कायाकल्प/२३

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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२३

राजा विशालसिंह की मनोवृत्तियाँ अब एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित हो गयी थीं और वह लक्ष्य था-मनोरमा। वह उपासक थे, मनोरमा उपास्य थी; वह सैनिक थे; मनोंरमा सेनापति थी; वह गेंद थे, मनोरमा खिलाड़ी थी। मनोरमा का उनके मन पर, उनकी आत्मा पर सम्पूर्ण आधिपत्य था। वह अब मनोरमा ही की आँखों से देखते, मनोरमा ही के कानों से सुनते और मनोरमा ही के विचार से सोचते थे। उनका प्रेम सम्पूर्ण आत्म-समर्पण था। मनोरमा ही की इच्छा अब उनकी इच्छा है, मनोरमा हो के विचार अब उनके विचार हैं। उनके राज्य विस्तार के मन्सूबे गायब हो गये। धन से उनको कितना प्रेम था! वह इतनी किफायत से राज्य का प्रबन्ध करना चाहते थे कि थोड़े दिनों में रियासत के पास एक विराट कोप हो जाय। अब वह हौसला नहीं रहा। मनोरमा के हाथों जो कुछ खर्च होता है, वह श्रेय है। अनुराग चित्त की वृत्तियों की कितनी काया-पलट कर सकता है।

अब तक राजा विशालसिंह का जिन स्त्रियों से साबिका पड़ा था, वे ईर्ष्याद्वेष, माया-मोह और राग-रंग में लिप्त थीं। मनोरमा उन सबो से भिन्न थी। उसमें सांसारिकता का लेश भी न था। न उसे वस्त्राभूषणों से प्रेम, न किसी से ईष्या या द्वेष। ऐसा प्रतीत होता था कि वह स्वर्ग लोक की देवी है। परोपकार में उसका ऐसा सच्चा अनुराग था कि पग-पग पर राजा साहब को अपनी लघुता और क्षुद्रता का अनुभव होता था और उस पर उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ होती जाती थी। रियासत के मामलों या निज के व्यवहारों में जब वह कोई ऐसी बात कर बैठते, जिसमें स्वार्थ, और अधिकार के दुरुपयोग या अनम्रता की गन्ध आती हो, तो उन्हें यह जानने में देर न लगती थी कि मनोरमा की भृकुटी चढ़ी हुई है और उसने भोजन नहीं किया। फिर उन्हें उस बात के दुहराने का साहस न होता था। मनोरमा की निर्मल कीर्ति अज्ञात रूप से उन्हें परलोक की ओर खींचे लिये जाती थी। उसके समीप पाते ही उनकी वासना लुप्त और धार्मिक कल्पना सजग हो जाती थी। उसकी बुद्धि प्रतिभा पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता था कि वह जो कुछ करती थी, उन्हें सवोचित और श्रेयस्कर जान पढ़ता था। वह अगर उनके देखते हुए घर में भाग लगा देती, तो भी वह उने निर्दोष ही समझते। उसमें भी उन्हें शुभ और कल्याण ही की सुवर्ण-रेखा दिखायी देती। रियासत [ १८६ ]में असामियों से कर के नाम पर न जाने कितनी बेगार ली जाती थी, वह सब रानी के हुक्म से बन्द कर दी गयी ओर रियासत को लाखों रुपये की क्षति हुई पर राजा साहब ने जरा भी हस्तक्षेप नहीं किया। पहले जिले के हुक्काम रियासत में तशरीफ़ लाते, तो रियासत में खलबली मच जाती थी, कर्मचारी सारे काम छोड़कर हुक्काम को रसद पहुंचाने मे मुस्तैद हो जाते थे। हाकिम को निगाह तिरछी देकर राजा कॉप जाते थे। पर अब किसी को चाहे वह सूबे का लाट ही क्यों न हो, नियमों के विरुद्ध एक कदम रखने की भी हिम्मत न पढ़ती थी। जितनी धांधलियाँ राज्य-प्रथा के नाम पर सदैव से होती पाती थी, वह एक एक करके उठती नाती थीं, पर राजा साहब को कोई शंका न थी।

राजा साहब की चिर संचित पुत्र लालसा भी इसे प्रेम तरङ्ग में मग्न हो गयी। मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान् अभिलाषा भी अर्पित कर दी। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी वस्तु की इच्छा ही न रही। उसके सामने और भी सभी चीजें तुच्छ हो गयीं। एक दिन, केवल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहा था––मुझे अब केवल एक इच्छा और है। ईश्वर मुझे एक पुत्र प्रदान कर देता, तो मेरे सारे मनोरथ पूरे हो जाते। मनोरमा ने उस समय जिन कोमल शब्दों में उन्हें सान्त्वना दी थी, वे अब तक कानों में गूंज रहे थे नाथ, मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है। यश और कीर्ति भी कर्मों हो से प्राप्त होती है। सन्तान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है। बड़ी बड़ी आत्माएँ, जो और सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ, ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं। सुख के मार्ग मे इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। जब इच्छा दुःख का मूल है, तो सबसे बड़े दुख का मूल क्यों न होगी? ये वचन मनोरमा के मुख से निकलकर अमर हो गये थे।

