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कायाकल्प/४७

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ३२२ से – ३२४ तक

 

४७

एक महीना पूरा गुजर गया और न अहल्या ही आयी, न कोई दूसरा ही। शङ्खधर दिन-भर उसकी बाट जोहता रहता। रेल का स्टेशन वहाँ से पाँच मील पर था। रास्ता भी साफ था। फिर भी कोई नहीं आया। चक्रधर जब कहीं चले जाते, तो वह चुपके से स्टेशन की राह लेता और निराश लौट आता। आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही। अहल्या ने लिखा था—मैं बड़ी अभागिनी हूँ। तुमने इतनी कठिन तपस्या करके जिस देवता के दर्शन कर पाये, उसके दर्शन करने की परम अभिलाषा होने पर भी मैं हिल नहीं सकती। एक महीने से बीमार हूँ, जीने की आशा नहीं। अगर तुम आ जाओ, तो तुम्हें देख लूँ, नहीं तो यह अभिलाषा भी साथ जायगी! मैं कई महीने हुए, आगरे में पड़ी हूँ। जी घबराया करता है। अगर किसी तरह स्वामीजी को ला सको, तो अन्त समय उनके चरणों के दर्शन भी कर लूँ। मैं जानती हूँ, वह न आयेंगे। व्यर्थ ही उनसे आग्रह न करना, मगर तुम आने में एक क्षण का भी बिलम्ब न करना।

शङ्खधर डाकखाने के सामने खड़ा देर तक रोता रहा। माताजी बीमार हैं। पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई है। क्या वह माता को इस दशा में छोड़कर एक क्षण भी यहाँ विलम्ब कर सकता है? उसने पाँच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसी व्यथा से वह अधीर हो उठा।

उसका मुख उतरा हुआ देखकर चक्रधर ने पूछा—क्यों बेटा, आज उदास क्यों मालूम होते हो?

शङ्खधर—माता जी का पत्र आया है, वह बहुत बीमार हैं। मैं पिताजी को खोजने निकला था। वह तो न मिले, माताजी भी चलीं जा रही हैं। पिताजी इस समय मिल जाते, तो मैं उनसे अवश्य कहता चक्रधर—क्या कहते, कहो न?

शंखधर—कह देता कि...कि...आप ही माताजी के प्राण ले रहे हैं। आपका विराग और तप किस काम का, जब अपने घर के प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते? आपके पास बड़ी-बड़ी आशाएँ लेकर आया था; पर आपने भी अनाथ पर दया न की। आपको परमात्मा ने योगबल दिया है, आप चाहते, तो पिताजी की टोह लगा देते।

चक्रधर ने गम्भीर स्वर में कहा—बेटा, मैं योगी नहीं हूँ; पर तुम्हारे पिताजी की टोह लगा चुका हूँ। उनसे मिल भी चुका हूँ। तुम नहीं जानते; पर वह गुप्त रीति से तुम्हें देख भी चुके हैं। आह! उन्हें तुमसे जितना प्रेम है, उसकी कल्पना नहीं कर सकते। तुम्हारी माता को वह नित्य याद किया करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसे छोड़ नहीं सकते और न स्वयं किसी के साथ जबरदस्ती कर सकते हैं। तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहाँ रह गयी थीं। वह तो उन्हें अपने साथ लाने को तैयार थे!

शंखधर—आजकल तो माताजी आगरे में हैं। वागीश्वरी देवी से मिलने आयी थीं, वहीं बीमार पड़ गयीं, लेकिन आपने पिताजी से भेंट की और मुझसे कुछ न कहा। इससे तो यह प्रकट होता है कि आपको भी मुझपर दया नहीं आती।

चक्रधर ने कुछ जवाब न दिया। जमीन की ओर ताकते रहे। वह अत्यन्त कठिन परीक्षा में पड़े हुए थे। बहुत दिनों के बाद, अनायास ही उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। वे सारी भावनाएँ, सारी अभिलाषाएँ, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थीं और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं। वह मोह बन्धन, जिसे उन्होंने बड़ी मुश्किलों से ढीला कर पाया था, अब उन्हें शतगुण वेग से अपनी ओर खींच रहा था। मानो उसका हाथ उनके अस्थि-पंजर को चीरता हुआ उनके अन्तस्तल तक पहुँच गया है।

सहसा शंखधर ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा—तो मैं निराश हो जाऊँ?

चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्‌वास को दबाते हुए कहा—नहीं बेटा, सम्भव है, कभी वह स्वयं पुत्र प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जायें। इसका निश्चय तुम्हारे आचरण करेंगे। अगर तुम अपने जीवन में ऊँचे आदर्श का पालन कर सके, तो तुम उन्हें अवश्य खींच लोगे। यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गये, तो कदाचित इस शोक में वह अपने प्राण दें।

शंखधर—आपके दर्शन मुझे फिर कब होंगे? आपका पता कैसे मिलेगा? यद्यपि मुझे पिताजी के दर्शनों का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ; लेकिन पिता के पुत्र-प्रेम की मेरे मन में जो कल्पना थी, जिसकी तृष्णा मुझे पाँच साल तक वन-वन घुमाती रही, वह आपकी दया से पूरी हो गयी। मैंने आपको पिता-तुल्य ही समझा है और जीवन-पर्यन्त समझता रहूँगा। यह स्नेह, यह वात्सल्य, यह अपार करणा मुझे कभी न भूलेगी। इन चरण कमलों की भक्ति मेरे मन में सदैव बनी रहेगी। आपके दर्शनों के लिए मेरी आत्मा सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आ जाऊँगा।

चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा—नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूँगा। मैंने भी तुमको पुत्र तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूँगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

सन्ध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था, मानो उनका हृदय वक्षस्थल को तोड़कर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आँखों से ओझल हो गया, तो उन्होंने एक लम्बी साँस ली और बालकों की भाँति बिलख बिलखकर रोने लगे। ऐसा मालूम हुआ मानो चारों ओर शून्य है। चला गया! वह तेजस्वी कुमार चला गया, जिसको देखकर छाती मन भर की हो जाती थी, और जिसके जाने से अब जीवन निरर्थक, व्यर्थ जान पड़ता था।

उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा-सम्पन्न युवक के दर्शन न होंगे!