कायाकल्प/२८

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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२८

ठाकुर गुरुसेवकसिंह जगदीशपुर के नाजिम हो गये थे। इस इलाके का सारा प्रबन्ध उनके हाथ में था। तीनों पहली रानियाँ वहीं राजभवन में रहती थीं। उनकी देखमाल करते रहना, उनके लिए जरूरी चीजों का प्रबन्ध करना भी नाजिम का काम था। यह कहिए कि मुख्य काम यही था। नजामत तो केवल नाम का पद था। पहिले यह पद न था। राजा साहब ने रानियों को आराम से रखने के लिए इस नये पद की सृष्टि की थी। ठाकुर साहब जगदीशपुर में राजा साहब के प्रतिनिधि स्वरूप थे।

तीनों रानियों में अब वैर विरोध कम होता था। अब हर एक को अख्तियार था जितने नौकर चाहें रखें, जितना चाहें खर्च करें, जितने गहने चाहें बनवायें, जितने धर्मोत्सव चाहें मनायें, फिर कलह होता ही क्यों। यदि राजा साहब किसी एक नारी पर विशेष प्रेम रखते और अन्य रानियों की परवा न करते, तो ईर्ष्यावश लड़ाई होती, पर राजा साहब ने जगदीशपुर में आने की कसम-सी खा ली थी। फिर किस बात पर लड़ाई होती?

ठाकुर साहब ने दीवानखाने में अपना दफ्तर बना लिया था। जब कोई जरूरत होती, तुरन्त रनिवास में पहुँच जाते। रानियाँ उनसे परदा तो करती थीं, पर परदे की ओट से बातचीत कर लेती थीं। रानी वसुमती इस ओट को भी अनावश्यक समझती थीं। कहतीं—जब बातें ही कीं, तो परदा कैसा? ओट क्यों, गुड़ खाय गुलगुले से परहेज! उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था। सारा समय भगवत्-पूजन और भजन में काटती थीं। हाँ, आभूषणों से अभी उनका जी न भरा था। और अन्य स्त्रियों की [ २१५ ] भाँति वह गहने बनवाकर जमा न करती थी, उनका नित्य ब्योहार करती थीं। रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गयी थी, माँग-चोटी की भी परवा न करती! यहाँ तक कि उसने माँग में सेन्दूर डालना छोड़ दिया था। कहती, मुझमें और विधवा में क्या अन्तर है, बल्कि विधवा हमसे हजार दर्जे अच्छी, उसे एक यही रोना है कि पुरुष नहीं। जलन तो नहीं! यहाँ तो जिन्दगी रोने और कुढ़ने में ही कट रही है। मेरे लिए पति का होना न होना दोनों बराबर है, सोहाग लेकर चाटूँ। रही रानी रामप्रिया, उनका विद्या व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भाँति-भाँति के बाजे मँगाती रहती थी। ठाकुर साहब को भी गाने का कुछ शौक था या अब हो गया हो। किसी न किसी तरह समय निकालकर जा बैठते और उठने का नाम न लेते। रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते। रामप्रिया उनके लिए स्वयं थाली परस लाती थी। ठाकुर साहब की जो इतनी खातिर होने लगी, तो मिजाज आसमान पर चढ गया। नये नये स्वप्न देखने लगे। समझे, सौभाग्य सूर्य उदय हो गया। नौकरी पर अब ज्यादा रोब जमाने लगे। सोकर देर मे उठते और इलाके का दौरा भी बहुत कम करते। ऐसा जान पड़ता था, मानों इस इलाके के राजा वही हैं। दिनोदिन यह विश्वास होता जाता था कि रामप्रिया मेरे नयन-बाणो का शिकार हो गयी है, उसके हृदय-पट पर मेरी तसवीर खिंच गयी है। रोज कोई न कोई ऐसा प्रमाण मिल जाता था, जिससे यह भावना और भी दृढ हो जाती थी।

एक दिन आपने रामप्रिया की प्रेम-परीक्षा लेने की ठानी। कमरे में लिहाफ ओढ़कर पड़ रहे। रामप्रिया ने किसी काम के लिए बुलाया तो कहला भेजा, मुझे रात से जोरों का बुखार है, मारे दर्द के सिर फटा पड़ता है। रामप्रिया यह सुनते ही दीवानखाने में आ पहुँची और उनके सिर पर हाथ रखकर देखा, माथा ठण्ढा था। नाड़ी भी ठीक चल रही थी। समझी, कुछ सिर भारी हो गया होगा. कुछ परवाह न की। हाँ, अन्दर जाकर कोई तेल सिर में लगाने को भेजवा दिया।