सबसे विचित्र बात यह थी कि राजा साहब की विषय वासना सम्पूर्णतः लोप हो गयी थी। एकान्त में बैठे हुए वह मन में भाँति-भाँति की मृदु कल्पनाएँ किया करते लेकिन मनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर श्रद्धा का अनुराग छा जाता, मानों किसो देव मन्दिर मे आ गये हों। मनोरमा उनका सम्मान करती, उन्हें देखते ही खिल जाती, उनसे मीठी मीठी बातें करती, उन्हें अपने हाथो से स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर खिलाती, उन्हें पंखा झलती। उनकी तृप्ति के लिए वह इतना हो काफी समझती थी। कविता में और सब रस थे, केवल शृंगार रस न था। वह बाँकी चितवन, जो मन को हर लेती है, वह हाव-भाव, जो चित्त को उद्दीप्त कर देता है, यहाँ कहाँ? सागर के स्वच्छ निर्मल जल में तारे नाचते हैं, चाँद थिरकता है, लहरें गाती हैं। वहाँ देवता सन्ध्योपासना करते हैं, देवियाँ स्नान करती है, पर कोई मैले कपड़े नहीं धोता। संगमरमर की जमीन पर थूकने की कुरुचि किस में होगी? आत्मा को स्वयं ऐसे घृणास्पद व्यवहार से संकोच इस भाँति छः महीने गुजर गये। [ १८७ ]प्रभात का समय था। प्रकृति फागुन के शीतल, उल्लासमय समीर-सागर में निमग्न हो रही थी। बाग में नव-विकसित पुष्प, किरणों के सुनहरे हार पहने मुसकरा रहे थे। आम के सुगन्धित नव पल्लवों मे कोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी। और मनोरमा आइने के सामने खड़ी अपनो केश-राशि का जाल सजा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद उसने अपने दिव्य, रत्न-जटित आभूषण निकाले हैं, बहुत दिनों के बाद अपने वस्त्रों में इत्र बसाये हैं। आज उसका एक-एक अंग मनोल्लास से खिला हुया है। आज चक्रधर जेल से छूटकर आयेंगे और वह उनका स्वागत करने जा रही है।

यो बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का परदा उठाया और दवे पाँव अन्दर गयी। मंगला अभी तक पलँग पर पड़ी मीठी-मीठी नींद ले रही थी। उसके लम्बे लम्बे केश तकिये पर बिखरे पड़े थे। दोनों सखियाँ आधी रात तक वातें करती रही थी। जब मंगला ऊँघ ऊँघकर गिरने लगी थी, तो मनोरमा उसे सुलाकर अपने कमरे में चली गयी थी। मंगला अभी तक पड़ी सो रही थी, मनोरमा की पलकें तक न करकी, अपने कल्पना कुञ्ज में विचरते हुए रात काट दी। मंगला को इतनी देर तक सोते देखकर उसने आहिस्ता से पुकारा––मंगला, कब तक सोयेगी? देख तो, कितना दिन चढ़ आया? जब पुकारने से मंगला न जागी, तो उसका कन्धा हिलाकर कहा––क्या दिन-भर सोती ही रहेगी?

मंगला ने पढ़े-पड़े कहा––सोने दो, सोने दो; अभी तो सोई हूँ, फिर सिर पर सवार हो गयीं!

मनोरमा––तो फिर मै जाती हूँ, यह न कहना, मुझे क्यों नहीं लगाया!

मंगला––(आँखे खोलकर) अरे! इतना दिन चढ़ आया। मुझे पहले ही क्यों न जगा दिया?

मनोरमा––जगा तो रही है, जब तेरी नींद टूटे! स्टेशन चलेगी न?

मंगला––मैं! मै स्टेशन कैसे जाऊँगी!

मनोरमा––जैसे मैं जाऊँगी, वैसे ही तू भी चलना। चल कपड़े पहन ले।

मंगला––ना भैया, मैं न जाऊँगी। लोग क्या कहेंगे।

मनोरमा––मुझे जो कहेंगे, वही तुझे भी कहेंगे, मेरी खातिर से सुन लेना।

मंगला-–आपकी बात और है, मेरी बात और आपको कोई नहीं हँसता, मुझे सब हँसेंगे। मगर मैं डरती हूँ, कहीं तुम्हे नजर न लग जाय।

मनोरमा––चल-चल, उठ; बहुत बातें न बना। मैं तुझे खींचकर ले जाऊँगी, मोटर में परदा कर दूंगी। बस, अब राजी हुई?

