कायाकल्प/२४

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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२४

रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने की जगह न थी। अन्दर का चबूतरा और बाहर का सहन सब आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग-बिरंग की वर्दियाँ पहने हुए, और सेवा समितियों के सेवक, रंग-बिरंग की झण्डियाँ लिये हुए। मनोरमा नगर की कई महिलाओं के साथ अञ्चल में फूल भरे सेवकों के बीच में खड़ी थी। उसका एक एक अंग आनंद से पुलकित हो रहा था। बरामदे में राजा विशालसिंह, उनके मुख्य कर्मचारी चौर शहर के रईस और नेता जमा थे। मुशी वज्रधर इधर उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते-फिरते थे। कोई घबराहट की बात नहीं, कोई तमाशा नहीं, वह भी तुम्हारे ही जैसा दो हाय और दो पैर का आदमी है। आयेगा, अब देख लेना, धक्कमधक्का करने की जरूरत नहीं। दीवान हरिसेवकसिंह सशंक नेत्रों से सरकारी सिपाहियों को देख रहे थे और बार-बार [ १९१ ]राजा साहब के कान में कुछ कहते थे; अनिष्ट भय से उनके प्राण सूखे हुए थे । स्टेशन के वाहर हाथी, घोड़े, वग्घियॉ, मोटर पैर जमाये खड़ी थी। जगदीशपुर का बंड बड़े मनोहर स्वरों में विजय गान कर रहा था । बार-बार सहयो कठों से हर्प-ध्वनि निकलती थो, जिससे स्टेशन की दीवार हिल जाती थीं। थोड़ी देर क लिए लोग व्यक्तिगत चिन्तायो अोर कठिनाइयों को भूलकर राष्ट्रीयता के नशे में झूम रहे थे।

ठोक दस बजे गाड़ी दूर से धुवाँ उड़ाती हुई दिखाई दो। अब तक लोग अपनी जगह पर कायदे के साथ खड़े थे; लेकिन गाड़ी के पाते ही सारी व्यवस्था हवा हो गयी। 'पोछेवाले श्रागे या पहुंचे, अागेवाले पीछे पड़ गये, झण्डियाँ रक्षास्त्र का काम करने लगों और फूलो की टोकरियाँ ढालो का । मुशी वज्रधर बहुत चीखे चिल्लाये, लेकिन कौन सुनता है । हाँ, मनोरमा के सामने मैदान साफ था । दीवान साहब ने तुरन्त सैनिको को उसके सामने से भीड़ हटाते रहने के लिए बुला लिया था। गाड़ी पाकर रुकी और चक्रधर उतर पढे । मनोरमा भी अनुराग से उन्मत्त होकर चली; लेकिन तीन-चार पग चली थी कि एक बात ध्यान में पायी। ठिठक गयी और एक स्त्री की प्राड़ से चक्रघर को देखा, एक रक्त-हीन, मलीन-मुख, क्षीण-मूर्ति सिर झुकाये खड़ी थी, मानो जमीन पर पैर रखते डर रहो है कि कहीं गिर न पड़े। मनोरमा का हृदय मसोस उठा, आँखों से नाँसुओं की धारा बहने लगी, अञ्चल के फूल अञ्चल ही में रह गये । उधर चक्रघर पर फूलों की वर्षा हो रही थी, इधर मनोरमा की आँखो से मोतियों की । सेवा-समिति का मगल गान समाप्त हुया, तो राजा साहब ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की ओर से उनका स्वागत किया । सब लोग उनसे गले मिले और जुलूस सजाया जाने लगा । मुशी वज्रधर जुलूस के प्रबन्ध में इतने व्यस्त थे कि चक्रधर की उन्हे सुघि ही न थी । चक्रधर स्टेशन के बाहर पाये और यह तैयारियाँ देखीं, तो बोले -ग्राप लोग मेरा इतना सम्मान करके मुझे लजित कर रहे हैं । राष्ट्रीय सम्मान किसी महान् राष्ट्रीय उद्योग का पुरस्कार होना चाहिए। मैं इसके सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझे सम्मानित करके आप लोग सम्मान का महत्व खो रहे हैं ! मुझ जैसों के लिए इस धूम-धाम की नरूरत नहीं। मुझे तमाशा न बनाइये।