ठाकुर साहब को इस परीक्षा से सन्तोष न हुआ। उसे प्रेम है, यह तो सिद्ध था, नहीं तो वह देखने दोड़ी पाती ही क्यों; लेकिन प्रेम कितना है, इसका कुछ अनुमान न हुआ। कहीं वह केवल शिष्टाचार के अंतर्गत न हो। वह केवल शिष्टाचार कर रही हो, और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ। रामप्रिया के अधरों पर, नेत्रों में, बातो मे तो उन्हें प्रेम की झलक नजर आती थी; पर डरते थे कि मुझे भ्रम न हो। अबकी उन्होंने कड़ी परीक्षा लेने की ठानी। क्वार का महीना या। धूप तेज होती थी। मलेरिया फैला हुआ था। आप एक दिन दिन-भर पैदल खेतों में घूमते रहे, कई बार तालाब का पानी भी पिया। ज्वर का पूरा सामान करके आप घर लौटे। नतीजा उनके इच्छानुकूल ही हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल उन्हे ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक झक करने लगे। मारे दर्द के सिर फटने लगा। सारी देह टूट रही थी सिर में चक्कर आ रहा था। अब तो बेचारे को लेने के देने पड़े। प्रेम की [ २१६ ] परीक्षा होने लगी और इसमें वह कच्चे निकले! कभी-रोते कि बाबूजी को बुला दो। कभी कहते स्त्री को बुला दो। इतना चीखे चिल्लाये कि नौकरों का नाकोदम हो गया। रामप्रिया ने पाकर देखा, तो होश उड़ गये। देह तवा हो रही थी ओर नाड़ी घोड़े की भाँति सरपट दौड़ रही थी। वेचारी घबरा उठो । तुरन्त डाक्टर को लाने के लिए श्रादमी को शहर दौड़ाया और श्राप ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पखा झलने लगी। द्वार पर चिक डाल दी और एक आदमी को द्वार पर बिठा दिया कि किसी अपरिचित मनुष्य को अन्दर न जाने दे । ठाकुर साहब को सुधि होती और रामप्रिया की विकलता देखते, तो फूले न समाते; पर वहाँ तो जान के लाले पड़े हुए थे।

एक सप्ताह तक गुरुसेवक का ज्वर न उतरा। डाक्टर रोज पाते और देख-भालकर चले जाते। कोई दवा देने की हिम्मत न पड़ती। रामप्रिया को सोना और खाना हराम हो गया। दिन के दिन और रात-की-रात रोगी के पास बैठी रहती। पानी पिलाना होता, तो खुद पिलाती, सिर में तेल डालना होता, तो खुद डालती, पथ्य देना होता, तो खुद बनाकर देती। किसी नौकर पर उसे विश्वास न था।

अब लोगों को चिन्ता होने लगी। रोगी को यहाँ से उठाकर ले जाने में जोखिम था। सारा परिवार यहीं आ पहुँचा। हरिसेवक ने बेटे की सूरत देखी, तो रो पड़े। देह सूखकर काँटा हो गयी थी। पहचानना कठिन था। राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते, पर इस तरह भागते, मानो किसी शत्रु के घर आये हों। रामप्रिया तो रोगी की सेवा सुश्रूषा में लगी रहतो, उसे इसकी परवा न थी कि कौन आता है और कौन जाता है, लेकिन रोहिणी को राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उनपर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूँढती रहती थीं, पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा-यहाँ आप लोगों का जीवन बड़ी शान्ति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक न एक झंझट सिर पर सवार रहता है। कभी इनकी दावत करो, कभी उनकी दावत में जाओ, आज क्लब में जलसा है, आज अमुक विद्वान का व्याख्यान है। नाकोंदम रहता है।

रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली-हाँ बहन, क्यों न हो। ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनी के लिए सत्त में भी बाधा। किसी को भोग, किसी को जोग, यह पुराना दस्तूर चला आता है, तुम क्या करोगी?

मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा-अगर तुम्हें वहाँ सुख ही सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? क्या तुम्हें किसी ने मना किया है? अकेले मेरा जी भी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जायगा।

रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली-भला, मुझमें वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किये रहूँ, उधर हाकिमों को मिलाये रखूँ। यह तो कुछ लिखो-पढ़ी, [ २१७ ] शहरवालियों को ही आता है, हम गँवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें। यहाँ तो एक ही की होकर रहना जानती हैं।

मनोरमा खड़ी सन्न रह गयी। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गयी। ऐसी भीषण मर्म-वेदना हुई, मानो किसी ने सइस शूलोंवाला भाला उसके कलेजे में चुभो दिया हो। संज्ञाशून्य सी हो गयी। आँखें खुली थीं, पर कुछ दिखायी न देता था; कानों में कोई आवाज न आती थी, इसका ज्ञान ही न रहा कि कहाँ आयी हूँ, क्या कर रही हूँ; रात है या दिन? वह दस-बारह मिनट तक इसी भाँति स्तम्भित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो बुला भेजा। लौडी ने आकर मनोरमा से सन्देशा कहा; पर मनोरमा ने सुना ही नहीं। लौडो ने एक मिनट के बाद फिर कहा-फिर भी मनोरमा ने कोई उत्तर न दिया। तब लौंडी चली गयी। उसे तीसरी बार कुछ कहने का साहस न हुआ। राजा साहब ने दो मिनट और इन्तजार किया। तब स्वयं अन्दर आये, तो देखा कि मनोरमा चुपचाप मूर्ति को भाँति खड़ी है। दूर ही से पुकारा-नोरा, क्या कर रही हो? चलो, देर हो रही है. सात बजे लेडी काक ने आने का वादा किया है, और छः यहीं बज गये। मनोरमा ने इसका भी कुछ जवाव न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर उसका हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौक पड़े। वह सर्प-दंशित मनुष्य की भाँति निर्निमेप नेत्रों से दीवार की ओर टक-टकी लगाये ताक रही थी, मानों आँखो की राह प्राण निकल रहे हो।

राजा साहब ने घबराकर पूछा-नोरा, कैसी तबीयत है?

अब मनारमा को होश आया। उसने राजा साहब के कन्धे पर सिर रख दिया और इस तरह फूट-फूटकर रोने लगी, मानो पानी का बाँध टूट गया हो। यह पहला अवसर था कि राजा साहब ने मनोरमा को रोते देखा। व्यग्र होकर बोले-यात क्या है मनोरमा, किसी ने कुछ कहा है? इस घर में किसकी ऐसी मजाल है कि तुम्हारी ओर टेढ़ी निगाह से भी देख सके? उसका खून पी जाऊँ। बतायो, किसने क्या कहा है? तुमने कुछ कहा है, रोहिणी? साफ-साफ बता दो।

रोहिणी पहले तो मनोरमा की दशा देखकर सहम उठी थी; पर राजा साहब के खून पी जाने की धमकी ने उसे उत्तेजित कर दिया। जी मे तो आया, कह दूँ, हाँ, मैने ही कहा है, और जो बात यथार्थ थी, वही कही है, जो कुछ करना हो, कर लो, खून पी के यों न खड़े रहोगे। लेकिन राजा साहब का विकराल रौद्र रूप देखकर बोली-उन्ही से क्यों नहीं पूछते? मेरी बात का विश्वास ही क्या?

राजा-नहीं, मैं तुमसे पूछता हूँ!

रोहिणी-उनसे पूछते क्या डर लगता है?

मनोरमा ने सिसकते हुए कहा-अब मैं यहीं रहूँगी; आप जाइए। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजिएगा। [ २१८ ]राजा साहब ने अवीर होकर पूछा-आखिर बात क्या है, कुछ मालुम भी तो हो ? मनोरमा-बात कुछ भी नहीं है । मै अब यहीं रहूँगी । आप जायँ ।

राजा-मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता, अकेले में एक दिन भी जिन्दा नहीं रह सकता।

मनोरमा-मैने तो निश्चय कर लिया है कि इस घर से बाहर न जाऊँगी।

राजा साहब समझ गये कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यग्य-शर चलाया है । उसकी अोर लाल ऑखें करके बोले- तुम्हारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो । वहाँ भी शान्त नहीं रहने देतीं । मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है, वोलता हूँ; जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता । तुम्हें इसको जलन क्यों होती है ?