मंगला––हाँ, यह तो अच्छा उपाय है; लेकिन मैं नहीं जाऊँगी। अम्माजी सुनेंगों तो बहुत नाराज होगी।

मनोरमा––और लो उन्हें भी ले चलूँ, तब तो तुझे कोई आपत्ति न होगी?

मंगला-वह चलें तो में भी चलूं; लेकिन नहीं, वह बड़ी-बूढ़ी हैं, जहाँ चाहें वहाँ [ १८८ ]जाआ सकती हैं । मैं तो लोगों को अपनी पोर घूरते देखकर कट ही जाऊँगी।

मनोरमा-अच्छा, तो पड़ी-पड़ी सो, मैं जाती हूँ। अभी बहुत-सी तैयारियां करनी हैं। मनोरमा अपने कमरे में आयी और मेज पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में श्राकर वह एक कुरसी पर बैठ गये । मनोरमा ने पूछा-रियासत का बैंड तैयार है न ?

हरिसेवक-हाँ, उसे पहले ही हुक्म दिया जा चुका है ।

मनोरमा-जुलूस का प्रबन्ध ठीक है न ? मैं डरती हूँ कहीं भद्द न हो जाय ।

हरिसेवक-प्रबन्ध तो मैंने सब कर दिया है, पर इस विषय में रियासत की अोर से जो उत्साह प्रकट हो रहा है, वह शायद इसके लिए हानिकर हो । रियासतों पर हुक्काम की कितनी कड़ी निगाह होती है, यह आपको खूब मालूम है। मैं पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि आपको इस मामले में खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिए।

मनोरमा--क्या आप समझते हैं कि मैं बिना सोचे विचारे ही कोई काम कर बैठती हूँ? मैंने खूब सोच लिया है, बाबू चक्रधर चोर नहीं, डाकू नहीं, खूनी नहीं, एक सच्चे श्रादमी हैं। उनका स्वागत करने के लिए हुक्काम हमसे बुरा मानते हैं, तो मानें । हमें इसकी कोई परवा नहीं । नाकर सम्पूर्ण दल को तैयार कीजिए ।

हरिसेवक-श्रीमान् राजा साहब की तो राय है कि शहरवालों को जुलुस निकालने दिया जाय, हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।

मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा- राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है । अगर सन्मार्ग पर चलने में रियासत जब्त भी हो जाय, तो भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूँगी । आपको रियासत के विषय में इतना चिन्तित होने की क्या जरूरत ?

दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा-वेटी, मैं तुम्हारे हो भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानतीं जमाना कितना नाजुक है।

मनोरमा उत्तेजित होकर बोली-पिताजी, इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहीत हूँ, लेकिन मेरी श्रात्मा उसे ग्रहण नहीं करती। मैंने सर्प की भाँति धन गशि पर बैठकर उसकी रक्षा करने के लिए यह पद नहीं स्वीकार किया है, बल्कि अपनी आत्मोन्नति और दूसरों के उपकार के लिए ही। अगर-रियासत इन दो में एक काम भी न आये, तो उसका रहना ही व्यर्थ है। अभी ७ बजे हैं । ८ बनते-बनते आपको स्टेशन पहुँच जाना चाहिए । मैं ठीक वक्त पर पहुँच जाऊँगी । जाइये!

दोवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो वह चक्रघर के स्वागत के अवसर पर देना चाहती थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गयी थी कि उसे राबा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तफ खबर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मजबूर न कर [ १८९ ]दिया। कुछ देर तक तो बेचारे खाँसी को दबाते रहे; लेकिा नैसर्गिक क्रियाओं को कौन रोक सकता है? खाँसी दबकर उत्तरोत्तर प्रचण्ड होती जाती थी, यहाँ तक कि अन्त में वह वह निकल ही पढ़ी-कुछ छींक थी, कुछ खाँसी और कुछ इन दोनों का सम्मिश्रण, मानो कोई बन्दर गुर्रा रहा हो। मनोरमा ने चौंककर ऑखें उठायीं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम विह्वल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली––क्षमा कीजियेगा, मुझे आपको आहट ही न मिली। क्या आप देर से बैठे हैं?

राजा––नही तो, अभी-अभी आया हूँ। तुम लिख रही थीं। मैंने छेड़ना उचित न समझा।

मनोरमा––आपकी खॉसी बढ़ती हो जाती है, और आप इसकी कुछ दवा नहीं करते। राजा––आप ही आप अच्छी हो जायगी। बाबू चक्रधर तो १० बजे की डाक से आ रहे हैं न? उनके स्वागत की तैयारियां पूरी हो गयीं?

