि आप कुछ इस तरह गोल-मोल बातें कीजिए कि मुझ पर कोई इलजाम न आने पाये। आपने तो बहुत दिनों अफसरी की है, और अफसर लोग ऐसी बातें करने में निपुण भी होते हैं।

मुंशीजी मन में लौंगी को गालियाँ देते हुए यहाँ से चले। जब फाटक के पास पहुँचे, तो देखा कि मनोरमा एक वृक्ष के नीचे घास पर लेटी हुई है। उन्हें देखते ही वह उठकर खड़ी हो गयी। मुंशीजी जरा ठिठक गये और बोले—क्यों मनोरमा रानी, तुमने जो मुझे सलाह दी, उस पर खुद अमल कर सकती हो?

मनोरमा ने शर्म से सुर्ख होकर कहा—यह तो मेरे माता पिता के निश्चय करने की बात है।

मुंशीजी ने सोचा, अगर जाकर राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इन्कार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। राजा साहब कहेंगे, फिर गये ही किस बिरते पर थे। शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने को तमीज ही नहीं। तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दून को हाँकनी शुरू की—हुजूर, बुढ़िया बला की चुडैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।

राजा साहब ने अधीर होकर पूछा—आखिर आप तय क्या कर आये?

मुंशी—हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बातचीत करते काँपते हैं। आपकी तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद उन्हें इन्कार न होगा। मनोरमा रानी तो सुनकर बहुत खुश हुईं।

राजा—अच्छा! मनोरमा खुश हुई! खूब हँसी होगी। आपने कैसे जाना कि खुश है? [ १४० ]

मुंशी—हुजूर, सब कुछ साफ साफ कह डाला, उम्र का फर्क कोई चीज नहीं, आपस में मुहब्बत होनी चाहिए। मुहब्बत के साथ दौलत भी हो, तो क्या पूछना। हाँ, दौलत इतनी होनी चाहिए, जो किसी तरह कम न हो। और कितनी ही बातें इसी किस्म की हुईं। बराबर मुसकराती रहीं।

राजा—तो मनोरमा को पसन्द है?

मुंशी—उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकरायी।

राजा—तो मैं आज ही बातचीत शुरू कर दूँ? कायदा तो यही है कि उधर से 'श्री गणेश' होता, लेकिन राजाओं में अक्सर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है। पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आयी है। मैं आज ठाकुर साहब की दावत करूँगा और मनोरमा को भी बुलाऊँगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।

राजा साहब ने बाकी दिन दावत का सामान करने में काटा। हजामत बनवायी। एक भी पका बाल न रहने दिया। उबटन मलवाया। अपनी अच्छी से अच्छी अचकन निकाली, केसरिये रंग का रेशमी साफा बाँधा, गले में मोतियों की माला डाली, आँखो में सुरमा लगाया, माथे में केशर का तिलक लगाया, कमर में रेशमी कमरबन्द लपेटी, कन्धे पर शाह रुमाल रखा, मखमली गिलाफ में रखी हुई तलवार कमर से लटकायी और यों सज-सजाकर जब वह खड़े हुए, तो खासे छैला मालूम होते थे। ऐसा बाँका जवान शहर में किसी ने कम देखा होगा। उनके सौम्य स्वरूप और सुगठित शरीर पर यह वस्त्र और आभूषण खूब खिल रहे थे।

निमन्त्रण तो जा हो चुका था। रात के ९ बजते बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गये। राजा साहब उनका स्वागत करने दौड़े। मनोरमा ने उनकी ओर देखा तो मुसकरायी, मानो कह रही थी—ओ हो। आज तो कुछ और ही ठाठ हैं। उसने आज और ही वेष रचा था। उसकी देह पर एक भी आभूषण न था। केवल एक सुफेद साड़ी पहने हुए थी। उसका रूप माधुर्य कभी इतना प्रस्फुटित न हुआ था। अलंकार भावों के अभाव का आवरण है। सुन्दरता को अलकारों की जरूरत नहीं। कोमलता अलकारों का भार नहीं सह सकती।

दीवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते थे। उनकी रक्षा करने के लिए यहाँ लौंगी न थी और बहुत जल्द उनके सामने एक भीषण समस्या आनेवालो थी। दावत की मंशा वह खूब समझ रहे थे। कुछ समझ ही में न आता था, क्या कहूँगा? लौंगी ने चलते-चलते उनसे समझा के कह दिया था—'हाँ' न करना। साफ-साफ कह देना, यह बात नहीं हो सकती, मगर ठाकुर साहब उन वीरों में थे, जिनकी पीठ पर पाली में भी हाथ फेरने की जरूरत रहती है। बेचारे बिल-सा ढूँढ़ रहे थे कि कहाँ भाग जाऊँ। सहसा मुन्शी वज्रधर आ गये। दीवान साहब को आँखें-सी मिल गयीं। दौड़े और उन्हें लेकर एक अलग कमरे में सलाह करने लगे। मनोरमा पहले ही झूले घर में आकर इधर-उधर टहल रही थी। अब न वह हरियाली थी, न वह रोनक, न वह सफाई। सन्नाटा [ १४१ ]छाया हुआ था। राजा साहब ने उसे इधर आते देख लिया। वह उससे एकान्त में बातें करना चाहते थे। मौका पाया, तो उसके सामने आकर खड़े हो गये।

मनोरमा ने कहा—रानीजी के सामने इस झूले घर में कितनी रौनक थी। अब जिधर देखती हूँ, सूना ही सूना दिखायी देता है।

राजा—अब तुम्हीं से इसकी फिर रौनक होगी, मनोरमा! यह भी मेरे हृदय की तरह तुम्हारी ओर आँखें लगाये बैठा है!