रोहिणी-जलन होगी मेरी वला को। तुम यहाँ ही थे, तो कौन सी फूलों की सेन पर सुला दिया था। यहाँ तो 'जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश ।' भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।

राजा-अभी तो नहीं रोयी, मगर शौक है तो रोयोगी ।

रोहिणी-तो इस भरोसे भी न रहिएगा। यहाँ ऐसी रोनेवाली नही हूँ कि सेत-मंत आँखे फोडूं। पहले दूसरे को रुलाकर तब रोऊँगी ।

राजा साहब ने दॉत पीसकर कहा-शर्म और हया छ नहीं गयी। कुहिनों को भी मात कर दिया।

रोहिणी-शर्म और हयावाली तो एक वह है, जिन्हें छाती से लगाये खड़े हो, हम गँवारिने भला शर्म और हया क्या जाने ?

राजा साहब ने जमीन पर पैर पटककर कहा-उसकी चर्चा न करो। इतना बत- लाये देता हूँ। तुम एक लाख जन्म लो, तब भी उसको नहीं पा सकती। भूलकर भी उसकी चर्चा मत करो।

रोहिणी-तुम तो ऐसी डाँट बता रहे हो, मानों में कोई लौंडी हूँ। क्यों न उसकी चर्चा करूँ ? वह सीता और सावित्री होगी, तो तुम्हारे लिए होगी, यहाँ क्यों परदा डालने लगीं । जो वात देखू गो-सुनू गी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा।

राजा-अच्छा ! तुम अपने को रानी समझे बैठी हो । रानी बनने के लिए जिन गुणों की जरूरत है, वे तुम्हें छ भी नहीं गये। तुम विशालसिंह ठाकुर से व्याहो गयी थीं और अब भी वही हो ।

रोहिणी-यहाँ रानी बनने की साध ही नहीं। मैं तो ऐसी रानियों का मुंह देखना भी पाप समझती हूँ, जो दूसरों से हाथ मिलाती और श्रॉखें मटकाती फिरें ।

राना साहब का क्रोध बढता जाता था, पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशा-चिंक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। पर कोई लगती बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी को जबान वन्द कर दे, वह अवाक् रह जाय । मनोरमा को कटु बचन सुनाने के दण्ड- रूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाय, वह क्षम्य थी। बोले-तुम्हें [ २१९ ]तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो न सुनने में न आयेंगी।

रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानो उसके शरों से उन्हें बेध डालेगी, और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी फिराती, वहाँ से चली गयी।

मनोरमा ने सहृदय-भाव से कहा—श्राप व्यर्थ ही इनके मुँह लगे। मैं आपके साथ न जाऊँगी।

राजा—नोरा, कभी-कभी मुझे तुम्हारे ऊपर भी क्रोध आता है। भला, इन गँवारिनों के साथ रहने में क्या आनन्द आयेगा? यह सब मिलकर तुम्हारा जीना दूभर कर देंगी।

राजा साहब बहुत देर तक समझाया किये, पर मनोरमा ने एक न मानी। रोहिणी की बातें अभी तक उसके हृदय के एक-एक परमाणु में व्याप्त था। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं है, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। रोहिणी केवल उन भावों को प्रकट कर देने की अपराधिनी है। इस सन्देह और लांछन का निवारण यहाँ सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा—तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी न रहा जायगा।

मनोरमा ने निश्चयात्मक भाव से कहा—जैसी आपकी इच्छा।

एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखायी दिये। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामे का इजारबन्द नीचे लटकता हुआ। आँगन में खड़े होकर बोले—रानीजी, आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊँ।

राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा—क्या है, यहीं चले आइए। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहीं चले आये, कोई वहाँ भी तो चाहिए।

मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन भाव से बोले—क्या करूँ; हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रोऊँ, तो किससे रोऊँ! घर तबाह हुआ जाता है। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।

मनोरमा ने सशंक होकर पूछा—क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहाँ मेरे पास आये थे, कोई भी नयी बात नहीं कही।

मुंशी—वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा। मुझमे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है। बहू को भी साथ लिये जाता है। कहता है, अब यहाँ न रहूँगा।

मनोरमा—आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो? जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुँचा होगा, नहीं तो वह बहू को लेकर न जाते। बहू ने तो कहीं उनके कान नहीं भर दिये?