सयोग से मुशोजी वहाँ खड़े थे । ये बातें सुनी, तो बिगड़कर बोले--तमाशा नदी बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने का क्यों तैयार हुए थे? लोग दस पाँच हजार खर्च करके जन्म भर के लिए राय बहादुर' और 'सॉ बहादुर' हो जाते हैं। तुम दूसरों के लिए इतनो मुसीबतें झेलकर यह सम्मान पा रहे हो, तो इसमें मरने को क्या बात है, भला! देखता तो हूँ कि कोई एक छोटा-मोटा व्याख्यान दे देता है, तो पनो में देसता है कि मेरी तारीफ हो रही है या नहीं। अगर दुर्भाग्य से कही सम्पादक ने उसकी प्रशसा न को, तो जामे से बाहर हो जाता है, और तुम दम पाँच हाथी-घोड़े देखकर घरमा गये । श्रादमो को जत प्ररने हाय है । तुम्हीं अमनो इज्जत न करोगे, ता दूसरे क्या करने लगे। श्रादमी कोई काम करता है, तो सए के लिए या नाम लिए । [ १९२ ]अगर दो में से एक भी हाथ न पाये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।

यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर का रक्त हीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया। यह सोचकर शरमाये कि ये लोग अपने मन में पिताजी को हँसी उड़ा रहे होंगे। और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की दुकड़ी पर आ बैठे। जुलूस चला। आगे-आगे पाँच हाथी थे, जिन पर नौबत बज रही थी। उनके पीछे कोतल घोड़ों की लम्बी कतार थी, जिन पर बैंड का दल था। बैंड के पीछे जगदीशपुर के सैनिक चार-चार की कतार में कदम मिलाये चल रहे थे। फिर क्रम से आर्य महिला-मंडल, खिलाफत, सेवा-समिति और स्काउटों के दल थे। उनके पीछे चक्रधर की जोड़ी थी, जिसमें राजा साहब मनोरमा के साथ बैठे हुए थे। इसके बाद तरह तरह की चौकियाँ थीं, जिनके द्वारा राजनैतिक समस्याओं का चित्रण किया गया था। फिर भाँति-भाँति की गायन मंडलियाँ थी, जिनमें कोई ढोल मजीरे पर राजनैतिक गीत गाती थीं, कोई डण्डे बजा-बजाकर राष्ट्रीय 'हर गंगा' सुना रही थीं, और दो चार सजन 'चने जोर गरम और चूरन अमलवेत' की वाणियों का पाठ कर रहे थे। सबके पीछे बग्घियों, मोटरों और बसों की कतारें थीं। अन्त में जनता का समूह था।

जलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुया दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुंचा। यहाँ मुंशीजी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना तना हुआ था। निश्चय हुआ था कि यहीं सभा हो और चक्रधर को अभिनन्दन पत्र दिया जाय। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनानेवाली थी, लेकिन जब लोग आ आकर पडाल में बैठे और मनोरमा अभिनन्दन पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुंह से एक शब्द न निकला। आज एक सप्ताह से उसने जी तोड़कर स्वागत की तैयारियाँ की थीं, दिन को दिन और रात को रात न समझा था, रियासत के कर्मचारी दौड़ते दौड़ते तंग आ गये थे। काशी-जैसे उत्साह-हीन नगर में ऐसे जुलूस का प्रबन्ध करना आसान काम न था। विशेष करके चौकियों और गायन मण्डलियों की आयोजना करने में उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े थे और कई मण्डलियों को दूसरे शहरों से बुलाना पड़ा था! उसकी श्रमशीलता और उत्साह देख देखकर लोगों को आश्चर्य होता था, लेकिन जब वह शुभ-अवसर पाया कि वह अपनी दौड़-धूप का मनमाना पुरस्कार ले, तो उसकी वाणी धोखा दे गयी। फिटन में वह चक्रधर के सम्मुख बैठी थी। राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बातें करते रहे, पर मनोरमा वहाँ भी चुप ही रही। चक्रधर ने उसकी आशा के प्रतिकूल उससे कुछ न पूछा। यह अगर उसका तिरस्कार नहीं तो क्या था? हाँ, यह मेरा तिरस्कार है। यह समझते हैं, मैंने विलास के लिए विवाह किया है। इन्हे कैसे अपने मन की व्यथा समझाऊँ कि यह विवाह नहीं, प्रेम को बलि-वेदी है।

मनोरमा को असमंजस में देखकर राना साहब ऊपर आ खड़े हुए और उसे धीरे से कुरसी पर बिठाकर बोले––सज्जनों, रानीजी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरी बातों में कहाँ! कोयल के स्थान पर कौआ खड़ा हो गया है, शहनाई को जगह [ १९३ ]नृसिंह ने ले ली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं। अपने गुरु का सम्मान करना शिष्य का धर्म है; किन्तु रानी साहबा का कोमल हृदय इस समय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए जगह ही नहीं रही। इसके लिए वह क्षम्य हैं। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दोनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही है। जेल में भी नापने निकिता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म और जाति प्रेम को उपासना है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।

एक सज्जन ने टोका––आप ही ने तो उन्हें सजा दिलायी थी?

