कायाकल्प/२७

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ २०९ ]

२७

बाबू यशोदानन्दन का क्रिया-कर्म हो गया, पर धूम धाम से नहीं। बाबू साहब ने मरते मरते ताकीद कर दी थी कि मृतक-सस्कारों में धन का अपव्यय न किया जाय। यदि कुछ धन जमा हो, तो वह हिन्द-सभा को दान दे दिया जाय। ऐसा ही किया गया।

इसके तीसरे ही दिन चक्रधर का अहल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन और टालना चाहते थे लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। पति-रक्षा से वंचित होकर वह परायी कन्या की रक्षा का भार लेते हुए डरती थी। इस उपद्रव ने उसे सशंक कर दिया था। विवाह में कुछ धूमधाम नहीं हुई। हाँ, शहर के कई रईसों ने कन्यादान में बड़ी बड़ी रकमें दीं और सबसे बड़ी रकम ख्वाजा साहब की थी। अहल्या के विवाह के लिए उन्होंने ५०००) अलग कर रखे थे। यह सब कन्या दान में दे दिये। कई सस्थाओं ने भी इस पुण्य कार्य में अपनी उदारता का परिचय दिया। वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शान्त हो गया।

जिस दिन चक्रधर अहल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुँचाने आये। वागीश्वरी का रोते रोते बुरा हाल था। जब अहल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। संसार उसकी आँखों में सूना हो गया। पतिशोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था। अहल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गयी। जी में आता था, अहल्या को पकड़ लूँ। उसे कोई क्यों लिये जाता है? उसपर किसका अधिकार है, वह जाती ही क्यों है? उसे मुझपर जरा भी दया नहीं आती? क्या वह इतनी निष्ठुर हो गयी है? वह इस शोक के आवेश में लपकर द्वार पर आयी; पर पालकी का पता नहीं था। तब यह द्वार पर बैठ गयी। ऐसा जान पड़ा, मानो चारों और शून्य, निस्तब्ध, अन्धकारमय श्मशान है। मानो कहीं कुछ रहा ही नहीं।

अहल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नही, वियोग में। वह घर छोड़ते हुए उसका दृदय फटा जाता था। प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे। एक एक वस्तु को देखकर मधुर स्मृतियों के समूह आँखों के सामने आ खड़े होते थे। वागीश्वरी की गर्दन में तो उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो [ २१० ]गये कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया, मानो जीव देह से चिमटा हो। मरणासन्न रोगी भी अपनी विलास की सामग्रियों को इतने तृषित, इतने नैराश्यपूर्ण नेत्रों से न देखता होगा। घर से निकलकर उसकी वही दशा हो रही थी, जो किसी नवजात पक्षी की घोंसले से निकलकर होती है।

लेकिन चक्रधर के सामने एक दूसरी ही समस्या उपस्थित हो रही थी। वह घर तो जा रहे थे, पर उस घर के द्वार बन्द थे, उस द्वार में हृदय की गाँठ से भी सुदृढ़ ताले पड़े हुए थे, जिसके खुलने की तो क्या, टूटने की भी आशा न थी। नव-वधू को लिए हुए वर के हृदय में जो अभिलाषाएँ, जो मृदु-कल्पनाएँ प्रदीप्त होती हैं, उनका यहाँ नाम भी न था। उनकी जगह चिन्ताओं का अन्धकार छाया हुआ था। घर जाते थे, पर नहीं जानते थे कि कहाँ जा रहा हूँ। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, सम्बन्धियों की अवहेलना, इन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतरकर जाऊँगा कहाँ। मित्रों की कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिये हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल ही से लज्जा आती थी। अपनी तो चिन्ता न थी। वह इन सभी बाधाओं को सह सकते थे, लेकिन अहल्या उनको कैसे सहन करेगी? उसका कोमल हृदय इन आघातों से टूट न जायगा! उन्होंने सोचा—मैं घर जाऊँ ही क्यों? क्यों न प्रयाग ही उतर पड़ूँ और कोई मकान लेकर सबसे अलग रहूँ? कुछ दिनों के बाद यदि घरवालों का क्रोध शान्त हो गया, तो चला जाऊँगा, नहीं प्रयाग ही सही। बेचारी अहल्या जिस वक्त गाड़ी से उतरेगी और मेरे साथ शहर की गलियों में मकान ढूँढ़ती फिरेगी, उस वक्त उसे कितना दुःख होगा। इन चिन्ताओं से उनकी मुख मुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी। उसकी वियोग-व्यथा अब शान्त हो गयी थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर वह घबड़ा गयी—बोली आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गयी?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा—नहीं तो, उदास क्यों होने लगा? यह उदास होने का समय है, या आनन्द मनाने का?

