कायाकल्प/५७
५७
रानी मनोरमा नये भवन मे रहती है। उसने कितनी ही चिड़िया पाल रखी हैं ।
उन्ही की देख-रेख मे अब वह अपने दिन काटती है। पक्षियों के कलरव में वह अपनी मनोव्यथा को विलीन कर देना चाहती है। उसके शयनागार में सोने के चौखट में जड़ा हुआ एक चित्र दीवार से लटका हुआ है, जिसमें दीवान हरिसेवक के मुँह से निकले हुए ये शब्द अंकित हुए हैं—
'लौंगी को देखो!'
आज से कई साल पहले, जब राजा साहब जीवित थे, मनोरमा को उसके पिता ने यही अन्तिम उपदेश दिया था। उसी दिन से यह उपदेश उसका जीवन मन्त्र बना हुआ है।
चक्रधर बहुत दिन घर पर न रहे। माता-पिता के बाद वह घर, घर ही न रहा। फिर दक्षिण की ओर सिधारे, लेकिन अब वह केवल सेवा-कार्य ही नहीं करते, उन्हें पक्षियों से बहुत प्रेम हो गया है। विचित्र पक्षियों को उन्हें नित्य खोज रहती है। भक्तजन उनका यह पक्षी-प्रेम देखकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार के पक्षी लाते रहते हैं। इन पक्षियों के अलग-अलग नाम हैं। अलग अलग उनके भोजन की व्यवस्था हैं। उन्हें पढ़ाने, घुमाने व चुगाने का समय नियत है।
साँझ हो गयी थी। मनोरमा बाग में टहल रही थी। सहसा होज के पास एक बहुत ही सुन्दर पिंजरा दिखायी दिया। उसमें एक पहाड़ी मैना बैठी हुई थी। रानीजी को आश्चर्य हुआ। यहाँ पिजरा कहाँ से आया? उसके पास कई पहाड़ी चिड़ियाँ थीं, जिन्हें उसने सैकड़ों रुपये खर्च करके खरीदा था, पर ऐसी सुन्दर एक भी न थी। रंग पीला था, सिर पर लाल दाग था, चोंच इतनी प्यारी कि चूम लेने का जी चाहता था। मनोरमा समीप गयी, तो मैना बोली—नोरा! हमें भूल गयीं? तुम्हारा पुराना सेवक हूँ।'
मनोरमा के आश्चर्य का वारापार न रहा। उसे कुछ भय सा लगा। इसे मेरा नाम किसने पढ़ाया? किसकी चिड़िया है? यहाँ कैसे आयी? इसका स्वामी अवश्य कोई होगा। आता होगा, देखूँ, कौन है?
मनोरमा बड़ी देर तक खड़ी उस आदमी का इन्तजार करती रही। जब अब भी कोई न आया, तो उसने माली को बुलाकर पूछा—यह पिंजरा बाग में कौन लाया?
माली ने कहा—पहचानता तो नहीं हजूर, पर हैं कोई भले आदमी। मुझसे देर तक रियासत की बातें पूछते रहे। पिंजरा रखकर गये कि और चिड़ियाँ लेता आऊँ, पर लौटकर न आये।
रानी—आज फिर आयेंगे?
माली—हाँ हजूर कह तो गये हैं।
रानी—आयें तो मुझे खबर देना।
माली—बहुत अच्छा सरकार।
रानी—सूरत कैसी है, बता सकता है?
माली—बड़ी-बड़ी आँखे हैं हजूर, लम्बे आदमी हैं। एक एक बाल पक रहा है। रानी पिंजरा लिये हुए चली आयी। रात-भर वही मैना उसके ध्यान में बसी रही। उसकी बातें कानों में गूँजती रहीं।
कौन कह सकता है, यह सकेत पाकर उसका मन कहाँ-कहाँ विचर रहा था। सारी रात वह मधुर स्मृतियों का सुखद स्वप्न देखने में मग्न रही। प्रातःकाल उसके मन में आया, चलकर देखूँँ, वह आदमी आया है या नहीं। वह भवन से निकली; पर फिर लौट गयी।
थोड़ी ही देर में फिर वही इच्छा हुई। वह आदमी कौन है, क्या यह बात उससे छिपी हुई थी? वह बाग के फाटक तक आयी; पर वहीं से लौट गयी। उसका हृदय हवा के पर लगाकर उस मनुष्य के पास पहुँच जाना चाहता था, पर आह! कैसे जाय?
चार बजे वह ऊपर के कमरे में जा बैठी और उस आदमी की राह देखने लगी। वहाँ से माली का मकान साफ दिखायी देता था। बैठे-बैठे बड़ी देर हो गयी। अँँधेरा होने लगा। रानी ने एक गहरी सॉस ली। शायद अब न आयेंगे।
सहसा उसने देखा, एक आदमी दो पिंजरे दोनों हाथो में लटकाये बाग में आया। मनोरमा का हृदय बाँसो उछलने लगा। सहस्त्र घोड़ों की शक्तिवाला इञ्जिन उसे उस आदमी की ओर खींचता हुआ जान पड़ा। वह बैठी न रह सकी। दोनों हाथों से हृदय को थामे, सॉस वन्द किये, मनोवेग से आन्दोलित वह खड़ी रही। उसने सोचा, माली अभी मुझे बुलाने आता होगा; पर माली न आया और वह आदमी वहीं पिंजरा रखकर चला गया। मनोरमा अब वहाँ न रह सकी। हाय! वह चले जा रहे हैं! तब वही जमीन पर लेटकर वह फफक-फफककर रोने लगी।
सहसा माली ने आकर कहा— सरकार, वह यादमी दो पिंजरे रख गया है और कह गया है कि फिर कभी और चिड़ियाँ लेकर आऊँगा।
मनोरमा ने कठोर स्वर मे पूछा— तूने मुझमे उस वक्त क्यों नहीं कहा?
माली पिनरे को उसके सामने जमीन पर रखता हुआ बोला— सरकार मैं उसी वक्त आ रहा था पर उसी आदमी ने मना किया। कहने लगा, अभी सरकार को क्यों बुलाओगे? मैं फिर कभी और चिड़ियाँ लाकर उनसे आप ही मिलूँँगा।
रानी कुछ न बोली। पिंजरे में बन्द दोनों चिड़ियों को सजल नेत्रो से देखने लगी।