मनोरमा––जी हाँ, बहुत कुछ पूरी हो गयी है।

राजा––मैं चाहता हूँ, जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि कम-से-कम इस शहर के इतिहास में अमर हो जाय।

मनोरमा––यही तो मैं भी चाहती हूँ।

राजा––मैं सैनिकों के आगे फौजी वर्दी में रहना चाहता हूँ।

मनोरमा ने चिन्तित होकर कहा––आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहीं उनका स्वागत कीजियेगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह तो करना ही पड़ेगा। सरकार यों भी हम लोगों पर सन्देह करती है, तब तो वह सत्त बाँधकर हमारे पीछे पड़ जायगी।

राजा––कोई चिन्ता नहीं। संसार में सभी प्राणी राजा ही तो नहीं हैं। शान्ति राज्य में नहीं, सन्तोष में है। अवश्य चलूँगा, अगर रियासत ऐसे महात्माओं के दर्शन में बाधक होती है, तो उससे इस्तीफा दे देना ही अच्छा।

मनोरमा ने राजा की ओर बड़ी करुण दृष्टि से देखकर कहा––यह ठीक है; लेकिन जब मैं जा रही हूँ, तो आपके जाने की जरूरत नहीं।

राजा––खैर न जाऊँगा; लेकिन यहाँ मैं अपनी जवान को न रोगा। उनके गुजारे की भी तो कुछ फिक्र करनी होगी।

मनोरमा––मुझे भय है कि वह कुछ लेना स्वीकार न करेंगे। बड़े त्यागी पुरुष है।

राजा––यह तो मैं जानता हूँ। उनके त्याग का क्या कहना! चाहते तो अच्छी नौकरी करके आराम से रहते; पर दूसरों के उपकार के लिए प्राणों को हवेली पर-लिये रहते हैं। उन्हें धन्य है! लेकिन उनका किसी तरह गुजर-बसर तो होना ही चाहिए। तुम्हें संकोच होता हो, तो मैं कह दूँ।

मनोरमा––नहीं, आप न कहिएगा, मैं ही कहूँगी। मान लें, तो है।

राजा––मेरी और उनकी तो बहुत पुरानी मुलाकात है। मैं भी उनकी समिति का मेम्बर था। अब फिर नाम लिखाऊँगा। कितने रुपए तुम्हारे विचार में काफी होंगे? रकम ऐसी होनी चाहिए, जिसमें उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाये। [ १९० ]मनोरमा––मैं तो समझती हूँ, ५०) बहुत होंगे। उन्हें और जरूरत ही क्या है!

राजा––नहीं जी, उनके लिए एक दस रुपए काफी है। ५०) की थैली लेकर भला यह क्या करेंगे। तुम्हें कहते शर्म न पायी? ५०) मे आजकल रोटियाँ भी नहीं चल सकतीं, और बातों का तो जिक्र ही क्या। एक भले आदमी के निर्वाह के लिए इस जमाने में ५००) से कम नहीं खर्च होते।

मनोरमा––पाँच सौ। कभी न लेंगे। ५०) ही ले लें, मैं इसी को गनीमत समझती हूँ। पाँच सौ का तो नाम हो सुनकर वह भाग खड़े होंगे।

राजा––हमारा जो धर्म है, वह हम कर देंगे, लेने या न लेने का उनको अख्तियार है। मनोरमा फिर लिखने लगी, और यह राजा साहब को वहाँ से चले जाने का समेत था, पर राजा साहब ज्यों के त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख-कमल का माधुर्यरसपान कर रही थी। उसकी बाँकी अदा आज उनकी आँखों में खुबी जाती थी। मनोरमा का शृङ्गार-रूप आज तक उन्होंने न देखा था। इस समय उनके हृदय में जो गुदगुदी हो रही थी, वह उन्हें कभी न हुई थी। दिल थाम थामकर रह जाते थे। मन में बार बार एक प्रश्न उठता था; पर जल में उछलनेवाली मछलियों की भाँति पिर मन में विलीन हो जाता था। प्रश्न था इसका वास्तविक स्वरूप यह है या वह?

सहसा घड़ी में ६ बजे। मनोरमा कुरसी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी किसी वृक्ष की छाया में विश्राम करनेवाले पथिक की भाँति उठे और धीरे धीरे द्वार की भोर चले। द्वार पर पहुँचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले––मै भी चलूँ, तो क्या हरज?

मनोरमा ने करुण-कोमल नेत्रों से देखकर कहा––अच्छी बात है, चलिए, लेकिन पिताजी के पास किसी अच्छे डाक्टर को बिठाते जाइएगा, नहीं तो शायद उनके प्राण न बचें।

राजा––दीवान साहब रियासत के सच्चे शुभचिन्तक हैं।