कायाकल्प/२०
२०
मिस्टर जिम ने दूसरे दिन हुक्म दिया कि चक्रधर को जेल से निकालकर शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाय। वह उन जिद्दी आदमियों में न थे, जो मार खाकर भी बेहयाई करते हैं। सवेरे परवाना पहुँचा। राजा साहब भी तड़के ही उठकर जेल पहुँचे। मनोरमा वहाँ पहले ही से मौजूद थी; लेकिन चक्रधर ने साफ कह दिया—मैं यहीं रहना चाहता हूँ। मुझे और कहीं भेजने की जरूरत नहीं।
दारोगा—आप कुछ सिड़ी तो नहीं हो गये हैं? कितनी कोशिश से तो राजा साहब ने यह हुक्म दिलाया, और आप सुनते ही नहीं? क्यों जान देने पर तुले हो? यहाँ इलाज-विलाज खाक न होगा।
चक्रधर—कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट आयी है। मेरा मरना-जीना उन्हीं के साथ होगा। उनके लिए ईश्वर है, तो मेरे लिए भी ईश्वर है।
दारोगा ने बहुत समझाया, राजा साहब ने भी समझाया, मनोरमा ने रो-रोकर मिन्नतें कीं; लेकिन चक्रधर किसी तरह राजी न हुए। तहसीलदार साहब को अन्दर आने की आज्ञा न मिली; लेकिन शायद उनके समझाने का भी कुछ असर न होता। दोपहर तक सिरमगजन करने के बाद लोग निराश होकर लौटे।
मुंशीजी ने कहा—दिल नहीं मानता, पर जी यही चाहता है कि इस लौंडे का मुँह न देखूँ!
राजा—इसने बात ही क्या थी। मेरी सारी दौड़-धूप मिट्टी में मिल गयी।
मनोरमा कुछ न बोली। चक्रधर जो कुछ कहते या करते थे, उसे उचित जान पड़ता था। भक्त को आलोचना से प्रेम नहीं। चक्रधर का यह विशाल त्याग उसके हृदय में खटकता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रहा था। उसकी आँखें गर्व से मतवाली हो रही थीं।
मिस्टर जिम को यह खबर मिली, तो तिलमिला उठे, मानो किसी रईस ने एक भिखारी को पैसे जमीन पर फेंककर अपनी राह ली हो। कीर्ति का इच्छुक जब दान करता है, तो चाहता है कि नाम हो, यश मिले। दान का अपमान उससे नहीं सहा जाता। जिम ने समझा था कि चक्रधर की आत्मा का मैंने दमन कर दिया। अब उसे मालूम हुआ कि मैं धोखे में था। वह आत्मा अभी तक मस्तक उठाये उसकी ओर ताक रही थी। जिम ने मन में ठान लिया था कि मै उसे कुचलकर छोड़ूँगा।
चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवा दर्पन तो जैसी हुई, वही जानते होंगे, लेकिन जनता की दुआओं में जरूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को तो दान, व्रत और तप के सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शान्ति मिलती थी। पहली बार उसे प्रार्थना शक्ति का विश्वास हुआ। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।
चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे, इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थीं। ज्योंही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकद्दमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरुसेवकसिंह आजकल डिप्टी मैजिस्ट्रट थे। उन्हीं को यह मुकद्दमा सिपुर्द किया गया।
हमारे ठाकुर साहब बड़े जोशीले आदमी थे। यह जितने जोश से किसानों का संगठन करते थे, अब उतने ही जोश से कैदियों को सजाएँ भी देते थे। पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा-कार्य में ही अपना जीवन बिता दूँगा, लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आँखें खुल गयीं। समझ गये कि इन परिस्थितियों में सेवा कार्य टेढ़ी खीर है। जीवन का उद्देश्य यही तो नहीं है कि हमेशा एक पैर जेल में रहे, हमेशा प्राण सूली पर रहे, खुफिया पुलिस हमेशा ताक में बैठी रहे, भगवद्गीता का पाठ करना मुश्किल हो जाय। यह तो न स्वार्थ है, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है, तलवार पर गरदन रखना है। सेवा कार्य को दूर से सलाम किया और सरकार के सेवक बन बैठे। खानदान अच्छा था ही, सिफारिश भी काफी थी, जगह मिलने में कोई कठिनाई न हुई। अब वह बड़े ठाट से रहते थे। रहन-सहन भी बदल डाला, खान-पान भी बदल डाला। उस समाज में घुल-मिल गये, जिसकी वाणी में, वेश में, व्यवहार में पराधीनता का चोखा रङ्ग चढ़ा होता है। उन्हें लोग अब 'साहब' कहते हैं। 'साहब' हैं भी पूरे 'साहब', बल्कि 'साहबों' से भी दो अंगुल ऊँचे। किसी को छोड़ना तो जानते ही नहीं। कानून की मंशा चाहे कुछ हो, कड़ी-से-कड़ी सजा देना उनका काम है। उनका नाम सुनकर बदमाशों की नानी मर जाती है। विधाताओं को उन पर जितना विश्वास है, उतना और किसी हाकिम पर नहीं है, इसी लिए यह मुकदमा उनके इजलास में भेजा गया है। ठाकुर साहब सरकारी काम में जरा भी रू-रियायत न करते थे; लेकिन यह मुकदमा पाकर वह धर्म-संकट में पड़ गये। धन्नासिंह और अन्य अपराधियों के विषय में तो कोई चिन्ता न थी, उनकी मीआद बढ़ा सकते थे, काल-कोठरी में डाल सकते थे, सेशन-सिपुर्द कर सकते थे; पर चक्रधर को क्या करें। अगर सजा देते हैं, तो जनता में मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुँह भी न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहाँ सभी चक्रधर से खार खाये बैठे थे। ठाकुर साहब के कानों में किसी ने यह बात भी डाल दी थी कि इसी मुकदमे पर तुम्हारे भविष्य का बहुत कुछ दार-मदार है।
मुकदमे को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरुसेवक बरामदे में बैठे सावन की रिम-झिम वर्षा का आनन्द उठा रहे थे। आकाश में मेघों की घुड़दौड़-सी हो रही थी। घुड़दौड़ नहीं, संग्राम था। एक दल आगे वेग से भागा चला जाता था और उसके पीछे विजेताओं का काला दल तोपें दागता, भाले चमकाता, गम्भीर भाव से बढ़ रहा था, मानो भगोड़ों का पीछा करना अपनी शान के खिलाफ समझता हो।
सहसा मनोरमा मोटर से उतरकर उनके समीप ही कुरसी पर बैठ गयी!
गुरुसेवक ने पूछा—कहाँ से आ रही हो?
मनोरमा—घर ही से आ रही हूँ। जेलवाले मुकदमे में क्या हो रहा है?
गुरुसेवक—अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।
मनोरमा—बाबूजी पर जुर्म साबित हो गया?
गुरुसेवक—हो भी गया और नहीं भी हुआ।
मनोरमा—मैं नहीं समझी।
गुरुसेवक—इसका मतलब यह है कि जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है, और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दें, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हाँ, मैं बदनाम हो जाऊँगा। मेरे लिए यह आत्म-बलिदान का प्रश्न है। सारी देवता-मण्डली मुझ पर कुपित हो जायगी।
मनोरमा—तुम्हारी आत्मा क्या कहती है?
गुरुसेवक—मेरी आत्मा क्या कहेगी? मौन है।
मनोरमा—मैं यह न मानूँगी। आत्मा कुछ न कुछ जरूर कहती है, अगर उससे पूछा जाय। कोई माने या न माने, यह उसका अख्तियार है। तुम्हारी आत्मा भी अवश्य तुम्हें सलाह दे रही होगी और उसकी सलाह मानना तुम्हारा धर्म है। बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरपराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफी है; लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता तुमसे भले ही सन्तुष्ट हो जायँ, पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जायगा।
गुरुसेवक—चक्रधर बिलकुल बेकसूर तो नहीं हैं। पहले पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता। यह अपराध उनके सिर से कैसे दूर होगा ?
मनोरमा––आपके कहने का यह मतलब है कि वह गालियाँ खाकर चुप रह जाते? क्यों?