मुंशी—नहीं हुजूर, वह तो साक्षात् लक्ष्मी है। मैंने तो अपनी जिन्दगी-भर में ऐसी [ २२० ]औरत देखी ही नहीं। एक महीना से ज्यादा हो गये, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाये बगैर सोयी हो। सबसे पहले उठती है, और सबके पीछे सोती है। उसको तो मैं कुछ कह ही नहीं सकता। वह सब लल्लू की शरारत है। जो उसके मन में आता है, वही करता है। मुझे तो कुछ समझता ही नहीं, आगरे में जाकर शादी की। कितना समझाया, पर न माना। मैंने दरगुजर किया। बहू को धूमधाम से घर लाया। सोचा, जब लड़के से इसका सम्बन्ध हो गया, तो अब बिगड़ने और रूठने से नहीं टूट सकता। लड़की का दिल क्यों दुखाऊँ, लेकिन लल्लू का मुँह फिर भी सीधा नहीं होता। अब न-जाने मुझसे क्या करवाना चाहता है।

मनोरमा—जरूर कोई-न-कोई बात होगी। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?

मुंशी—इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, हुजूर, जो किसी ने चूँ तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है, उसे कौन ताना दे सकता है? हाँ, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।

मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा—अच्छा, यह बात है! भला, बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन रह गयी।

मुंशी—उससे तो कभी इस बात की चर्चा तक नहीं की हुजूर। (आप बार-बार मना करती हैं कि मुझे हुजूर न कहा करो, पर जबान से निकल ही आता है) इसी लिए तो मैंने उसके आते ही आते एक महराजिन रख ली. जिसमें खाने-पीने का सवाल ही न पैदा हो। संयोग की बात है, कल महराजिन ने बहू से तरकारी बघारने के लिए घी माँगा। बहू घी लिये हुए चौके में चली गयी। चौका छूत हो गया। लल्लू ने तो खाना खाया और सबके लिए बाजार से पूरियाँ आयीं। वह तभी से पड़ रही है और लल्लू घर छोड़कर उसे लिये चला जा रहा है।

मनोरमा ने विरक्त भाव से कहा—तो मैं क्या कर सकती हूँ?

मुन्शी—आप सब कुछ कर सकती हैं। आप जो कर सकती हैं, वह दूसरा नहीं कर सकता। आप जरा चलकर उसे समझा दें। मुझपर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आये हैं, वे अब छोड़ी नहीं जातीं।

मनोरमा—तो न छोड़िए, आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना भी चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उसी भाँति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।

मुन्शी—हुजूर, इतना निराश न करें। यदि बच्चा चले गये तो हम दोनों प्राणी तो रोते-रोते मर जायँगे।

मनोरमा—तो इसकी क्या चिन्ता? एक दिन तो सभी को मरना है, यहाँ अमर [ २२१ ]कौन है? इतने दिन तो जी लिये, दो-चार साल और जिये तो क्या?

मुन्शी—रानीजी, आप जले पर नमक छिड़क रही हैं। इतना तो नहीं होता कि चलकर समझा दें, ऊपर से और ताने देती हैं। बहू का आदर-सत्कार करने में कोई बात उठा नहीं रखते, एक उसका छुआ न खाया, तो इसमें रूठने को क्या बात है? हम कितनी ही बातों से दब गये, तो क्या उन्हें एक बात में भी नहीं दबना चाहिए?

मनोरमा—तो जाकर दबाइए न, मेरे पास क्यों दौड़े आये हैं? मेरी राय अगर पूछते हैं, तो जाकर चुपके से बहू के हाथ से खाना पकवाकर खाइए। दिल से यह भाव बिलकुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊँचे हैं। इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए। जब वह आपकी बहू हो गयी, तो बहू ही समझिए। अगर यह छूतछात का बखेड़ा करना था, तो बहू को लाना ही न चाहिए था। आपकी बहू रूप-रंग में व शील-गुण में किसी से कम नहीं। मैं तो कहती हूँ कि आपकी बिरादरी-भर में ऐसी एक भी स्त्री न होगी। अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पायी। अगर खानपान का ढोंग करना है तो जाकर कीजिए। मैं इस विषय में बाबूजी से कुछ नहीं कह सकती। कुछ कहना ही नहीं चाहती। वह वही कर रहे हैं, जो इस दशा में उन्हें करना चाहिए।

