कायाकल्प/५१

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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५१

कमला को जगदीशपुर में आकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक युग के बाद अपने [ ३४२ ]घर आयी है। वहाँ की सभी चीजें, सभी प्राणी उसके जाने-पहचाने थे, पर अब उनमें कितना अन्तर हो गया था। उसका विशाल नाच घर बिलकुल बेमरम्मत पड़ा हुआ था। मोर उड़ गये थे, हिरन भाग गये थे और फौवारे सूखे हुए पड़े थे। लताएँ और गमले कब के मिट चुके थे, केवल लम्बे-लम्बे स्तम्भ खड़े थे, पर कमला को नाच घर के विध्वंस होने का जरा भी दुःख न हुआ। उसकी यह दशा देखकर उसे एक प्रकार का सन्तोष हुआ, मानो उसके घृणित विलास की चिता हो। अगर वह नाच-घर आज वैसा ही हराभरा होता, जैसा उसके समय में था, तो क्या वह उसके अन्दर कदम रख सकती? कदाचित् वह वहीं गिर पड़ती। अब भी उसे ऐसा जान पड़ा कि यह उसके उसी जीवन का चित्र है। कितनी ही पुरानी बातें उसकी आँखों में फिर गयीं, कितनी ही स्मृतियाँ जागृत हो गयीं। भय और ग्लानि से उसके रोएँ खड़े हो गये। आह! यही वह स्थान है, जहाँ उस हतभागिनी ने स्वयं अपने पति को न पहिचानकर उसके लिए अपने कलुषित प्रेम का जाल बिछाया था! आह! काश वह पिछली बातें भूल जाती। उस विकास जीवन की याद उसके हृदय-पट से मिट जाती! उन बातों को याद रखते हुए क्या उस जीवन का आनन्द उठा सकती थी? मृत्यु का भयंकर हाथ न जाने कहाँ से निकलकर उसे डराने लगा। ईश्वरीय दण्ड के भय से वह काँप उठी। दीनता के साथ मन में ईश्वर से प्रार्थना की—भगवान् , पापिनी मैं हूँ, मेरे पापों के लिए महेन्द्र को दण्ड मत देना। मैं सहस्र जीवन तक प्रायश्चित्त करूँगी, मुझे वैधव्य की आग में न जलाना।

नाच-घर से निकलकर देवप्रिया ने रानी मनोरमा के कमरे में प्रवेश किया। वह अनुपम छवि अब मलिन पड़ गयी थी। जिस केश राशि को हाथ में लेकर एक दिन वह चकित हो गयी थी, उसका अब रूपान्तर हो गया था। जिन आँखों में मद-माधुर्य का प्रवाह था, अब वह सूखी पड़ी थीं। उत्कण्ठा की करुण-प्रतिमा थी, जिसे देखकर हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। कौन कह सकता था, वह सरला विशालसिंह के गले पड़ेगी।

मनोरमा बोली—नाच घर देखने गयी थीं। आजकल तो बेमरम्मत पड़ा हुआ है। उसकी शोभा तो रानी देवप्रिया के साथ चलो गयी।

देवप्रिया ने धीरे से कहा—वहाँ आग क्यों न लग गयी—यही आश्चर्य है?

मनोरमा—क्या कुछ सुन चुकी हो!

देवप्रिया—हाँ, जितना जानती हूँ, उतना ही बहुत है। और ज्यादा नहीं जानना चाहती।

यहाँ से वह रानी रामप्रिया के पास गयी। उसे देखकर देवप्रिया की आँखें सजल हो गयीं। बड़ी मुश्किल से आँसुओं को रोक सकी। आह! जिस बालिका को उसने एक दिन गोद में खिलाया था, वही अब इस समय यौवन की स्मृति मात्र रह गयी थी।

देवप्रिया ने वीणा की ओर देखकर कहा—आपको संगीत से बहुत प्रेम है?

रामप्रिया अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर ताक रही थी। शायद देवप्रिया की बात उसके कानों तक पहुँची ही नहीं। [ ३४३ ]

देवप्रिया ने फिर कहा—मैं भी आप से कुछ सीखूँगी।

रामप्रिया अभी तक उसकी मुख छवि निहारने में मग्न थी। अब की भी कुछ न सुन सकी?

देवप्रिया फिर बोली—आपको मेरे साथ बहुत परिश्रम न करना पड़ेगा। थोड़ा बहुत जानती भी हूँ।

यह कहकर उसने फिर वीणा उठा ली और यह गीत गाने लगी—

प्रभु के दर्शन कैसे पाऊँ?
बनकर सरस-सुमन को लतिका, पद कमलों से लग जाऊँ,
या तेरे मन-मन्दिर की हरि, प्रेम-पुजारिन बन जाऊँ।
प्रभु के दर्शन कैसे पाऊँ?