राजा––हॉ, मैं इसे स्वीकार करता हूँ। राज्य के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है, जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।

राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पण्डाल से निकल पायी और मोटर पर बैठकर राज्य भवन चली गयी। रास्ते भर वह रोती रही। उसका मन चक्रधर से एकान्त मैं बातें करने के लिए विकल हो रहा था। वह उन्हे समझाना चाहती थी कि मैं तिरस्कार योग्य नही, दया के योग्य हूँ। तुम मुझे विलासिनी समझ रहे हो, यह तुम्हारा अन्याय है। और किस प्रकार में तुम्हारी सेवा करती? मुझमे बुद्धि बल न था; धन बल न था, विद्या-बल न था, केवल रूप-चल था, और वह मैंने तुम्हें अर्पण कर दिया। फिर भी तुम मेरा तिरस्कार करते हो!

मनोरमा ने दिन तो किसी तरह काटा, पर शाम को वह अधीर हो गयी। तुरंत चक्रधर के मकान पर जा पहुँची। देखा, तो वह अकेले द्वार पर टहल रहे थे। शामियाना उखाड़ लिया गया था। कुरसियाँ, मेजें, दरिया, गमले, सब वापस किये जा चुके थे। मिलनेवालो का तांता टूट चुका था। मनोरमा को इस समय बड़ी लजा आयी। न-जाने यह अपने मन में पया समझ रहे होंगे। अगर छिपकर लौटना सम्भव होता, तो वह अवश्य लौट पड़ती। मुझे अभी न पाना चाहिए था। दो चार दिन में मुलाकात हो ही जाती। नाहक इतनी जल्दी की; पर अब पछताने से क्या होता था? चक्रधर ने उसे देख लिया योर समीप आकर प्रसन्न भाव से बोले––मै तो स्वयं आपकी सेवा में आनेवाला था। आपने व्यर्थ कट किया।

मनोरमा––मैने सोचा, चलकर देख लूँ यहाँ का सामान भेज दिया गया है या नहीं? आइये, सैर कर आयें। अकेले जाने का जी नही चाहता। आप बहुत दुबले हो रहे हैं। कोई शिकायत तो नहीं है न?

चक्रधर––नहीं, मैं बिलकुल अच्छा हूँ, कोई शिकायत नही है। जेल में कोई कष्ट न था, बल्कि सच पूछिए तो मुझे वहाँ बहुत आराम था। मुझे अपनी कोटरी से इतना प्रेम हो गया था कि उसे छोड़ते हुए दुःख होता था। आपकी तबीयत अब कैसी है ? [ १९५ ]पड़ता है, जिसके बगैर राजनीतिक सफलता हो ही नहीं सकती। मैं उस गलती में न पढ़ूँगा।

मनोरमा––आप बहाने बता कर मुझे टालना चाहते हैं, नहीं तो मोटर पर तो आदमी रोजाना एक सौ मील आ-जा सकता है। कोई मुश्किल बात नहीं।

चक्रधर––उड़न-खटोले पर बैठकर संगठन नहीं किया जा सकता। जरूरत है जनता में जागृति फैलाने की, उनमे उत्साह और आत्मबल का संचार करने की। चलती गाड़ी से यह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता।

मनोरमा––अच्छा, तो मै आपके साथ देहातों में घूमूँगी। इसमें तो आपको आपत्ति नहीं है?

चक्रधर––नहीं मनोरमा, तुम्हारा कोमल शरीर उन कठिनाइयों को न सह सकेगा। तुम्हारे हाथ में ईश्वर ने एक बड़ी रियासत की बागडोर दे दी है। तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि अपनी प्रजा को सुखी और सन्तुष्ट रखने की चेष्टा करो। यह छोटा काम नहीं है।

मनोरमा––मैं अकेली कुछ न कर सकेंगी। आपके इशारे पर सब कुछ कर सकती हूँ। आपसे अलग रहकर मेरे किये कुछ भी न होगा! कम-से-कम आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने कामों में मुझसे धन की सहायता लेते रहें। ज्यादा तो नहीं, पॉच हजार रुपए में प्रति मास आपकी भेंट कर सकती हूँ, आप जैसे चाहे उसका उपयोग करें। मेरे सन्तोष के लिए इतना ही काफी है कि वे आपके हाथों खर्च हों। मैं कीर्ति की भूखी नहीं। केवल आपकी सेवा करना चाहती हूँ। इससे मुझे वंचित न कीजिये। आप में न जाने वह कौन सी शक्ति है, जिसने मुझे वशीभूत कर लिया है। मैं न कुछ सोच सकती हूँ, न समझ सकती हूँ, केवल आपकी अनुगामिनी बन सकती हूँ।