मुन्शीजी बड़ी आशा बाँधकर यहाँ दोड़े आये थे। यह फैसला सुना तो कमर टूटसी गयी। फर्श पर बैठ गये और अनाथ-भाव से माथे पर हाथ रखकर सोचने लगे—अब क्या करूँ? राजा साहब अभी तक इन दोनों आदमियों की बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला। बोले—आपकी बात तो तय हो गयी। अब जरा मेरी भी सुनिए। मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा और रोहिणी में किसी बात पर झड़प हो गयी। रोहिणी का स्वभाव तो आप जानते ही हैं। क्रोध उसकी नाक पर रहता है। न-जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊँगी ही नहीं। कितना समझा रहा हूँ, पर मानती ही नहीं।

मुंशीजी ने मनोरमा की ओर देखकर कहा—इन्हें भी तो लल्लू ने शिक्षा दी है। न वह किसी की मानता है, न यह किसी की मानती हैं।

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा—आपको एक देवी के अपमान करने का दण्ड मिल रहा है।

राजा साहब ने कहा—और मुझे?

मनोरमा ने मुँह फेरकर कहा—आपको बहुत-से विवाह करने का।

मनोरमा यह कहती हुई वहाँ से चली गयी। उसे अभी अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था, शहर से अपनी आवश्यक वस्तुएँ मँगवानी थीं। राजा साहब मुंशीजी को लिये हुए बाहर आये और सामनेवाले बाग में बेंच पर जा बैठे। मुँशीजी घर जाना चाहते थे, जी घबरा रहा था; पर राजा साहब से आज्ञा माँगते हुए डरते थे (राजा साहब बहुत ही चिन्तित दिखलायी देते थे। कुछ देर तक तो यह सिर झुकाये बैठे रहे, तब गम्भीर भाव से बोले—मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनी? कितनी मीठी चुटकियाँ लेती है। सचमुच बदुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है। मैंने समझा था, [ २२२ ]अब दिन आनन्द से कटेंगे और इन चुड़ैलों से पिंड छुट जायगा, पर नोरा ने मुझे फिर उसी विपत्ति में डाल दिया। यहाँ रहकर मैं बहुत दिन जी नहीं सकता। रोहिणी मुझे जीता न छोड़ेगी। आज उसने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा, वह साफ कह देती थी कि वह ईर्ष्या के आवेश में जो कुछ न कर बैठे वह थोड़ा है। उसकी आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। शायद उसका बस होता, तो मुझे खा जाती। कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती, जिससे नोरा का विचार पलट सके।

मुन्छी—हुजूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी। आप देख लीजिएगा। उनका जी यहाँ से बहुत जल्द उठ जायगा।

राजा—ईश्वर करे आपकी बात सच निकले! आपको देर हो रही हो, तो जाइए। मेरी डाक वहाँ से बराबर भेजवाते रहिएगा, मै शायद वहाँ रोज न आ सकूँगा। यहाँ तो अब नये सिरे से सारा प्रबन्ध करना है।

आधीरात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आयी थी। उस विशाल भवन में, जहाँ सुख और विलास की सामग्रियाँ भरी हुई थीं, उसे अपना जीवन शून्य जान पड़ता था। एक निर्जन, निर्मम वन में वह अकेली खड़ी थी। एक दीपक सामने बहुत दूर पर अवश्य जल रहा था, पर वह जितना ही चलती थी, उतना ही वह दीपक भी उससे दूर होता जाता था। उसने मुन्शीजी के सामने तो चक्रधर को समझाने से इन्कार कर दिया था, पर अब ज्यों ज्यों रात बीतती थी, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें रोकने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था। उसने सोचा—क्या अहल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जायँगे? क्या मेरा उनपर कोई अधिकार नहीं? वह जायँगे कैसे! मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी। खींच लाऊँगी। अगर अपने घर में नहीं रह सकते, तो मेरे यहाँ रहने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? मैं उनके लिए अपने यहाँ प्रबन्ध कर दूँगी, मगर बड़े निष्ठुर प्रकृति के मनुष्य हैं। आज मेरे पास इतनी देर बैठे अपनी समिति का रोना रोते रहे, फटे मुँह से भी न कहा कि मैं प्रयाग जा रहा हूँ, मानो मेरा उनसे कोई नाता ही नहीं। मुझसे मिलने के लिए उत्सुक तो वह होंगे। पर कुछ न कर सकते होंगे। वह भी बहुत मजबूर होकर जा रहे होंगे। वह अहल्या सचमुच भाग्यवती है। उनके लिए वह कितना कष्ट झेलने को तैयार हैं। प्रयाग में न कोई अपना, न-पराया, सारी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी।