आह! यही गीत था, जो रामप्रिया ने कितनी बार देवप्रिया को गाते सुना था, वही स्वर था, वही माधुर्य था, वही लोच था, वही हृदय मे चुभानेवाली तान थी। रामप्रिया ने भयातुर नेत्रों से देवप्रिया की ओर देखा और मूर्छित हो गयी। देवप्रिया को भी अपनी आँखों के सामने एक परदा-सा गिरता हुआ मालूम हुआ। उसकी आँखें आपही आप झपकने लगीं। एक क्षण और, सारा रहस्य खुल जायगा! कदाचित कायाकल्प का आवरण हट जाय और फिर न जाने क्या हो! वह रामप्रिया को उसी दशा में छोड़कर इस तरह अपने भवन की ओर चली, मानो कोई उसे दौड़ा रहा हो।

मनोरमा को ज्योंही एक लौंडी से रामप्रिया के मूर्च्छित हो जाने की खबर मिली, वह तुरन्त रामप्रिया के पास आयी और घण्टों की दौड़-दूप के बाद कहीं रामप्रिया ने आँखें खोलीं। मनोरमा को खड़ी देखकर वह फिर सहम उठी और सशंक दृष्टि से चारों ओर देखकर उठ बैठी।

मनोरमा ने कहा—आपको एकाएक यह क्या हो गया? अभी ती बहूजी यहाँ बैठी थीं।

रामप्रिया ने मनोरमा के कान के पास मुँह ले जाकर कहा—कुछ कहते नहीं बनता बहन! मालूम नहीं आँखों को धोखा हो रहा है, या क्या बात है। बहू की सूरत बिलकुल देवप्रिया बहन से मिलती है। रत्ती भर भी फर्क नहीं है।

मनोरमा—कुछ-कुछ मिलती तो है, मगर इससे क्या? एक ही सूरत के दो आदमी क्या नहीं होते?

रामप्रिया—नहीं मनोरमा, बिलकुल वही सूरत है। रंग-ढग, बोल-चाल सब वही है। गीत भी इसने वही गाया, जो देवप्रिया बहन गाया करती थीं। बिल्कुल यही स्वर था, यही आवाज। अरे बहन, तुमसे क्या कहूँ, आँखों में वही मुस्कुराहट है, तिल और मसों में भी फर्क नहीं। तुमने देवप्रिया को जवानी में नहीं देखा। मेरी आँखों में तो आज भी उनकी यह मोहिनी छवि फिर रही है। ऐसा मालूम होता है कि बहन स्वयं कहीं से आ गयी हैं। क्या रहस्य है, कह नहीं सकती; पर यह वही देवप्रिया हैं, इसमें रत्ती भर [ ३४४ ]भी सन्देह नहीं।

मनोरमा—राजा साहब ने भी तो रानी देवप्रिया को जवानी में देखा होगा।

रामप्रिया—हाँ, देखा है और देख लेना, वह भी यही बात कहेंगे। सुरत का मिलना और बात है, वही हो जाना और बात है। चाहे कोई माने या न माने; मैं तो यही कहूँगी कि देवप्रिया फिर अवतार लेकर आयी हैं।

मनोरमा—हाँ यह बात हो सकती है।

रामप्रिया—सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इसने गीत भी वही गाया, जो देवप्रिया बहन को बहुत पसन्द था। ज्योतिषियों से इस विषय में राय लेनी चाहिए। देवप्रिया को जो कुछ भोग विलास करना था, कर चुकी। अब वह यहाँ क्या करने आयी है?

मनोरमा—आप तो ऐसी बातें कर रही हैं, मानो वह अपनी खुशी से आयी है।

रामप्रिया—यह तो होता ही है, और तुम क्या समझती हो? आत्मा को वही जन्म मिलता है, जिसकी उसे प्रबल इच्छा होती है। मैंने कई पुस्तकों में पढ़ा है, आत्माएँ एक जन्म का अधूरा काम पूरा करने के लिए फिर उसी घर में जन्म लेती हैं। इसकी कितनी ही मिसालें मिलती हैं।

मनोरमा—लेकिन रानी देवप्रिया तो राज-पाट स्वयं छोड़कर तीर्थयात्रा करने गयीं थी।

रामप्रिया—क्या हुआ बहन, उसकी भोग तृष्णा शान्त न हुई थी। अगर वही तृष्णा उन्हे फिर लायी है, तो कुशल नहीं है।

मनोरमा—आपकी बातें सुनकर तो मुझे भी शंका होने लगी है।

इसी समय अहल्या सामने से निकल गयी। मारे गर्व और आनन्द के उसके पाँव नमीन पर न पड़ते थे। पति की याद भी इस आनन्द प्रवाह में विलीन हो गयी थी, जैसे संगीत की ध्वनि आकाश में विलीन हो जाती है।