अहल्या—यह तो आप अपने मुख से पूछें, जो उदास हो रहा है।

चक्रधर ने हँसने की विफल चेष्टा करके कहा—यह तुम्हारा भ्रम है। मैं तो इतना खुश हूँ कि डरता हूँ, लोग मुझे ओछा न समझने लगें।

मगर चक्रधर जितना ही अपनी चिन्ता को छिपाने का प्रयत्न करते, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख बनाये रखने की चेष्टा में ओर भी दरिद्र हो जाता है।

अहल्या ने गम्भीर भाव से कहा—तुम्हारी इच्छा है, न बताओ, लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझपर विश्वास नहीं।

यह कहते कहते अहल्या की आँखें सजल हो गयीं। चक्रधर से अब जब्त न हो [ २११ ]सका। उन्होंने सक्षेप में सारी बातें कह सुनायीं और अन्त में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया।

अहल्या ने गर्व से कहा—अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मै घर चलूँगी। माता-पिता की अप्रसन्नता के भय से कोई अपना घर नहीं छोड़ देता। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे माता-पिता! हम लोगों ने कितना ही अनुचित किया हो, हैं तो उन्हीं के बालक। इस नाते को कौन तोड़ सकता है? आप इन चिन्ताओं को दिल से निकाल डालिए।

चक्रधर—निकालना तो चाहता हूँ। पर नहीं निकलती। बाबूजी यों तो आदर्श पिता हैं; लेकिन उनके सामाजिक विचार इतने संकीर्ण हैं कि उनमें धर्म का स्थान भी नहीं। मुझे भय है कि वह मुझे घर में जाने ही न देंगे। इसमें हरज ही क्या है कि हम लोग प्रयाग उतर पड़ें और जब तक घर के लोग हमारा स्वागत करने को तैयार न हों, यहीं पड़े रहें।

अहल्या—आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मुझे तो माता-पिता से अलग स्वर्ग में रहना भी अच्छा न लगेगा। आखिर उनकी सेवा करने का और कौन अवसर मिलेगा? वे कितना ही रूठें, हमारा यही धर्म है कि उनका दामन न छोड़ें। बचपन में अपने स्वार्थ के लिए तो हम कभी माता-पिता की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करते; मचल मचलकर उनकी गोद में बैठते हैं, मार खाते हैं, घुड़के जाते हैं, पर उनका गला नहीं छोड़ते; तो अब उनकी सेवा करने के समय उनकी अप्रसन्नता से मुँह फुला लेना हमें शोभा नहीं देता। आप उनको प्रसन्न करने का भार मुझपर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूँगी।

चक्रधर ने अहल्या को गद्‌गद नेत्रों से देखा और चुप हो रहे।

रात को दस बजते बजते गाड़ी बनारस पहुँची। अहल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिन्तित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। कहीं पिताजी ने जाते-ही-जाते घुड़कियाँ देनी शुरू कीं, और अहल्या को घर में न जाने दिया, तो डूब मरने की बात होगी। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते हुए पाया। पिता के इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रुमाल से पोंछते हुए स्नेह-कोमल शब्दों में बोले—कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहाँ बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूँ और एक आदमी हरदम तुम्हारे इन्तजार में बिठाये रहता हूँ कि न जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो, उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन-मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाये देता हूँ। में दौड़कर जरा बाजे गाजे, रोशनी सवारी की फिक्र करूँ। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहाँ लोग क्या जानेंगे कि [ २१२ ]बहू आयी है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई-बन्दों के साथ रस्मरिवाज मानना ही पड़ता है।

यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। अहल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आँखों से श्रद्धा और आनन्द के आँसू बहने लगे। मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग-रूम में बैठाकर बोले—किसी को अन्दर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घण्टे-भर में आऊँगा। तुमसे बड़ी भूल हुई कि मुझे एक तार न दे दिया। अब बेचारी यहाँ परदेशियों की तरह घण्टों बैठी रहेगी। तुम्हारा कोई काम लड़कपन से खाली ही नहीं होता। रानी कई बार आ चुकी हैं। आज चलते चलते ताकीद कर गयी थीं कि बाबूनी आ जायँ, तो मुझे खबर दीजिएगा। मैं स्टेशन पर उनका स्वागत करूँगी और बाबूजी को साथ लाऊँगी। सोचो, उन्हें कितनी तकलीफ होगी।

चक्रधर ने दबी जबान से कहा—उन्हें तो आप इस वक्त तकलीफ न दीजिए, और आपको भी धूमधाम करने के लिए तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। सवेरे तो सबको मालूम हो ही जायगा।

मुंशीजी ने लकड़ी सँभालते हुए कहा—सुनती हो बहूजी, इनकी बातें? सवेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आयी?