यह कहते कहते मनोरमा को आँखें सजल हो गयीं। उसने मुँह फेरकर आँसू पोछ डाले और फिर बोली––पाप मुझे दिल में जो चाहें, समझे; मै इस समय आपसे सब कुछ कह दूंगी। मैं हृदय मे आप हो की उपासना करती हूँ। मेरा मन क्या चाहता है, यह मैं स्वयं नहीं जानती; अगर कुछ-कुछ जानती भी हूँ तो कह नहीं सकती। हाँ, इतना कह सकती हूँ कि जब मैने देखा कि आपको परोपकार-कामनाएँ धन के बिना निष्फल हुई जाती है, जो कि आपके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, तो मैंने उसी बाधा को हटाने के लिए यह बेड़ी अपने पैरों में डाली। मैं जो कुछ कह रही हूँ, इसका एक-एक अन्तर सत्य है। मैं यह नहीं कहती कि मुझे धन से घृणा है। नहीं, मैं दरिद्रता को संसार की विपत्तियों में सबसे दुःखदायी समझती हूँ। लेकिन मेरी सुख लालसा किसी भले घर में शान्त हो सकती थी। उसके लिए मुझे जगदीशपुर की रानी बनने की जरूरत न थी। मैंने केवल आपकी इच्छा के सामने सिर मुकाया है, और मेरे जीवन को सफल करना अब आपके हाथ है।

चक्रधर ये बातें सुनकर मर्माहत-से हो गये। उफ! यहाँ तक नौबत पहुँच गयी! [ १९६ ]मैंने इसका सर्वनाश कर दिया! हा विधि! तेरी लीला कितनी विषम है! वह इसलिए उससे दूर भागे थे कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के काँटों में घसीटना न चाहते थे। उन्होंने समझा था, उनके हट जाने से मनोरमा उन्हें भूल जायगी और अपने इच्छानुकूल विवाह करके सुख से जीवन व्यतीत करेगी।

उन्हें क्या मालूम था कि उनके हट जाने का यह भीषण परिणाम होगा और वह राजा विशालसिंह के हाथों में जा पड़ेगी। उन्हें वह बात याद पायी, वो एक बार उन्होंने विनोद भाव से कही थी––तुम रानी होकर मुझे भूल जाओगी। उसका जो उत्तर मनोरमा ने दिया था, उसे याद करके चक्रधर एक बार काँप उठे। उन शब्दों में इतना दृढ़ सकल्प था! इसकी वह उस समय कल्पना भी न कर सकते थे। चक्रधर मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए। उनके हृदय में एक साथ ही करुणा, भक्ति, विस्मय और शोक के भाव उत्पन्न हो गये। प्रबल उत्कण्ठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर सिर रख दें और रोयें। वह अपने को धिक्कारने लगे। मनोरमा को इस दशा में लाने का, उसके जीवन की अभिलाषाओं को नष्ट करने का भार उनके सिवा और किस पर था।

सहसा मनोरमा ने फिर कहा––आप मन मे मेरा तिरस्कार तो नहीं कर रहे हैं?

चक्रधर लज्जित होकर बोले––नही मनोरमा, तुमने मेरे हित के लिए जो त्याग किया है, उसका दुनिया चाहे तिरस्कार करे, मेरी दृष्टि में तो वह आत्म-बलिदान से कम नहीं; लेकिन क्षमा करना, तुमने पात्र का विचार नहीं किया। तुमने कुत्ते के गले में मोतियों की माला डाल दी। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अभी तुमने मेरा असली रूप नहीं देखा। देखकर शायद घृणा करने लगो! तुमने मेरा जीवन सफल करने के लिए अपने ऊपर जो अन्याय किया है, उसका अनुमान करके ही मेरा मस्तिष्क चक्कर खान लगता है। इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मेरा जीवन नष्ट हो जाता, मेरे सारे मंसूबे धूल में मिल जाते। मुझ जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करना चाहिए था। अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने व्रत पर हद रहने की शक्ति प्रदान करें। वह अवसर कभी न आये कि तुम्हें अपने इस विश्वास और असाधारण त्याग पर पछताना पड़े। अगर वह अवसर आना तो मैं वह दिन देखने के लिए जीवित न रहँ। तुमसे भी मैं एक अनुरोध कर क्षमा चाहता हूँ। तुमने अपनी इच्छा से त्याग का जीवन स्वीकार किया है। ३० आदेश का सदैव पालन करना। राजा साहब के प्रति एक पल के लिए भी तुम्हारे मन में अश्रद्धा का भाव न पाने आये। अगर ऐसा हुआ, तो तुम्हारा यह निष्फल हो जायगा।

मनोरमा कुछ देर तक मौन रहने के बाद बोली––बाबूजी, तुम्हारा हृदय भी कठोर है।

चक्रधर ने विस्मित होकर मनोरमा की ओर देखा, मानो इसका आशय समझ में न आया हो।