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कायाकल्प/४३

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ३०५ से – ३०९ तक

 

४३

अभागिनी अहल्या के लिए ससार सूना हो गया। पति को पहले ही खो चुकी थी। जीवन का एक मात्र आधार पुत्र रह गया था। उसे भी खो बैठी। अब वह किसका मुँह-देखकर जियेगी ? वह राज्य उसके लिये किसी ऋषि का अभिशाप हो गया । पति और पुत्र को पाकर अब वह टूटे-फूटे झोपड़े में कितने सुख से रहेगी। तृष्णा का उसे बहुत दण्ड मिल चुका । भगवान्, इस अनाथिनी पर दया करो!

अहिल्या को अब वह रान भवन फाढ़े खाता था । वह अब उसे छोड़कर कहीं चली जाना चाहती थी । कोई सड़ा-गला झोपड़ा, किसी वृक्ष की छाँह पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सैंकड़ों गुना अच्छा था। वे दिन क्तिने अच्छे थे , जब वह अपने स्वामी के साथ पुत्र को हृदय से लगाये एक छोटे-से मकान में रहती थी। वे दिन फिर न पायेंगे । वह मनहूस घड़ी थी, जब उसने इस भवन में कदम रखा था। वह क्या जानती थी कि इसके लिए उसे अपने पति और पुत्र से हाथ धोना पड़ेगा? ग्राह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गयी ? रह-रहकर उसको अपनी भोग-लिप्सा पर क्रोध श्राता था, जिसने उसका सर्व-नाश कर दिया था । क्या उस पाप का कोई प्रायश्चित्त नहीं है। क्या इस जीवन में स्वामी के दर्शन न होंगे ? अपने प्रिय पुत्र को मोहिनी मूर्ति फिर वह न देख सकेगी! कोई ऐसी युक्ति नहीं है।

राज-भवन अब भूतों का ढेरा हो गया है। उसका अब कोई स्वामि नहीं रहा । राजा साहब अब महीनों नहीं पाते । वह अधिकतर इलाके ही में घूमते रहते हैं। उनके अत्याचार की कथाएँ सुनकर लोगों के रोये खड़े हो जाते हैं। सारी रियासत में हाहा कार मचा हुया है । कही किसी गाँव मे बाग लगायी जायी है, किसी गाँव में कुएँ भ्रष्ट किये जाते हैं । राना साहब को किसी पर दया नहीं। उनके सारे समाव शंखधर के साथ चले गये। विधाता ने अकारण ही उनपर इतना कठोर श्राघात किया है । वद उस आघात का बदला दूसरो से ले रहे हैं। जब उनके ऊपर किसी को दया नहीं आती, तो वह किसी पर क्यों दया करें। अगर ईश्वर ने उनके घर में आग लगायी है, तो वह भी दूसरों के घर मे आग लगायेंगे । रेश्वर ने उन्हे लाया है, तो वर भी दूम को रुलायेंगे । लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्म-बुद्धि जाग्रत हो जाती है; लेकिन किन लोगों की ? जिनके सर्वनाश में कुच कसर रह गयी हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गयी हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है उसे किस बात का डर?

अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता । मनोरमा को देख कर तो वह जाने से बाहर हो जाते हैं । अहल्या भी उनसे कुछ बदले हुए थर-थर कांपती है। अपने प्यारों को खोजने के लिए वह तरह-तरह के मनसूवे बनाया करती है लेकिन दिराले उसे ऐसा विदित पता है कि ईश्वर ने उसकी भोग-लिप्सा का यह दंड दिया है। दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर इसका प्रायश्चित्त करे, तो कदाचित् ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दे। उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए हैं, लेकिन हाय रे मानव हृदय! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है, लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाये। अगर राजा साहब मुंशी जी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाय; पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नही पड़ती।

इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता, लेकिन अहल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था, न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती? जो मनोरमा अब गाने बजाने और सैरसपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी? वह कहे भी, तो मनोरमा क्यों उसके साथ सहानुभूति करने लगी? वह दिन-के-दिन और रात की रात पड़ी रोया करती है, मनोरमा कभी भूलकर भी उसकी बात नहीं पूछती, अपने राग रंग में मस्त रहती है। वह भला, अहल्या की पीर क्या जानेगी?