गुरुसेवक––जब उन्हें मालूम था कि मेरे बिगड़ने से उपद्रव की सम्भावना है, तो मेरे खयाल में उन्हें चुप ही रह जाना चाहिए था।
मनोरमा––और मैं कहती हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आत्मसम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है। आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफारिश करनी चाहिए कि एक महान् संकट मे, अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मीआद घटा दी जाय सरकार अपील करे, इससे आपको कोई प्रयोजन नहीं। आपका कर्तव्य वही है, जो मैं कह रही हूँ।
गुरुसेवक ने अपनी नीचता को मुसकराहट से छिपाकर कहा––आग में कूद पड़ूँ?
मनोरमा––धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नयी बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफसर नाराज हो जायँगे। आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिये जाय। इसकी जरा भी चिन्ता न कीजिए। मैं आशा करती हूँ मुझे विश्वास है कि आपका नुकसान न होने पायेगा।
गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले––नौकरी की मुझे परवा नहीं है, मनोरमा! मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनको फौरन खयाल होगा कि मैं भी उसी टुकड़ी में मिला हुआ हूँ, और आश्चर्य नहीं कि मैं भी किसी जुर्म में फाँस दिया जाऊँ। मुझे इनके साथ मिलने-जुलने से इनकी नीचता का कई बार अनुभव हो चुका है। इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती। बस, अपने मतलब के यार हैं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है-'स्वार्थ'। मैं सब कुछ सह सकता हूँ, जेल के कष्ट नहीं सह सकता। जानता हूँ, यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूँ? मुझमें तो इतना साहस नहीं।
मनोरमा––भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मल हैं। मैं आपका जरा भी नुकसान न होने दूंगी। गवाहों के बयान हो गये कि नहीं? गुरुसेवक हाँ, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।
मनोरमा––तो लिखिए, लाऊँ कलम-दावात?
गुरुसेवक––लिख लूँगा, जल्दी क्या है?
मनोरमा––मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊँगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आयी हूँ। गुरुसेवक––जरा घर में जाकर लोगों से मिल आओ। शिकायत करती थी कि बीबी अभी से हमें भूल गयीं।
मनोरमा––टालमटोल न कीजिए। मैं सब सामान यहीं लाये देती हूँ। आपको इसी वक्त लिखना पड़ेगा।
गुरुसेवक––तो तुम कब तक बैठी रहोगी? फैसला लिखना कोई मुंह का कौर थोड़े ही है।
मनोरमा––आधी रात तक खत्म हो जायगा? आज न होगा, कल होगा। मैं फैसला पढ़कर ही यहाँ से जाऊँगी। तुम दिल से चक्रधर को निर्दोष मानते हो, केवल स्वार्थ और भय तुम्हें दुविधा में डाले हुए हैं। मैं देखना चाहती हूँ कि तुम कहाँ तक सत्य का निर्वाह करते हो।
सहसा दूसरी मोटर आ पहुँची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे? गुरुसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले––तुम्हारे घर से चला आ रहा हूँ। वहाँ पूछा तो मालूम हुआ––कहीं गयी हो; पर यह किसी को न मालूम था कि कहाँ। वहाँ से पार्क गया, पार्क से चौक पहुँचा, सारे जमाने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुँचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो जरा बतला दिया करो।
मनोरमा––मैने समझा था, आपके पाने के वक्त तक लौट आऊँगी।
राजा––खैर, अभी कुछ ऐसी देर नहीं हुई। कहिए, डिप्टी साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? कभी कभी भूलकर हमारी तरफ भी आ जाया कीजिए। (मनोरमा से) चलो, नहीं तो शायद जोर से पानी आ जाय।
मनोरमा––मैं तो आज न जाऊँगी।
राजा––नहीं नहीं, ऐसा न हो। वे लोग हमारी राह देख रहे होंगे।
मनोरमा––मेरा तो जाने को जी नहीं चाहता।
राजा––तुम्हारे बगैर सारा मजा किरकिरा हो जायगा, और मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा। मैं तुम्हें जबरदस्ती ले जाऊँगा।
यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और त्योरियाँ बदलकर बोली––एक बार कह दिया कि मैं न जाऊँगी।
राजा––आखिर क्यों?
