कायाकल्प/२१

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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२१

हुक्काम के इशारों पर नाचनेवाले गुरुसेवकसिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इलजाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मण्डल में सनसनी - सी फैल गयी । गुरुसेवक से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थी । फैसला क्या था, मान-पत्र था, जिसका एक- एक शब्द वात्सल्य के रस में शराबोर था। जनता मे धूम मच गयी । ऐसे न्यायप्रिय और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यहीं बात निकलती थी । शहर के कितने ही आदमी तो गुरुसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को ४-५ साल जेल [ १७० ]में सड़ायेंगे, लेकिन अब तो लूटा ही उखड़ गया, उछले किस बिरते पर? चक्रधर इस इलजाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गयी। मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया। लेकिन ईश्वर न करे कि किसी पर हाकिमों की टेढ़ी निगाह हो। चक्रधर की मीआद घटा टी गयी, लेकिन कर्मचारियों को सख्त ताक़ीद कर दी गयी थी कि कोई क़ैदी उनसे बोलने तक न पाये, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाये, यहाँ तक कि कोई कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की क़ैद का मजा चखाने की हिकमत सोच निकाली गयी। मजा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया गया। बस, आठों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रही। जेल के विधाताओं में चाहे जितने अवगुण हो, पर वे मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं। किस दण्ड से आत्मा को अधिक से अधिक कष्ट हो सकता है, इसका उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है। मनुष्य के लिए बेकारी से बड़ा और कोई कष्ट नहीं है, इसे वे खूब जानते हैं। चक्रधर के कमरे का द्वार दिन में केवल दो बार खुलता था। बार्डर खाना रखकर किवाड़ बन्द कर देता था। आह! कालकोठरी तू मानवी पशुता की सबसे क्रूर लीला, सबसे उज्ज्वल कीर्ति है। तू वह जादू है, जो मनुष्य को आँखें रहते अन्धा, कान रहते बहरा, जीभ रहते गंगा बना देती है। कहाँ है सूर्य की वे किरणें, जिन्हें देखकर आँखो को अपने होने का विश्वास हो, कहाँ है वह वाणी, जो कानों को जगाये? गन्ध है, किन्तु ज्ञान तो भिन्नता में है। जहाँ दुर्गन्ध के सिवा और कुछ नहीं, वहाँ गन्ध-शान कैसे हो, बस, शून्य है, अन्धकार है। वहाँ पंच-भूतों का अस्तित्व ही नहीं। कदाचित् ब्रह्मा ने इस अवस्था की कल्पना ही न की होगी, कदाचित् उनमें यह सामर्थ्य ही न थी। मनुष्य की आविष्कार-शक्ति कितनी विलक्षण है। धन्य हो देवता, धन्य हो।

चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्द बदलते रहते थे कि कभी-कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ? कभी सोचते-ईश्वर ने ऐसी सृष्टि की रचना ही क्यों की, जहाँ इतना स्वार्थ, द्वेष और अन्याय है? क्या ऐसी पृथ्वी न बन सकती थी, जहाँ सभी मनुष्य, सभी जातियाँ प्रेम और आनन्द के साथ संसार में रहतीं? यह कौन-सा इन्साफ है कि कोई तो दुनिया के मजे उड़ाये, कोई धक्के खाये, एक जाति दूसरी का रक्त चूसे और मछों पर ताव दे। दूसरी कुचली जाय और दाने को तरसे? ऐसा अन्यायमय संसार ईश्वर की सृष्टि नहीं हो सकता। पूर्व-संसार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों और दुर्बलों के आँसू पोछने के लिए गढ़ लिए हैं। दो चार दिन यही संशय उनके मन को मथा करता। फिर एकाएक विचार-धारा पलट जाती। अन्धकार में प्रकाश की ज्योति फैल जाती, काँटों की जगह फूल नजर आने लगते। पराधीनता एक ईश्वर-विधान का रूप धारण कर लेती, जिसमें विकास और जागृति का मंत्र छिपा हुया है। नहीं, पराधीनता दण्ड नहीं है, यह शिक्षा– [ १७१ ]लय है, जो हमें स्वराज्य के सिद्धान्त सिखाता है, हमारे पुराने कुसंस्कारों को मिटाता है, हमारी मुंदी हुई आँखें खोलता है। इसके लिए ईश्वर का गिला करने की जरूरत नहीं। हमें उनको धन्यवाद देना चाहिए। अन्त को इस अन्तर्द्वन्द्व में उनकी आत्मा ने विजय पायी। सारी मन की अशान्ति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियाँ उसी विजय में मग्न हो गयी। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। इसको परवा न रही कि ताजी हवा मिलती है या नही, भोजन कैसा मिलता है, कपड़े कितने मैले हैं, उनमे कितने चिलवे पड़े हुए हैं कि खुजाते-खुजाते देह में दिदोरे पड़ जाते हैं। इन कष्टों की ओर उनका ध्यान ही न जाता। मन अन्तर्जगत् की सैर करने लगा। यह नयी दुनिया, जिसका अभी तक चक्रधर को बहुत कम ज्ञान था, इस लोक से कहीं ज्यादा पवित्र, उज्ज्वल और शान्तिमय थी। यहाँ रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में, एक विचित्र ही आनन्द था। वह किसी समाधिस्थ योगी की भँति घण्टों इस अन्तर्लोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग-सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अँधेरे मे अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक ही खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज़ की जरूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था। इसलिए नहीं कि वह अन्धकार से ऊब गये थे; बल्कि इसीलिए कि वह अपने मन में उमड़नेवाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़पकर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकाश की भी जरूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अँधेरे में भी लिख सकता हूँ। यही न होगा कि पंक्तियाँ सीधी न होगी; पर पंक्तियों को दूर-दूर रखकर और शब्दों को अलग-अलग लिखकर वह इस मुश्किल को आसान कर सकते थे। सोचते, कभी यहाँ से बाहर निकलने पर उस लिखावट का पढ़ने में कितना आनन्द आयेगा, कितना मनोरंजन होगा! लेकिन लिखने का सामान कहाँ। बस, यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए यह कभी-कभी विकल हो जाते थे। विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न पायेंगे। लेकिन कैसे मिले।

चक्रधर के पास कभी कभी एक बूढ़ा बार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर को प्रसन्नमुख देखकर दोचार बातें कर लेता था। आह! उससे बातें करने के लिए चक्रधर लालायित रहते थे। उससे उन्हें बन्धुत्व-सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस-तम्बाखू की इच्छा हो, तो हमसे कहना। चक्रधर को खयाल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से कागज के लिए कहूँ। इस उपकार का बदला कभी मौका मिला तो चुका दूंगा। कई दिनों तक तो वह इसी संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूँ या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रह गया, पूछ ही बैठे––क्यों जमादार, यहाँ कहाँ कागज पेंसिल तो मिलेगी? बूढ़ा वार्डर उनकी पूर्व कथा सुन चुका था, कुछ लिहाज करता था। मालूम नहीं [ १७२ ]किस देवता के आशीर्वाद से उसमें इतनी इन्सानियत बच रही थी। और जितने बार्डर भोजन लाते, वे या तो चक्रधर को अनायास दो-चार ऐंडी बैंड़ी सुना देते, या चुपके से खाना रखकर चले जाते। चक्रधर को चरित्र ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था। बूढ़े वार्डर ने सतर्क भाव से कहा––मिलने को तो मिल जायगा, पर किसी ने देख लिया, तो क्या होगा?

इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक-बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फँस गयी थी, नाग उठी। बोले––नहीं, मैं योंही पूछता था। यह कहते कहते लज्जा से उनकी जबान बन्द हो गयी। जरा-सी बात के लिए इतना पतन!

इसके बाद उस बार्डर ने फिर कई बार पूछा––कहो तो पिंसिन कागद ला दूँ, मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा––मुझे जरूरत नहीं।