तो मनोरमा सचमुच राग रंग में मस्त रहती है? हाँ, देखने में तो यही मालूम होता है। लेकिन उसके हृदय पर क्या बीत रही है, यह कौन जान सकता है? वह आशा और नैराश्य, शान्ति और अशान्ति, गम्भीरता और उच्छृङ्खलता, अनुराग और विराग की एक विचित्र समस्या बन गयी है! अगर वह सचमुच हँसती और गाती है, तो उसके मुख की वह कान्ति कहाँ है, जो चन्द्र को लजाती थी, वह चपलता कहाँ है, जो हिरन को हराती थी। उसके मुख और उसके नेत्रों को जरा सूक्ष्म-दृष्टि से देखो, तो मालूम होगा कि उसकी हँसी उसका आर्तनाद है और उसका राग-प्रेम मर्मान्तक व्यथा का चिह्न। वह शोक की उस चरम सीमा को पहुँच गयी है, जब चिन्ता और वासना दोनों ही का अन्त, लज्जा और आत्म-सम्मान का लोप हो जाता है, जब शोक रोग का रूप धारण कर लेता है। मनोरमा ने कच्ची बुद्धि में यौवन जैसा अमूल्य रत्न देकर जो सोने की गुड़िया खरीदी थी, वह अब किसी पक्षी की भाँति उसके हाथों से उड़ गयी थी। उसने सोचा था, जीवन का वास्तविक सुख धन और ऐश्वर्य में है, किन्तु अब बहुत दिनों से उसे ज्ञात हो रहा था कि जीवन का वास्तविक सुख कुछ और ही है, और वह सबसे आजीवन वंचित रही। सारा जीवन गुड़िया खेलने ही में कट गया और अन्त में वह गुड़िया भी हाथ से निकल गयी। यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हँसने की वस्तु है। उससे कहीं ज्यादा हँसते हैं, जितना परम आनन्द में हँस सकते हैं। प्रकाश जब हमारी सहन-शक्ति से अधिक हो जाता है, तो अन्धकार बन जाता है, क्योंकि हमारी आँखें ही बन्द हो जाती हैं।

एक दिन अहल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़ कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि अपने कमरे से यहाँ तक आने में उसे कम से कम दो घण्टे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गयी। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही उसका गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था।

मनोरमा ने उसे देखकर कहा—क्यों रो रही थी अहल्या। यों कब तक रोती रहोगी?

अहल्या ने दीन भाव से कहा—जब तक भगवान् रुलावे!

कहने को तो अहल्या ने यह कहा; पर इस प्रश्न से उसका गर्व जाग उठा और वह पछतायी कि यहाँ नाहक आयी। उसका मुख तेज से आरक्त हो गया।

मनोरमा ने उपेक्षा-भाव से कहा—तब तो और हँसना चाहिए। जिसमें दया नहीं, उसके सामने रोकर अपना दीदा क्यों खोती हो। भगवान् अपने घर का भगवान होगा। कोई उसके रुलाने से क्यों रोये? मन में एक बार निश्चय कर लो कि अब न रोऊँगी, फिर देखूँ कि कैसे रोना आता है!

अहल्या से अब जब्त न हो सका, बोली—तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, रानी जी! तुम्हारा-जैसा हृदय कहाँ से लाऊँ? और फिर रोता भी वह है, जिस पर पड़ती है। जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोयेगा?

