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कायाकल्प/५२

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ३४४ से – ३४७ तक

 

५२

मुंशी वज्रधर ने यह शुभ-समाचार सुना, तो फौरन् घोड़े पर सवार हुए और राजभवन आ पहुँचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पाँव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया। मुंशीजी ने पोते को छाती से लगा लिया और गद्‌गद कण्ठ से बोले—यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूँ। यह अमिलाषा पूरी हो गयी। बस, इतनी लालसा और है कि तुम्हारा राज-तिलक देख लूँ। तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गये?

शंखधर ने लजाते हुए कहा—जी नहीं, शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूँ?

मुंशी—तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाये?

शंखधर—वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने अपने को जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो शायद वह मुझसे मिलना भी स्वीकार न करते।

इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयो का और पिता से मिलने का सारा वृत्तान्त कहा।

यों बातें करते हुए मुंशीनी राजा साहब के पास जा पहुँचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उसका अभिवादन किया और बोले—आप तो इधर का रास्ता ही भूल गये।

मुन्शीजी—महाराज, अब आपका और मेरा सम्बन्ध और प्रकार का है। ज्यादा आऊँ जाऊँ तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत से आते होंगे। कभी जिन्दगी में धनी नहीं रहा; पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।

राजा—आखिर आप दिन-भर बैठे बैठे वहाँ क्या करते हैं, दिल नहीं घबराता? (मुस्कराकर) समधिनजी में भी तो अब आकर्षण नहीं रहा?

मुन्शीजी—वाह, आप उस आकर्षण का मजा क्या जानेंगे? मेरा तो अनुभव है कि स्त्री-पुरुप का प्रेम-सूत्र दिन-दिन दृढ़ होता जाता है। अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शांति का आनन्द उठा लें।

राजा—विचार तो मेरा भी है; लेकिन मुन्शीजी, न-जाने क्या बात है कि जबसे शंखधर आया है; क्यों शङ्का हो रही है कि इस मंगल में कोई न-कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल को बहुत समझाता हूँ, लेकिन न जाने क्यों यह शंका अन्दर से निकलने का नाम नहीं लेती।

मुन्शीजी—आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब टूटी हुई आशाएँ पूरी हो गयीं, तो अब सब कुशल ही होंगी। आज मेरे यहाँ कुछ आनन्दोत्सव होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावन्त आये हुए हैं, सभी आयेंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।

राजा—नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शान्त नहीं। आपसे सत्य कहता हूँ मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणान्त हो जाय, तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। अगर प्राण दे देने की कोई सरल तरकीब मुझे मालूम होती, तो जरूर दे देत । शोक की पराकाष्ठा देख ली। आनन्द की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है। डरता हूँ, कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाय।

मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब को तस्कीन देते रहे, फिर सब महिलाओ को अपने यहाँ आने का निमन्त्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर वह घोड़े पर सवार हो गये। इस निर्द्वन्द्व जीव ने चिन्ताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी, ऐश्वर्य की इच्छा थी; पर उनपर जान न देते थे, संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव से जीवन-पर्यन्त उनका गला न छुटा। एक समय था, जब स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊँ और, क्या दे दूँ? बस, फिक्र थी तो इतनी ही। कमर झुक गयी थी, आँखों से सूझता भी कम था, लेकिन मजलिस नित्य जमती थी, हँसी दिल्लगी करने में कभी न चूकते थे। दिल में कभी किसी से कीना नहीं रखा और न कभी किसी की बुराई चेती।

***

दूसरे दिन संध्या-समय मुंशीजी के घर बड़ी धूम धाम से उत्सव मनाया गया। निर्मला पोते को छाती से लगाकर खूब रोयी। उसका जी चाहता था, यह मेरे ही घर रहता। कितना आनन्द होता! शङ्खधर से बात करने से उसकी तृप्ति ही न होती थी। अहल्या ही के कारण उसका पुत्र हाथ से गया। पोता भी उसी के कारण हाथ से जा रहा है। इसलिए अब भी उसका मन अहल्या से न मिलता था। निर्मला को अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सभी प्रकार का कष्ट सहना मंजूर था। वह अब इस अन्तिम समय किसी को आँखों की ओट न करना चाहती थी। न जाने कब दम निकल जाय, कब आँखें बन्द हो जायँ। बेचारी किसी को देख भी न सके।