यह सोचते ही उसे खयाल आया कि चक्रधर बिलकुल खाली हाथ हैं। पत्नी साथ, खाली हाथ, नयी जगह, न किसीसे राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा। मैंने बड़ी भूल की। मुंशी जी के साथ मुझे चला जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।

उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था। चैत की चाँदनी खिली हुई थी। चारपाई से उठकर आँगन में आयी। उसके मन में प्रश्न उठा—क्यों न इसी वक्त जाऊँ? घण्टे भर में पहुँच जाऊँगी। चाँदनी छिटकी हुई है, डर किस बात का? राजा [ २२३ ]साहब नींद में हैं। उन्हें जगाना व्यर्थ है। सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊँगी।

लेकिन फिर खयाल आया, इस वक्त जाऊँगी, तो लोग क्या कहेंगे। जाकर इतनी रात गये सबको जगाना कितना अनुचित होगा। वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी। पाँच घण्टे इसी प्रतीक्षा में जागते रहना कठिन परीक्षा थी। उसने चक्रधर को रोक लेने का निश्चय कर लिया था।

बारे अब की उसे नींद आ गयी। पिछले पहर चिन्ता भी थककर सो जाती है। सारी रात करवटें बदलनेवाला प्राणी भी इस समय निद्रा में मग्न हो जाता है। लेकिन देर से सोकर भी मनोरमा को उठने में देर नहीं लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गयी।

चक्रधर भी प्रातःकाल उठे और चलने की तैयारियाँ करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोड़कर जाने का दुःख हो रहा था, पर उस घर में अहल्या की जो दशा थी, वह उनके लिए असह्य थी। अहल्या ने कभी शिकायत न की थी। वह चक्रधर के साथ सब कुछ झेलने को तैयार थी; लेकिन चक्रधर को यह किसी तरह गवारा न था कि अहल्या मेरे घर में परायी बनकर रहे। माता-पिता से भी कुछ कहना-सुनना उन्हें व्यर्थ मालूम होता था, मगर केवल यही कारण उनके यहाँ से प्रस्थान करने का न था। एक कारण और भी था, जिसे वह गुप्त रखना चाहते थे, जिसको अहल्या को भी खबर न थी। यह कारण मनोरमा थी। जैसे कोई रोगी रुचि रखते हुए भी स्वादिष्ट वस्तुओं से बचता है कि कहीं उनसे रोग और न बढ़ जाय, उसी भाँति चक्रधर मनोरमा से भागते थे। आजकल मनोरमा दिन में एक बार उनके घर जरूर आ जाती। अगर खुद न आ सकती थी, तो उन्हीं को बुला भेजती। उसके सम्मुख आकर चक्रधर को अपना संयम, विचार और मानसिक स्थिति ये सब बालू की मेंड़ की भाँति पैर पड़ते ही खिसकते मालूम होते। उसके सौन्दर्य से कहीं अधिक उसका आत्म समर्पण घातक था। उन्हें प्राण लेकर भाग जाने ही में कुशल दिखायी देती थी। गाड़ी ७ बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और पुस्तकें बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखायी दी। चक्रधर मारे शर्म के गढ़ गये। उन्हें मालूम हुआ कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है, और वह जरूर आयेगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे। उन्हें भय था कि उसके आग्रह को न टाल सकूँगा, घर छोड़ने का कोई कारण न बता सकूँगा और विवश होकर मुझे फिर यहीं रहना पड़ेगा। मनोरमा को देखकर वह सहम उठे पर मन में निश्चय कर लिया कि इस समय निष्ठुरता का स्वाँग भरूँगा, चाहें वह अप्रसन्न ही क्यों न हो जाय।

मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा—बाबूजी, अभी जरा ठहर जाइए। यह उतावली क्यों? आप तो ऐसे भागे जा रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों। बात क्या [ २२४ ]है, कुछ मालूम भी तो हो।

चक्रधर ने पुस्तकों का गट्ठर सँभालते हुए कहा—बात कुछ नहीं है। भला कोई बात होती तो आपसे कहता न। यों ही जरा इलाहाबाद रहने का विचार है। जन्म-भर पिता की कमाई खाना तो उचित नहीं।

मनोरमा—तो प्रयाग में कोई अच्छी नौकरी मिल गयी है?