मनोरमा हँसी—वह हँसी, जो या तो मूर्ख ही हँस सकता है या मानी ही। बोली—अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है। अगर कोई माता या पिता अपनी सन्तान को रोते देखकर प्रसन्न हो, तो तुम उसे क्या कहोगी—बोलो? तुम्हारा जी चाहेगा कि ऐसे प्राणी का मुँह न देखूँ। क्या ईश्वर हमसे और तुमसे भी गया बीता है? आओ, बैठकर गावें। इससे ईश्वर प्रसन्न होगा। वह जो कुछ करता है, सबके भले ही के लिए करता है। इसलिए जब वह देखता है कि उसे लोग अपना शत्रु समझते हैं, तो उसे दुःख होता है। तुम अपने पुत्र को इसीलिए तो ताड़ना देती दो कि वह अच्छे रास्ते पर चले। अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रुठ जाय और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दुख होगा? आओ, तुम्हें एक भैरवी सुनाऊँ। देखो, मैं कैसा अच्छा गाती हूँ!

अहल्या ने गाना सुनने के प्रस्ताव को अनसुना करके कहा—माता पिता सन्तान को इसीलिए तो ताड़ना देते है कि वह बुरी आदतें छोड़ दें, अपने बुरे कामों पर लज्जित हो और उसका प्रायश्चित्त करें? हमें भी जब ईश्वर ताड़ना देता है, तो उसकी भी यही इच्छा होती है। विपत्ति ताड़ना ही तो है। मैं भी प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ और आप से उसके लिए सहायता माँगने आयी हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडम्बना मेरे विलास-प्रेम या फल है, और मैं इसका प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ। मेरा मन कहता है कि यहाँ से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा आऊँगी। यह सारा दण्ड मेरी विलासान्धता का है। आज जाकर अम्माँजी से कह दीजिए, मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इस घर से निकल कर ही उसे पाऊँगी।

मनोरमा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आँखे खुल गयीं। क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनन्द का अनुभव करेगी। क्या उसे भी ऐश्वर्य-प्रेम ही का दण्ड भोगना पड़ रहा है। क्या वह सारी अन्तर्वेदना इसी विलास-प्रेम के कारण है।

उसने कहा—अच्छा, अहल्या, मैं आज ही जाती हूँ।

इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का सन्देशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये। अहल्या का कलेजा धक-वक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जायँ। इधर-उधर छिपती फिरती थी कि उनका सामना न हो जाय। उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है, पर अब जाने के लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहाँ से जाना तो चाहती थी, पर जाते दुःख होता था। यहाँ आये उसे चौदह साल हो गये। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी, वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इन बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली—आप मुझे क्यों विदा करते है? में नहीं जाना चाहती।

राजा साहब ने हँसकर कहा—कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूँ कि तुम जाओ, लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है, और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूँ, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान है, उसके पूरा करने का और कौन अवसर आयेगा। शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता। वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।

अहल्या इसका क्या जवाब देती।

दूसरे दिन से राजा साहब ने विदाई की तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सोनार पकड़ बुलाये गये और गहने बनने लगे। इलाके ही के दरजी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कड़ाह चढ़ गये और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रँगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमन्त्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिये गये। बिजली की रोशनी का इन्तजाम होने लगा। ऐसा मालूम होता या, मानो किसी बड़ी बरात के स्वागत और सत्कार की तैयारी हो रही है। अहल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुँझलाती और शर्माती थी। सोचती—कहाँ-से-कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली। अब इस बुढापे में मेरा गौना। मैं मरने की राह देख रही हूँ; यहाँ गौने की तैयारी हो रही है। कौन जाने यह अन्तिम विदाई, ही हो। राजा साहब ऐसे व्यस्त थे कि किसी से बात करने की भी उन्हें फुरसत न थी। कहीं सोनारों के पास बैठे अच्छी नक्काशी करने की ताकीद कर रहे है। कहीं दर्जियों के पास बैठे हुए मशीन सिलाई पर जोर दे रहे हैं। कहीं जौहरियों के पास बैठे जवाहरात परख रहे हैं। उनके अरमानों का वारापार ही न था। मन की मिठाई घी शक्कर की मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती।