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कायाकल्प/४६

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ३२० से – ३२२ तक

 

४६

शंखधर को अपने पिता के साथ रहते एक महीना हो गया। न वह जाने का नाम लेता है, न चक्रधर ही जाने को कहते हैं। शंखधर इतना प्रसन्नचित्त रहता है, मानो अब उसके लिए ससार में कोई दुःख, कोई बाधा नहीं है। इतने ही दिनों में उसका रंग रूप कुछ और हो गया है। मुख पर यौवन का तेज झलकने लगा और जीर्ण शरीर भर आया है। मालूम होता है, कोई अखण्ड ब्रह्मचर्य-व्रतधारी ऋषिकुमार है।

चक्रधर को अब अपने हाथों कोई काम नहीं करना पड़ता। वह जब एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं, तो उनका सामान शंखधर उठा लेता है, उन्हें अपना भोजन तैयार मिलता है, बर्तन मँजे हुए, साफ सुथरे। शङ्खधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छाँटने देता। दोनों प्राणियों के जीवन का वह समय सबसे आनन्दमय होता है, जब एक प्रश्न करता और दूसरा उसका उत्तर देता है। शङ्खधर को बाबाजी की बातों से अगर तृप्ति नहीं होती, तो अल्प-भाषी बाबाजी को भी बातें करने से तृप्ति नहीं होती। वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, धर्म, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि शङ्खधर उन बातों को ग्रहण भी कर रहा है या नहीं, शिक्षा देने में वह इतने तल्लीन हो जाते हैं। जड़ी बूटियों का जितना ज्ञान उन्होंने बड़े-बड़े महात्माओं से बरसों में प्राप्त किया था, वह सब शङ्खधर को सिखा दिया। वह उसे कोई नयी बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म दृष्टि पड़ती रहती है। दूसरों से उसकी सज्जनता और सहन-शीलता का बखान सुनकर उन्हें कितना गर्व होता है! वह मारे आनन्द के गद्‌गद हो जाते हैं, उनकी आँखें सजल हो जाती हैं। सब जगह यह बात खुल गयी है कि यह युवक उनका पुत्र है। दोनों की सूरत इतनी मिलती है कि चक्रधर के इन्कार करने पर भी किसी को विश्वास नहीं आता। जो बात सब जानते हैं, उसे वह स्वयं नहीं जानते और न जानना ही चाहते हैं।

एक दिन वह एक गाँव में पहुँचे, तो वहाँ दंगल हो रहा था। शङ्खधर भी अखाड़े के पास जाकर खड़ा हो गया। एक पट्ठे ने शङ्खधर को ललकारा। वह शंखधर का ढ्योढा था; पर शंखधर ने कुश्ती मंजूर कर ली। चक्रधर बहुत कहते रहे—यह लड़का लड़ना क्या जाने, कभी लड़ा हो तो जाने। भला, यह क्या लड़ेगा; लेकिन शंखधर लँगोट कसकर अखाड़े में उतर ही तो पड़ा! उस समय चक्रधर की सूरत देखने योग्य थी। चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था। अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिलकुल उदासीन है। भला, लड़को के खेल से बाबाजी का क्या सम्बन्ध? लेकिन किसी-न-किसी बहाने अखाड़े की ओर आ ही जाते थे। जब उस पट्ठे ने पहली ही पकड़ में शंखधर को धर दबाया, तो बाबाजी आवेश में कर स्वयं झुक गये, शंखधर ने जोर मारकर उस पट्ठे को ऊपर उठाया तो बाबाजी भी सीधे हो गये और जब शंखधर ने कुश्ती मार ली, तब तो चक्रधर उछल पड़े और दौड़कर शंखधर को गले लगा लिया। मारे गर्व के उनकी आँखें उन्मत्त सी हो गयीं। उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना।

शङ्खधर को कभी कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पड़ें और साफ-साफ कह दूँ। वह मन में कल्पना किया करता कि अगर ऐसा करूँ, तो वह क्या कहेंगे? कदाचित् उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी और की राह लेंगे। इस भय से बात उसके मुँह तक आ के रुक जाती थी; मगर उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी कभी पुत्र प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ—बेटा, तुम मेरी ही आँखों के तारे हो; तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी; सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएँ सुनते कभी न थकते थे। रानी जी उससे कितना प्रेम करती थीं, यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुखी हो जाते थे। जिन बाबाजी की रूखे-सूखे भोजन से तुष्टि होती थी, यहाँ, तक कि भक्तों के बहुत आग्रह करने पर भी खोये और मक्सन को हाथ से न छूते थे, वही बाबाजी इन पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो जाते थे। वह स्वयं अब भी वही रुखा सूखा भोजन ही करते थे; पर शंखधर को खिलाने में जो आनन्द मिलता था, वह क्या कभी आप खाने में मिल सकता था?

इस तरह एक महीना गुजर गया और अब शङ्खधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर ले चलूँ। अहा, कैसे आनन्द का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुँचूँगा!

लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूँ? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आयेंगी। सभी आयेंगे। तब देखूँ, यह किस तरह निकलते हैं। वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगायी। अब तक तो अम्माँजी पहुँच गयी होतीं। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहाँ का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन सभी बातें स्पष्ट करके लिख दीं! अन्त में यह लिखा—आप आने में विलम्ब करेंगी, तो पछतायँगी। यह आशा छोड़ दीजिए कि मैं जगदीशपुर राज्य का स्वामी बनूँगा। पिताजी के चरणों की सेवा छोड़कर मैं राज्य सुख नहीं भोग सकता। यह निश्चय है। इन्हें यहाँ से ले जाना असम्भव है। इन्हें यदि मालूम हो जाय कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अन्तर्धान हो जायँ। मैंने इनको अपना परिचय दे दिया है, आप लोगों की बातें भी सुनाया करता हूँ; पर मुझे इनके मुख पर जरा भी आवेश का चिह्न नहीं दिखायी देता, भावों पर इन्होंने इतना अधिकार प्राप्त कर लिया है। आप जल्द से जल्द आवें।

वह सारी रात इस कल्पना में मग्न रहा कि अम्माँजी आ जायँगी, तो पिताजी को झुककर प्रणाम करूँगा और पूछूँगा—अब भागकर कहाँ जाइएगा? फिर हम दोनों इनका गला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है?