प्रणय के ये शब्द पहली बार मनोरमा के कानों में पड़े। उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्त हो गया। वह सहमी-सी खड़ी रही। कुछ बोल न सकी।

राजा साहब फिर बोले—मनोरमा, यद्यपि मेरे तीन रानियाँ है; पर मेरा हृदय अबतक अक्षुण्ण है, उस पर आज तक किसी का अधिकार नहीं हुआ। कदाचित् वह अज्ञात रूप से तुम्हारी राह देख रहा था। तुमने मेरी रानियों को देखा है, उनकी बातें भी सुनी हैं। उनमें ऐसी कौन है, जिसकी प्रेमोपासना की जाय। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि इतने दिन इनके साथ कैसे काटे!

मनोरमा ने गम्भीर होकर कहा—मेरे लिए यह सौभाग्य की बात होगी कि आपकी प्रेम-पात्री बनूँ; पर मुझे भय है कि मैं आदर्श पत्नी न बन सकूँगी। कारण तो नहीं बतला सकती, मैं स्वयं नहीं जानती; पर मुझे यह भय अवश्य है। मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही रही है कि किसी बन्धन में न पड़ूँ। पक्षियों की भाँति स्वाधीन रहना चाहती हूँ।

राजा ने मुस्कराते हुए कहा—मनोरमा, प्रेम तो कोई बन्धन नहीं है।

मनोरमा—प्रेम बन्धन न हो; पर धर्म तो बन्धन है। मैं प्रेम के बन्धन से नहीं घबराती, धर्म के बन्धन से घबराती हूँ। आपको मुझ पर बड़ी कठोरता से शासन करना होगा। मैं आपको अपनी कुञ्जी पहले ही से बताये देती हूँ। मैं आपको धोखा नहीं देना चाहती। मुझे आपसे प्रेम नहीं है। शायद हो भी न सकेगा। (मुस्कराकर) मैं रानी तो बनना चाहती हूँ; पर किसी राजा की रानी नहीं। हाँ, आपको प्रसन्न रखने की चेष्टा करुँगी। जब आप मुझे भटकते देखें, टोक दें। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं प्रेम करने के लिए नहीं, केवल विलास करने के लिए ही बनायी गयी हूँ।

राजा—तुम अपने ऊपर जुल्म कर रही हो, मनोरमा! तुम्हारा वेष तुम्हारी बातों का विरोध कर रहा है। तुम्हारे हृदय में वह प्रकाश है, जिसकी एक ज्योति मेरे समस्त जीवन के अवकार का नाश कर देगी।

मनोरमा—मैं दोनों हाथों से धन उड़ाऊँगी। आपको बुरा तो न लगेगा? मैं धन की लौंडी बनकर नहीं, उनकी रानी बनकर रहूँगी।

राजा—मनोरमा, राज्य तुम्हारा है, धन तुम्हारा है, मैं तुम्हारा हूँ। सब तुम्हारी इच्छा के दास होंगे।

मनोरमा—मुझे बातें करने की तमीज नहीं है। यह तो आप देख ही रहे हैं। [ १४२ ]लोगो अम्माँ कहती हैं कि तू बातें करती है, तो लाठी-सी मारती है।

राजा-मनोरमा, उषा में अगर संगीत होता, तो वह भी इतना कोमल न होता।

मनोरमा-पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई ?

राजा-अभी तो नहीं, मनोरमा ! अवसर पाते ही करूँगा; पर कहीं उन्होंने इनकार कर दिया तो?

मनोरमा--मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनू गी।

दोनों आदमी बरामदे में पहुंचे, तो मुन्शीजी और दीवान साहब खड़े थे । मुन्शी जी ने राजा साहब से कहा- हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।

दीवान--मुन्शीजी...

मुन्शी-हुजूर, आज जलसा होना चाहिए । ( मनोरमा से ) महारानी, अापका सोहाग सदा सलामत रहे ।

दीवान-जरा मुझे सोच .

मुन्शी-जनाव, शुभ काम में सोच-विचार कैसा । भगवान् जोड़ी सलामत रखें। सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर उघर से आ आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा । दीवान साहब सिर झुकाये खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते । दिल में मुन्शीजी को हजारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली । अाखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लोगों से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में यही वदा था, तो मैं करता क्या ? मनोरमा भी तो खुश है।

बारह बजते-बजते मेहमान लोग सिधारे। राजा साहब के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। सारे आदमी सो रहे थे, पर वह बगीचे में हरी हरी घास पर टहल रहे थे । चैत्र की शीतल, सुखद, मन्द समीर, चन्द्रमा की शीतल सुखद, मन्द छटा और बाग की शीतल, सुखद, मन्द, सुगन्ध में उन्हें भी ऐसा उल्लास, ऐसा आनन्द न प्राप्त हुआ था । मन्द समीर में मनोरमा थी, चन्द्र की छटा में मनोरमा थी, शीतल सुगन्ध मे मनोरमा थी, और उनके रोम-रोम में मनोरमा थी। सारा विश्व मनोरमा-मय हो रहा था।