बाबू यशोदानन्दन को ज्योंही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गये हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे, पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रिवायत भी न की गयी थी, पर यशोदानन्दन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा जोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली-अपने लिए नहीं, अहल्या के लिए। उस विरहिणी की दशा दिनों दिन खराब हो जाती थी। जब से चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह भी कैदियों की सी जिन्दगी बसर करने लगी। चक्रधर जेल में भी स्वतन्त्र थे, वह भाग्य को अपने पैरों पर झुका सकते थे। अहल्या घर में भी कैद थी, वह भाग्य पर विजय न पा सकती थी। वह केवल एक बार बहुत थोड़ा-सा खाती और वह भी रूखा-सूखा। वह चक्रधर को अपना पति समझती थी। पति को ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप ही आप बनाव-शृङ्गार से, खाने पीने से, हँसने बोलने से अरुचि होती थी। कहाँ पुस्तकों पर जान देती थी, कहाँ अब उनकी ओर ऑख उठाकर न देखती। चारपाई पर सोना भी छोड़ दिया था। केवल जमीन पर एक कम्बल बिछाकर पड़ रहती। बैसाख जेठ की गरमी का क्या पूछना, घर की दीवारें तवे की तरह तपती है। घर भाड़ सा मालूम होता है। रात को खुले मैदान में भी मुश्किल से नींद आती है, लेकिन अहल्या ने सारी गरमी एक छोटी-सी बन्द कोठरी में सोकर काट दी। माघ पूस की सरदी का क्या पूछना। प्राण तक कांपते हैं। लिहाफ के बाहर मुँह निकालना मुश्किल होता है। पानी पीने से जूड़ी-सी चढ आती है। लोग आग पर पतंगों की भाँति गिरते हैं, लेकिन अहल्या के लिए वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कम्बल। सारा घर समझाता था––क्यों इस तरह प्राण देती हो? तुम्हारे प्राण देने से चक्रधर का कुछ उपकार होता, तो एक बात भी थी। व्यर्थ काया को क्यों कष्ट देते हो? इसका उसके पास यही जवाब था––मुझे जरा भी कष्ट नहीं। आप लोगों को न जाने कैसे मैदान में गरमी लगती है, मुझे तो कोठरी में खूब नींद आती है। आप लोगों को न जाने कैसे सरदी लगती है, मुझे तो कम्बल में ऐसी [ १७३ ]गहरी नींद आती है कि एक बार भी आँख नहीं खुलती। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्मनिष्ठा और भी बढ़ गयी। प्रार्थना में इतनी शान्ति है, इसका उसे पहले अनुमान न था। जब वह हाथ जोड़कर ऑखे बन्द करके ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। एकाग्रता और निरन्तर ध्यान से उसकी आत्मा दिव्य होती जाती थी। इच्छाएँ आपही-आप गायब हो गयीं। चित्त की वृत्ति ही बदल गयी। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थनाएँ उस मातृ-स्नेह पूर्ण अञ्चल की भाँति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती हैं।

जिस दिन अहल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गयी है, उसे आनन्द के बदले भय होने लगा––वह न जाने कितने दुर्बल हो गये होंगे, न-जाने उनकी सूरत कैसी बदल गयी होगी। कौन जाने, हृदय बदल गया हो। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाय, कहों में चिल्लाकर रोने न लगूँ। अपने दिल को बार-बार मजबूत करती थी।

प्रातःकाल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वन्दना करती रही। माघ का महीना था, आकाश में बादल छाये हुए थे, इतना कुहरा पड़ रहा था कि सामने की चीज़ न सूझती थी। सरदी के मारे लोगों का बुरा हाल था। घरों को मेहरियाँ अँगीठियाँ लिये ताप रही थी, धन्धा करने कौन जाय। मजदूरी का फाका करना मंजूर था; पर काम पर जाना मुश्किल मालुम होता था। दूकानदारों को दूकान की परवा न थी, बैठे आग तापते थे; यमुना मे नित्य स्नान करनेवाले भक्त-जन भी आज तट पर नजर न आते थे। सड़कों पर, बाजार में, गलियों में, सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसा हो कोई विपत्ति का मारा दूकानदार था, जिसने दूकान खोली हो। बस, अगर चलते-फिरते नजर आते थे, तो वे दफ्तरों के बाबू थे, जो सरदी से सिकुहे, जेब में हाथ डाले, कमर टेढ़ी किये, लपके चले जाते थे। अहल्या इसी वक्त यशोदानन्दनजी के साथ गाड़ी में बैठकर जेल चली। उसे उल्लास न था, आनन्द न था, शंका और भय से दिल कॉप रहा था, मानो कोई अपने रोगी मित्र को देखने जा रहे हो। जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गयी, जहाँ एक टाट का टुकड़ा पड़ा था। उसने अहल्या को उस टाट पर बैठने का इशारा किया। तब एक कुरसी मँगवाकर आप उस पर बैठ गयी और चौकीदार से कहा––अब यहाँ सब ठीक है, कैदी को लाओ।