मुंशीजी चले गये, तो अहल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घण्टों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूँ।

चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितना ही धूम-धाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर। उन्हें यहाँ बैठते अनकुस मालूम होता था। सारी रात का बखेड़ा हो गया। शहर का चक्कर लगाना पड़ेगा, घर पहुँचकर न जाने कितनी रस्में अदा करनी पड़ेंगी, तब जाके कहीं गला छूटेगा। सबसे ज्यादा उलझन की बात यह थी कि कहीं मनोरमा भी राजसी ठाठ-बाट से न आ पहुँचे। इस शोरगुल से फायदा ही क्या?

मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखायी दी। चक्रधर सहसा चौंक पड़े और कुरसी से उठकर खड़े हो गये। मनोरमा के सामने ताकने की उनकी हिम्मत न पड़ी, मानो कोई अपराध किया हो। मनोरमा ने उन्हें देखते ही कहा—वाह बाबूजी, आप चुपके चुपके बहू को उड़ा लाये और मुझे खबर तक न दी! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने तो अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाये?

चक्रधर ने मनोरमा की ओर लज्जित होकर देखा, तो उसका मुख उड़ा हुआ था। [ २१३ ]वह मुसकरा रही थी, पर आँखों में आँसू झलक रहे थे। इन नेत्रों में कितनी विनय थी, कितना नैराश्य, कितनी तृष्णा, कितना तिरस्कार! चक्रधर को उसका जवाब देने को शब्द न मिले? मनोरमा ने सिर झुकाकर फिर कहा—आपको मेरी सुधि ही न रही होगी, सौगात कौन लाता? बहू से बातें करने में दूसरों की सुधि क्यों आती! बहन, आप उतनी दूर क्यों खड़ी हैं? आइए, आइए, आपसे गले तो मिल लूँ। आपसे तो मुझे कोई शिकायत नहीं।

यह कहकर वह अहल्या के पास गयी और दोनों गले मिलीं। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहल्या के हाथ में पहना दिया और छत की ओर ताकने लगी, जैसे एकाएक कोई बात याद आ गयी हो; सहसा उसकी दृष्टि आईने पर जा पड़ी। अहल्या का रूप-चन्द्र अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ उसमें प्रतिबिम्बित हो रहा था। मनोरमा उसे देखकर अवाक् हो गयी। मालूम हो रहा था, किसी देवता का आशीर्वाद मूर्तिमान होकर आकाश से उतर आया है। उसकी सरल, शान्त, शीतल छवि के सामने उसका विशाल सौन्दर्य ऐसा मालूम होता था, मानो कुटी के सामने कोई भवन खड़ा हो। यह उन्नत भवन इस समय इस शान्ति कुटी के सामने झुक गया। भवन सूना था, कुटी में एक आत्मा शयन कर रही थी।

इतने में अहल्या ने उसे कुरसी पर बिठा दिया और पान-इलायची देते हुए बोली—आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ हुई। यह आपके आराम करने का समय था। मैं जानती कि आप आयेंगी, तो यहाँ किसी दूसरे वक्त...

चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गये थे। उनके रहने से दोनों ही को संकोच होता; बल्कि तीनों चुप रहते।

मनोरमा ने क्षुधित नेत्रों से अहल्या को देखकर कहा—नहीं बहन, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह-एक के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं। तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुमपर रीझते ही क्यों? अहल्या, तुम बड़ी भाग्यवान् हो। तुम्हारी-जैसी भाग्यशाली स्त्रियाँ बहुत कम होंगी। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवम् सर्वथा निष्कलंक।

अहल्या पति-प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली—आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये!

मनोरमा—मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो जाऊँगी। मंगला से मैंने प्रेम नहीं बढ़ाया। कल को वह पराये घर चली जायगी। कौन उसके नाम पर बैठकर रोता। तुम कहीं न जाओगी, तुम्हें सहेली बनाने में कोई खटका नहीं। आज से तुम मेरी सहेली हो। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बन्धन में बँधे रहें।

अहल्या—मैं इसे अपना सौभाग्य समझूँगी। आपके शील स्वभाव फी चर्चा करते उनकी जवान नही थक्ती। [ २१४ ]

मनोरमा ने उत्सुक होकर पूछा—सच! मेरी चर्चा कभी करते हैं?

अहल्या—बराबर बात बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं। मैं नहीं जानती कि आपकी वह कौन-सी आज्ञा है, जिसे वह टाल सकें।

इतने में बाजों की धोंधों-पोंपों सुनायी दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे। सामान तो पहले ही से जमा कर रखे थे, जाकर ले आना था। पंशाखे, बाजों की तीन चार चौकियाँ कई सवारी-गाड़ियाँ, दो हाथी, दर्जनों घोड़े, एक सुन्दर सुखपाल, ये सब स्टेशन के सामने आ पहुँचे।

अहल्या के हृदय में आनन्द की तरंगें उठ रही थीं। जिसने जिन बातों को स्वप्न में भी आशा न की थी, वे सब पूरी हुई जाती थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर-सम्मान होगा उसने कल्पना भी न की थी।

मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरग घोड़े पर सवार थे।

एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गयी हो।