बाहर गाना हो रहा था। मुंशीजी शहर के रईसों की दावत का इन्तलाम कर रहे थे। अहल्या लालटेन ले-लेकर घर-भर की चीजों को देख रही थी और अपनी चीजों के तहस-नहस होने पर मन ही मन झुँझला रही थी। उधर निर्मला चारपाई पर लेटी शंखधर की बातें सुनने में तन्मय हो रही थी। कमला उसके पाँव दबा रही थी, और शङ्खधर उसे पंखा झल रहा था। क्या स्वर्ग में इससे बढ़कर कोई सुख होगा? इस सुख से उसे अहल्या वंचित कर रही थी। आकर उसका घर मटियामेट कर दिया।

प्रातःकाल जब शङ्खधर विदा होने लगे, तो निर्मला ने कहा—बेटा, अब बहुत दिन न चलूँगी। जब तक जीती हूँ, एक बार रोज आया करना।

मुंशीजी ने कहा—आखिर सैर करने तो रोज ही निकलोगे। घूमते हुए इधर भी आ जाया करो। यह मत समझो कि यहाँ आने से तुम्हारा समय नष्ट होगा। बड़े बूढ़ों के आशीर्वाद निष्फल नहीं जाते। मेरे पास राजपाट नहीं, पर ऐसा धन है, जो राजपाट से कहीं बढ़कर है। बड़ी सेवा, बड़ी तपस्या करके मैंने उसे एकत्र किया है। वह मुझसे ले लो। अगर साल भर भी बिला नागा अभ्यास करो, तो बहुत कुछ सीख सकते हो। इसी विद्या की बदौलत तुमने पाँच वर्ष देश-विदेश की यात्रा की। कुछ दिन और अभ्यास कर लो, तो पारस हो जाओ।

निर्मला ने मुंशीजी का तिरस्कार करते हुए कहा—भला, रहने दो अपनी विद्या, आये हो वहाँ से बड़े विद्वान् बनके! उसे तुम्हारी विद्या नहीं चाहिए। चाहे तो सारे देश के उस्तादों को बुलाकर गाना सुने। उसे कमी काहे की है?

मुंशी—तुम तो ही मूर्ख। तुमसे कोई क्या कहे? इस विद्या से देवता प्रसन्न हो जाते हैं, ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, तुम्हें कुछ खबर भी है? जो बड़े भाग्यवान् होते हैं, उन्हें ही यह विद्या आती है।

निर्मला—जभी तो बड़े भाग्यवान् हो। मुंशी—तो और क्या भाग्यहीन हूँ? जिसके ऐसा देवरूप पोता हो, ऐसी देव-कन्या सी बहू हो, मकान हो, जायदाद हो, चार को खिलाकर खाता हो, क्या वह अभागा है? जिसकी इज्जत-आबरू से निभ जाय, जिसका लोग यश गावें, वही भाग्यवान् है। धन गाड़ लेने ही से कोई भाग्यवान् नहीं हो जाता।

आज राजा साहब के यहाँ भी उत्सव था; इसलिए शङ्खधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।

स्त्रियाँ निर्मला के चरणों को अञ्चल से स्पर्श करके विदा हो गयीं, तो शङ्खघर खड़े हुए। निर्मला ने रोते हुए कहा—कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूँगी।

शङ्खधर ने कहा—अवश्य आऊँगा।

जब मोटर पर बैठ गये, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती रही। शङ्खधर के साथ उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्विग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय-विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्ध-जनों की भी क्या यही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा। या मिलेगी, तो दया। शङ्खधर की आँखों मे आँसू न थे, हृदय में तड़प न थी, वह यों प्रसन्नचित्त चले जा रहे थे, मानो सैर करके लौटे जा रहे हों।

मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुन्शी वज्रधर की आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था।