अहल्या का कलेजा धड़क रहा था। उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढाँढस हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी यी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आये। उनके सिर पर कनटोप था और देह पर एक आधी आस्तीन का कुरता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रहो थी। उनका रंग पीला पड़ गया या, दाढ़ी के बाल बड़े [ १७४ ]हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं, पर मुख पर एक हल्की सी मुसकराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसकी आँखो से वे अख्तियार आँसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी सी उठकर खड़ी हो गयी। अब दो-के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन मे हजारों बातें हैं, उद्गार पर उद्गार उठते हैं, दोनों एक दूसरे को कनखियों में देखते हैं, जिनमें प्रेम, आकांक्षा और उत्सुकता की लहरें-सी उठ रही हैं, पर किसी के मुंह से शब्द नहीं निकलता। अहल्या सोचती है, क्या पूछूँ, इनका एक-एक अग अपनी दशा आप सुना रहा है। उसकी आँखों में बार-बार आँसू उमड़ पाते हैं, पर पी जाती है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूँ, इसका एक-एक अग इसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है। बार-बार ठंढी साँसे खीचते हैं, पर मुँह नहीं खुलता। वह माधुर्य कहाँ है, जिस पर ऊषा की लालिमा बलि जाती थी? वह चपलता कहाँ है, वह सहास छवि कहाँ है, जो मुखमण्डल को बलाएँ लेती थी। मालूम होता है, बरसों की रोगिणी है। आह! मेरे ही कारण इसकी नयह दशा हुई है। अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही बचें। किन शब्दों में दिलासा दूं, क्या कहकर समझाऊँ।

इसी असमंजस और कण्ठावरोध की दशा में खड़े खडे दोनों को १० मिनट हो गये। शायद उन्हें खयाल ही न रहा कि मुलाकात का समय केवल २० मिनट है। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया पायी, घड़ी देखकर बोली––तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट और बाकी हैं।

चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले––अहल्या, तुम इतनी दुबली क्यों हो? बीमार हो क्या?

अहल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा––नहीं तो, मैं बिलकुल अच्छी हूँ। आप अलबत्ता इतने दुबले हो गये हैं कि पहचाने नहीं जाते।

चक्रधर––खैर, मेरे दुबले होने के तो कारण हैं, लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली ना रही हो? कम-से-कम अपने को इतना तो बनाये रखो कि जब मैं छूटकर आऊँ, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिये नहीं, तो मेरे लिए तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी ही चाहिए। अगर तुमने इसी भाँति घुल घुलकर प्राण दे दिये, तो शायद जेल से मेरी भी लाश ही निकले। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि तुम अबसे अपनी ज्यादा फिक्र रखोगी। मेरी ओर से तुम निश्चिन्त रहो। मुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं है। बड़ी शान्ति से दिन कट रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि मेरे आत्म-सुधार के लिए इस तपस्या की बड़ी जरूरत थी। मैंने अँधेरी कोठरी में जो कुछ पाया, वह पहले प्रकाश में रहकर न पाया था। मुझे अगर उसी कोठरी में सारा जीवन बिताना पड़े, तो भी मैं न घबराऊँगा। हमारे साधु सन्त अपनी इच्छा से जीवन-पर्यन्त कठिन से कठिन तपस्या करते हैं। मेरी तपस्या उनसे कहीं सरस और सुसाध्य है। अगर दूसरों ने मुझे इस संयम का अवसर दिया, तो मैं उनसे बुरा क्यों मानू? मुझे तो उनका उपकार मानना चाहिए। [ १७५ ]मुझे वास्तव में इस संयम को बड़ी जरूरत थी, नहीं तो मेरे मन की चंचलता मुझे न जाने कहाँ ले जाती। प्रकृति सदैव हमारी कमी को पूरी करती रहती है, यह बात अब तक मेरी समझ में न पायी थी। अब तक मैं दूसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था। अब ज्ञात हुआ कि अपना उपकार ही दूसरों का उपकार है। जो अपना उपकार नहीं कर सकता, वह दूसरों का उपकार क्या करेगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, यहाँ बड़े आराम से हूँ और इस परीक्षा में पढ़ने से प्रसन्न हूँ। बाबूजी तो कुशल से हैं?