चक्रधर—नहीं, अभी मिली तो नहीं है; पर तलाश कर लूँगा।

मनोरमा—आप ज्यादा से ज्यादा कितने की नौकरी पाने की आशा रखते हैं?

चक्रधर को मालूम हुआ कि मुझसे बहाना न करते बना। इस काम में बहुत सावधान रहने की जरूरत है। बोले—कुछ नौकरी ही का खयाल नहीं है, और भी बहुतसे कारण हैं। गाड़ी सात ही बजे जाती है और मैंने वहाँ मित्रों को सूचना दे दी है। नहीं तो मैं आपसे सारी रामकथा कह सुनाता।

मनोरमा—आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते। जब तक मुझे मालूम न हो जायगा कि आप किस कारण से और वहाँ क्या करने के इरादे से जाते हैं, मैं आपको न जाने दूँगी।

चक्रधर—मैं दस पाँच दिन में एक दिन के लिए आकर आपसे सब कुछ बता दूँगा, पर इस वक्त गाड़ी छूट जायगी। मेरे मित्र स्टेशन पर मुझे लेने आयेंगे। सोचिए, उन्हें कितना कष्ट होगा।

मनोरमा—मैंने कह दिया, आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते।

चक्रधर—आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप कभी मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं। आदमी विवश होकर ही अपना घर छोड़ता है। मेरे लिए अब यहाँ रहना असम्भव हो गया है।

मनोरमा—तो क्या यहाँ कोई दूसरा मकान नहीं मिल सकता।

चक्रधर—मगर एक ही जगह अलग घर में रहना कितना भद्दा मालूम होता है। लोग यही समझेंगे कि बाप बेटे या सास-बहू में नहीं बनती।

मनोरमा—आप तो दूसरों के कहने की बहुत परवा न करते थे।

चक्रधर—केवल सिद्धान्त के विषय में। माता पिता से अलग रहना तो मेरा सिद्धान्त नहीं।

मनोरमा—तो क्या अकारण घर से भाग जाना आपका सिद्धान्त है? सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी बहुत मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मजबूर हैं। न तो आप ही उन्हें दबाना पसन्द करेंगे। क्यों न अहल्या को कुछ दिनों के लिए मेरे साथ रहने देते? मैंने जगदीशपुर ही में रहने का निश्चय किया है। आप वहाँ रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि कुछ दिन आप मेरे मेहमान हों। वह तो आप ही का घर है। मैं इसे अपना सौभाग्य समझूँगी। मैंने आपसे कभी कुछ न माँगा। आज मेरी इतनी बात मान लीजिए, वह कोई आदमी आता है। मैं जरा [ २२५ ]घर में जाती है। यह बिस्तर वगैरह खोल कर रख दीजिए। यह सब सामान देखकर मेरा हृदय जाने कैसा हुआ जाता है।

चक्रधर—नहीं मनोरमा मुझे जाने दो।

मनोरमा—आप न मानेंगे?

चक्रधर—यह बात न मानूँगा।

मनोरमा—मुझे रोते देखकर भी नहीं?

मनोरमा की आँखों से आँसू गिरने लगे। चक्रधर की आँखें भी डबडबा गयीं। बोले—मनोरमा, मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द लौट आऊँगा।

मनोरमा—अच्छी बात है, जाइए, लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।

यह कहकर उसने अपना हैंडबेग चक्रधर की तरफ बढ़ाया।

चक्रधर ने पूछा—इसमें क्या है?

मनोरमा—कुछ भी हो।

चक्रधर—अगर न लूँ तो?

मनोरमा—तो मै अपने हाथों से आपका बोरिया-बँधना उठाकर घर में रख आऊँगी।

चक्रधर—आपको इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी। इस बेग का वजन ही बतला रहा है।

मनोरमा घर में गयी, तो निर्मला बोली—माना कि नहीं, बेटी?

मनोरमा-नहीं मानते। मनाकर हार गयी।

मुंशी—जब आप के कहने से न माना, तो फिर किसके कहने से मानेगा!

ताँगा आ गया। चक्रधर और अहल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर खड़े रह गये।