मनोरमा––अपनी इच्छा!
गुरुसेवक––हुजूर, यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखाने बैठी हुई है। कहती हैं––बिना लिखवाये न जाऊँगी।
गुरूसेवक ने तो यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समायोचित बात उनके मुंह से कम निकलती थी। मनोरमा का मुँह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते हैं। तनकर बोली––हॉ, इसी लिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की जरूरत है। क्या यह आपके लिए शर्म की बात नही है? अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों जरूरत होती। आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्जत है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।
एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। गुरुसेवक का मुँह नन्हा सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिये। आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले। जब वह मोटर पर बैठ गये, तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आयी और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली––मैं कल आपके साथ अवश्य चलूँगी।
राजा ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा––जैसी तुम्हारी खुशी।
मनोरमा––अगर इस मामले में सच्चा फैसला करने के लिए भैयाजी पर हाकिम की अकृपा हुई, तो आपको भैयाजी के लिए कुछ फिक्र करनी पड़ेगी।
राजा––देखी जायगी।
मनोरमा तनकर बोली––क्या कहा?
राजा––कुछ तो नहीं।
मनोरमा––भैयाजी को रियासत में जगह देनी होगी।
राजा––तो दे देना, मैं रोकता कब हूँ?
मनोरमा––कल चार बजे आने की कृपा कीजिएगा। मुझे आपके साथ आज न चलने का बड़ा दुःख है, पर मजबूर हूँ। मैं चली जाऊंगी, तो भैयाजी कुछ का कुछ कर बैठेंगे। आप नाराज तो नहीं हैं।
यह कहते-कहते मनोरमा की आँखें सजल हो गयीं। राजा ने मन्त्र मुग्ध नेत्रों से उसकी ओर ताका और गद्गद् होकर बोले––तुम इसकी जरा भी चिन्ता न करो। तुम्हारा इशारा काफी है। लो, अब खुश होकर मुसकरा दो। देखो, वह हँसी आयी! मनोरमा मुसकरा पड़ी। पानी में कमल खिल गया। राजा साहब ने उससे हाथ मिलाया और चले गये। तब मनोरमा आकर अपनी कुरसी पर बैठ गयी।
इस समय गुरुसेवक की दशा उस आदमी की-सी थी, जिसके सामने कोई महात्मा धूनी रमाये बैठे हो, और बगल में कोई विहसित, विकसित रमणी मधुर संगीत अलाप रही हो। उसका मन तो संगीत की ओर आकर्षित होता है, लेकिन लज्जावश उधर न देखकर वह जाता है और महात्मा के चरणों पर सिर झुका देता है।
मनोरमा कुरसी पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लहरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए बहते देखने में मग्न हो। नाव कभी झोंके खाती है, कभी लहरों के साथ बहती है और कभी डगमगाने लगती है। बालक का हृदय भी उसी भॉति कभी उछलता है, कभी घबराता है और कभी बैठ जाता है।
कुरसी पर बैठे-बैठे मनोरमा को एक झपकी आ गयी। सावन भादों की ठण्ढी हवा निद्रामय होती है। उसका मन स्वप्न साम्राज्य में जा पहुँचा। क्या देखती है कि उसके बचपन के दिन हैं। वह अपने द्वार पर सहेलियों के साथ गुड़ियाँ खेल रही हैं। सहसा एक ज्योतिषी पगड़ी बाँधे, पोथी पत्रे बगल में दबाये आता है। सब लड़कियाँ अपनी गुड़ियों का हाथ दिखाने के लिए दौड़ी हुई ज्योतिषी के पास जाती हैं। ज्योतिषी गुड़ियों के हाथ देखने लगता है। न-जाने कैसे गुड़ियों के हाथ लड़कियो के हाथ बन जाते है। ज्योतिषी एक बालिका का हाथ देखकर कहता है––तेरा विवाह एक बड़े भारी अफसर से होगा। बालिका हँसती हुई अपने घर चली जाती है; तब ज्योतिषी दूसरी बालिका का हाथ देखकर कहता है––तेरा विवाह एक बड़े सेठ से होगा। तू पालकी में बैठकर चलेगी। वह बालिका भी खुश होकर घर चली जाती है। तब मनोरमा की बारी आती है। ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिन्ता में डूब नाते हैं और अन्त में संदिग्ध स्वर मे कहते हैं––तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी और दुःख उठायेगी। यह कहकर वह चल पड़ते हैं; पर मनोरमा उनका हाथ पकड़ कर कहती है––आपने मुझे तो कुछ नहीं बताया। मुझे उसी तरह बता दीजिए, जैसे आपने मेरी सहेलियों को बताया है। ज्योतिषी झुँझलाकर कहते हैं। तू प्रेम को छोड़कर धन के पीछे दौड़ेगी; पर तेरा उद्धार प्रेम ही से होगा। यह कहकर ज्योतिषीजी अन्तर्धान हो गये और मनोरमा खड़ी रोती रह गयी।
यही विचित्र दृश्य देखते-देखते मनोरमा की आँखें खुल गयी। उसकी आँखों में अभी तक आँसू बह रहे थे। सामने उसकी भावज खड़ी कह रही थी––घर मे चलो, बीवी! मुझसे क्यों इतना भागती हो? क्या मैं कुछ छीन लूँगी? और गुरूसेवक लैम्प के सामने बैठे तजबीज़ लिख रहे थे। मनोरमा ने भावज से पूछा––भाभी, क्या मैं सो गयी थी? अभी तो शाम हुई है।
गुरुसेवक ने कहा––शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं।
मनोरमा––तो आपने तजवीज़ लिख डाली होगी?
गुरुसेवक––बस, जरा देर में खत्म हुई जाती है।
मनोरमा ने काँपते हुए स्वर में कहा––आप यह तजवीज़ फाड़ डालिए।
गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछा––क्यों, फाड़ क्यों डालूँ?
मनोरमा––यों ही! आपने इस मुकदमे का जिक्र ऐने बेमौके कर दिया कि राजा साहब नाराज हो गये होंगे। मुझे चक्रधर से कुछ रिश्वत तो लेनी नहीं है। वह तीन वर्ष की जगह तीस वर्ष क्यों न जेल में पढ़े रहें। पुण्य और पाप आपके सिर। मुझसे कोई मतलब नहीं। गुरुसेवक नहीं मनोरमा, मैं अब यह तजवीज़ नहीं फाड़ सकता। बात यह है कि मैंने पहले ही से दिल में एक बात स्थिर कर ली थी, और सारी शहादतें मुझे उसी रंग में रंगी नजर आती थीं। सत्य की मैंने तलाश न की थी, तो सत्य मिलता कैसे? अब मालूम हुआ कि पक्षपात क्योंकर लोगों की घाँखों पर परदा डाल देता है। अब जो सत्य की इच्छा से बयानों को देखता हूँ, तो स्पष्ट मालूम होता है कि चक्रधर बिलकुल निर्दोष हैं। जान-बूझकर अन्याय न करूँगा।
मनोरमा––आपने राजा साहब की त्योरियाँ देखीं?
गुरुसेवक––हाँ, खूब देखों, पर उनकी अप्रसन्नता के भय से अपनी तजवीज़ नहीं फाड़ सकता। यह पहली तजवीज़ है, जो मैने पक्षपात-रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपने फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था। अब तो कोई लाख रुपये भी दे, तो भी इसे न फाड़ूँ।
मनोरमा–– अच्छा, तो लाइए, मैं फाड़ दूं।
गुरुसेवक––नहीं मनोरमा, औंघते हुए आदमी को मत ठेलो, नहीं तो फिर वह इतने जोर से गिरेगा कि उसकी आत्मा तक चूर-चूर हो जायगी। मुझे तो विश्वास है कि इस तजवीज़ से चक्रधर की पहली सजा भी घट जायगी। शायद सत्य कलम को भी तेज कर देता है। मैं इन तीन घण्टों में बिना चाय का एक प्याला पिये ४० पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी ही पढ़ती थी। बिना चाय की मदद के कलम ही न चलती थी।
मनोरमा–– लेकिन मेरे सिर इसका एहसान न होगा?