अहल्या––हाँ, आपको बराबर याद किया करते हैं। मेरे साथ वह भी आये हैं; पर यहाँ न याने पाये। अम्माँ और बाबूजी में कई महीनों से खटपट है। वह कहती है, बहुत दिन तो समाज को चिन्ता में दुबले हुए, अब आराम से घर बैठो, क्या तुम्हीं ने समाज का ठीका ले लिया है? बाबूजी कहते हैं, यह काम तो उसी दिन छोड़ूँगा, जिस दिन प्राण शरीर को छोड़ देगा। बेचारे बराबर दौड़ते रहते हैं। एक दिन भी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। तार से बुलावे आते रहते हैं। फुरसत मिलती है, तो लिखते हैं। न-जाने ऐसी क्या हवा बदल गयी है कि नित्य कहीं-न-कहीं से उपद्रव की खबर आती रहती है। आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है; पर आराम करने की तो उन्होंने कसम खा ली है। बूढे ख्वाजा महमूद से न-जाने किस बात पर अनबन हो गयी है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।

अहल्या ने ये बातें महत्व को समझकर न कहीं बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त से होकर बोले––दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गये होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेगे, हमारी यही दशा रहेगी। मुश्किल यह है कि जिन महान् पुरुषों से अच्छी धर्मनिष्ठा की आशा की जाती है, वे अपने अशिक्षित भाइयों से भी बढ़कर उद्दण्ड हो जाते हैं। मैं तो नीति ही का धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है। नगर अंतर है तो बहुत थोड़ा। हिन्द, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सभी सत्कर्म और सद्विचार की शिक्षा देते हैं। हमें कृष्ण, राम, ईसा मुहम्मद, बुद्ध सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए। ये मानव जाति के निर्माता है। जो इसमें से किसी का अनादर करता है, या उनकी तुलना करने बैठता है, वह अपनी मूर्खता का परिचय देता है। बुरे हिन्दू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू। देखना यह चाहिए कि वह कैसा आदमी है, न कि यह कि वह किस धर्म का आदमी है। संसार का भावी धर्म सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर बनेगा। हम अगर संसार में जीवित रहना है, तो अपने हृदय में इन्हीं भावों का सञ्चार करना पड़ेगा। मेरे घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?

अहल्या––मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गये। जगदीशपुर के साहब ने आपके पिताजी को ५०) मासिक बाँध दिया है इससे अब उनका वन का [ १७६ ]नहीं है। आपकी माताजी अलबत्ता रोया करती हैं! छोटी रानी साहबा की आपके घर-वालों पर विशेष कृपादृष्टि है।

चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा––छोटी रानी साहबा कौन?

अहल्या––रानी मनोरमा, जिनसे अभी थोड़े हो दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है।

चक्रधर––तो मनोरमा का विवाह राजा साहब से हो गया?

अहल्या––यही तो बाबूजी कहते थे।

चक्रधर––तुम्हें खूब याद है, भूल तो नहीं रही हो?

अहल्या-खूब याद है, इतनी जल्द भूल जाऊँगी!

चक्रधर––यह तो बड़ी दिल्लगी हुई, मनोरमा का विवाह विशालसिंह के साथ? मुझे तो अब भी विश्वास नहीं पाता। बाबूजी ने नाम बताने में गलती को होगी।

अहल्या––बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। मनोरमा किसी से दबनेवाली है ही नहीं। सुनती हूँ, राजा साहब बिलकुल उनकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह करती हैं, वही होता है। राजा साहब तो काठ के पुतले बने हुए हैं। बाबूजी चन्दा माँगने गये थे, तो रानीजी ही ने पाँच हजार दिये। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।

सहसा लेडी ने कहा––वक्त पूरा हो गया। बार्डर, इन्हें अन्दर ले जाओ।

चक्रधर क्षण-भर भी और न ठहरे। अहल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गये। अहल्या ने सजल नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूटकर रोने लगी।