कायाकल्प/४२
४२
रात्रि के उस अगम्य अन्धकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से चलनी हो गये थे। सारी देह थककर चूर हो गयी थी, भूख के मारे आँखों के सामने अँधेरा छाया जाता था, प्यार के मारे कण्ठ में काँटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरता-पड़ता भागा चला जाता था। अगर वह प्रातःकाल तक साईंगंज पहुँचा, तो सम्भव है, चक्रधर कहीं चले जायँ और फिर उस अनाथ की पाँच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाय। सर्य निकलने के पहले उसे वहाँ पहुँच जाना था, चाहे इसमें प्राण ही क्यों न चले जायँ।
हिंस्र पशुओं का भयंकर गर्जन सुनायी देता था, अँधेरे में खड्ड और खाई का पता न चलता था; पर उसे अपने प्राणों की चिन्ता न थी। उसे केवल धुन थी—'मुझे सूर्योदय से पहले साईंगंज पहुँच जाना चाहिए।' आह! लाड़-प्यार में पले हुए बालक, तुझे मालूम नहीं कि तू कहाँ जा रहा है! साईंगंज की राह भूल गया। इस मार्ग से तू और जहाँ चाहे पहुँच जाय, पर साईंगंज नहीं पहुँच सकता।
गगन-मण्डल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भाँति अपनी उज्ज्वल आँखें बन्द करके विश्राम करने लगे। पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला।
सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखायी दिये। दो चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आये। वह साईंगंज आ गया। शङ्खधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरो में न जाने कहाँ से दुगुना बल आ गया। वह और वेग से चला। वह सामने मुसाफिर की मंजिल है! वह उसके जीवन का लक्ष्य दिखायी दे रहा है! वह इसके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति है। आह! भ्रात बालक! वह साईंगंज नहीं है।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी। शंखधर को ऊपर चढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखायी देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बाँधकर चढ़ने लगा।
गाँव के एक आदमी ने ऊपर से आवाज दी इधर से कहाँ आते हो भाई? रास्ता तो पच्छिम की ओर से है! वहीं पैर फिसल जाय, तो २०० हाथ नीचे जाओ।
लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहाँ थी? वह इतनी तेजी से ऊपर बढ़ रहा था कि उस आदमी को आश्चर्य हो गया। दम के दम में वह ऊपर पहुँच गया।
किसान ने शंखधर को सिर से पाँव तक कुतूहल से देखकर कहा—देखने में तो एक हड्डी के आदमी हो; पर हो बड़े ही हिम्मती। इधर से आने की आज तक किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। कहाँ घर है?
शङ्खधर ने दम लेकर कहा—बाबा भगवानदास अभी यहीं हैं न?
किसान—कौन बाबा भगवानदास? यहाँ तो वह नहीं आये। तुम कहाँ से आते हो?
शंखधर—बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गाँव में तो आये हैं। साईंगंज यही है न?
किसान—साईंगंज! अरर! साईंगंज तो तुम पूरब छोड़ आये। इस गाँव का नाम बेंदो है।
शङ्खधर ने हताश होकर कहा—तो साईंगंज यहाँ से कितनी दूर है?
किसान—साईंगंज तो पड़ेगा यहाँ से कोई पाँच कोस; मगर रास्ता बहुत बीहड़ है।
शङ्खधर कलेजा थामकर बैठ गया! पाँच कोस की मंजिल, उसपर रास्ता बीहड़! उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आँखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा—यह अवसर फिर हाथ न आयेगा! अगर आराध्यदेव के दर्शन आज न किये, तो फिर न कर सकूँगा। सारा जीवन दौड़ते ही बीत जायगा। भोजन करने का समय नहीं और विश्राम करने का समय भी नहीं। बैठने का समय फिर आयेगा। आज या तो इस तपस्या का अन्त हो जायगा, या इस जीवन का ही। वह उठ खड़ा हुआ।
किसान ने कहा—क्या चल दिये भाई? चिलम विलम तो पी लो।
लेकिन शंखधर इसके पहले ही चल चुका था। वह कुछ नहीं देखता, कुछ नहीं सुनता, चुपचाप किसी अन्ध-शक्ति की भाँति चला जा रहा है। वसन्त का शीतल एवं सुगन्ध से लदा हुआ समीर पुत्र-वत्सला माता की भाँति वृक्षों को हिंडोले में झुला रहा है, नवजात पल्लव उसकी गोद में मुस्कराते और प्रसन्न हो होकर ठुमकते हैं, चिड़ियाँ उन्हें गा-गाकर लोरियाँ सुना रही हैं, सूर्य की स्वर्णमयी किरणें उनका चुम्बन कर रही हैं। सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में डूबी हुई है, केवल एक ही प्राणी अभागा है, जिसपर इस प्रकृति वात्सल्य का जरा भी अवसर नहीं। वह शंखधर है।
शंखधर सोच रहा है, अब की फिर कहीं रास्ता भूला, तो सर्वनाश ही हो जायगा। तब वह समझ जायगा—मेरा जीवन रोने ही के लिए बनाया गया है। रोदन-अनन्त रोदन ही उसका काम है। अच्छा, कहीं पिताजी मिल गये? उसके सम्मुख वह जा भी सकेगा या नहीं? वह उसे देखकर क्रुद्ध तो न होंगे? जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या व्रत लिया है, उसे सामने देखकर क्या वह प्रसन्न होंगे?