गुरुसेवक––सचाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है। सत्य से आत्मा भी बलवान हो जाती है। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अब मुझे ज़रा भी भय नहीं है।
मनोरमा––अच्छा, अब मैं जाऊँगी। लालाजी घबरा रहे होंगे।
मामी––हाँ-हाँ; जरूर जाओ, वहाँ माताजी के स्तनों में दूध उतर आया होगा। यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है?
मनोरमा––भाभी, लौंगी अम्माँ को तुम जितना नीच समझती हो, उतनी नीच नहीं हैं। तुम लोगों के लिए वह अब भी रोया करती हैं।
भाभी––अब बहुत बखान न करो, जी जलता है। वह तो मरती भी हो, तो भी देखने न जाऊँ। किसी दूसरे घर में होती, तो अभी तक बरतन माँजती होती। यहाँ आकर रानी बन गयी। लो उठा चला, आज तुम्हारा गाना सुनूँगी। बहुत दिनों के बाद पंजे में आयी हो। मनोरमा घर न जा सकी। भोजन करके भावज के साथ लेटी। बड़ी रात तक दोनों मे बातें होती रहीं। आखिर भाभी को नींद आ गयी, पर मनोरमा की आँखों में नींद कहाँ। वह तो पहले ही सो चुकी थी। वही स्वप्न उसके मस्तिष्क में चक्कर लगा रहा ________________
फायाकल्प ] १६९ क्या यही है कि राजा साहब से क्या वह प्रेम को छोड़कर धन था । वह वार वार सोचती थी, इस स्वप्न का आशय विवाह करके वह सचमुच अपना भाग्य पलट रही है ? के पीछे दौड़ी जा रही है ? वह प्रेम कहाँ है, जिसे उसने छोड़ दिया है । उसने तो उसे पाया ही नहीं । वह जानती है कि उसे कहाँ पा सकती है; पर पाये कैसे ? वह वस्तु तो उसके हाथ से निकल गयी । वह मन में कहने लगी- बाबूजी, तुमने कभी मेरी श्रोर श्राँख उठाकर देखा है ? नहीं, मुझे इसकी लालसा रद्द हो गयी । तुम दूसरों के लिए नरना जानते हो, अपने लिए जीना भी नहीं जानते । तुमने एक बार मुझे इशारा भी कर दिया होता, तो मै दौड़कर तुम्हारे चरणों में लिपट नाती । इस धन-दौलत पर लात मार देती, इस बन्धन को कच्चे धागे की भाँति तोड़ देती; लेकिन तुम इतने विद्वान् होकर भी इतने सरल हृदय हो ! इतने अनुरक्त होकर भी इतने विरक्त ! तुम समझते हो, मैं तुम्हारे मन का हाल नहीं जानती ? मैं सब जानती हूँ, एक एक अक्षर जानती हूँ, लेकिन क्या करूँ? मैंने अपने मन के भाव उससे अधिक प्रकट कर दिये थे, जितना मेरे लिए उचित था । मैंने वेशर्मी तक की; लेकिन तुमने मुझे न समझा, या समझने की चेष्टा ही न की । व तो भाग्य मुझे उसी ओर लिये जा रहा है, जिधर मेरी चिता बनी हुई है । उसी चिता पर बैठने जाती हूँ । यही हृदय- दाह मेरी चिता होगी और यही स्वप्न सन्देश मेरे जीवन का आधार होगा। प्रेम से मैं वंचित हो गयी और यत्र मुझे सेवा ही से अपना जीवन सफल करना होगा। यह स्वप्न नहीं, ग्राकाशवाणी है । अभागिनी इससे अधिक और क्या मिलापा रख सकती है ? यही सोचते-सोचते वह लेटे-लेटे यह गीत गाने लगी- करूँ क्या, प्रेम-समुद्र स्नेह सिन्धु में मग्न हुई मैं, हाथ न श्राये तुम जीवन धन, करूँ क्या, प्रेम-समुद्र पार ! लहरें रही हिलोर, पाया कहीं न छोर ! पार ! झूम-झूमकर जब इठलायो सुरभित स्निग्ध समोर, नभ मण्डल मे लगा विचरने मेरा हृदय अधीर । करूँ क्या, प्रेम- समुद्र पार !