अच्छा, वह उनसे क्या कहेगा? अवश्य ही उनसे घर चलने का अनुरोध करेगा। क्या माता की दारुण-दशा पर उन्हें दया न आयेगी? क्या जब वह सुनेंगे कि रानी अम्माँ गलकर काँटा हो गयी हैं, नानाजी रो रहे हैं, दादीजी रात-दिन रोया करती हैं, तो क्या उनका हृदय द्रवित न हो जायगा। वह हृदय, जो पर दुःख से पीड़ित होता है, क्या अपने घरवालों के दुःख से दुखी न होगा? जब वह नयनों में अश्रु जल भरे उनके चरणों पर गिर कर कहेगा कि अब घर चलिए, तो क्या उन्हें उस पर दया न आयेगी? अम्माँ कहती हैं, वह मुझे बहुत प्यार करते थे; क्या अपने प्यारे पुत्र की यह दयनीय दशा देखकर उनका हृदय मोम न हो जायगा? होगा क्यों नहीं? यह जायँगे कैसे नहीं? वह उन्हें खींचकर ले जायगा। अगर वह उसके साथ न आयेंगे, तो वह भी लौटकर घर न आयेगा, उन्हीं के साथ रहेगा, उनकी ही सेवा में रहकर अपना जीवन सफल करेगा।
इन्हीं कल्पनाओं में डूबा हुआ शंखधर धावा मारे चला जा रहा था। रास्ते में जो मिलता, उससे वह पूछता, साईंगंज कितनी दूर है? जवाब मिलता—बस, साईंगंज ही है। लेकिन जब आगे वाली बस्ती में पहुँचकर पूछता—क्या यही साईंगंज है, तो फिर यही जवाब मिलता—बस, आगे साईंगंज है। आखिर दोपहर होते-होते उसे दूर से एक मन्दिर का कलश दिखायी दिया। एक चरवाहे से पूछा—यह कौन गाँव है? उसने कहा—साईंगंज! साईंगंज आ गया! वह गाँव, जहाँ उसकी किस्मत का फैसला होने वाला था, जहाँ इस बात का निश्चय होगा कि वह राजा बनकर राज्य करेगा या रंक बनकर भीख माँगेगा।
लेकिन ज्यों ज्यों गाँव निकट आता था, शंखधर के पाँव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था, पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।
अच्छा, अगर उनसे यहाँ भेंट न हुई, तो क्या वह और आगे जा सकेगा? नहीं, अब उससे एक पग भी न चला जायगा! अगर भेंट होगी, तो यहीं होगी, नहीं तो फिर कौन—जाने क्या होगा। अच्छा, अगर भेंट हुई और उन्होंने उसे पहचान लिया तो? पहचान कर वह उसकी ओर से मुँह फेर लें तो? तब वह क्या करेगा? उस दशा में क्या वह उनके पैरों पड़ सकेगा? उनके सामने रो सकेगा, अपनी विपत्ति-कथा कह सकेगा। कभी नहीं। उसका आत्म-सम्मान उसकी जबान पर मुहर लगा देगा। वह फिर एक शब्द भी मुँह से न निकाल सकेगा, आँसू की एक बूँद भी उसकी आँखों से निकलेगी। वह जबरदस्ती उनसे आत्मीयता न जतायेगा, 'मान-न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनेगा। तो क्या वह इतने निर्दय, इतने निष्ठुर हो जायँगे? नहीं, वह ऐसे नहीं हो सकते। हाँ, यह हो सकता है कि उन्होंने कर्त्तव्य का जो आदर्श अपने सामने रखा है और जिस निःस्वार्थ कर्म के लिए राज-पाट को त्याग दिया है, वह उनके मनोभावों को जबान पर न आने दे, अपने प्रिय पुत्र को हृदय से लगाने के लिए विकल होने पर भी वह छाती पर पत्थर की शिला रखकर उसकी ओर से मुँह फेर लें। तो क्या इस दशा में उसका उनके पास जाना, उन्हें इतनी कठिन परीक्षा में डालना, उन्हें आदर्श से हटाने की चेष्टा करना उचित है? कुछ भी हो, उतनी दूर आकर अब उनके दर्शन किये बिना वह न लौटेगा। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उसे पहचान न सकें। वह अपने मुँह से एक शब्द भी ऐसा न निकालेगा, जिससे उन्हें उसका परिचय मिल सके। वह उसी भाँति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं।
साईंगंज दिखायी देने लगा। स्त्री पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गाँव के डाँड़ पर पहुँच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गये, पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। अगर किसी ने कह दिया—बाबाजी हैं, तो वह क्या करेगा? इसी असमञ्जस में पड़ा हुआ वह मन्दिर के सामने चबूतरे पर बैठ गया। सहसा मन्दिर में से एक आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े; पर पैर थरथरा गये, मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर बही चली आती है—वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
वह पुरुष कौन था? वही, जिसकी मूर्ति उसके हृदय में बसी हुई थी, जिसका वह उपासक था।