कायाकल्प/५६

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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शंखधर के चले आने के बाद चक्रधर को संसार शून्य जान पड़ने लगा। सेवा का [ ३५९ ]वह पहला उत्साह लुप्त हो गया। उसी सुन्दर युवक की सूरत आँखों में नाचती रहती। उसी की बातें कानों में गूँजा करतीं। भोजन करने बैठते, तो उसकी जगह खाली देखकर उनके मुँह में कौर न धँसता। हरदम कुछ खोये-खोये-से रहते। बार बार यही जी चाहता था कि उसके पास चला जाऊँ। बार-बार चलने का इरादा करते; पर रुक जाते। साईंगञ्ज से जाने का अब उनका जी नहीं चाहता था। इतने दिनों तक वह एक जगह कभी नहीं रहे। शंखधर जिस कम्बल पर सोता था, उसे वह रोज झाड़-पोछकर तह करते हैं। शंखधर अपनी खँजरी यहीं छोड़ गया है। चक्रधर के लिए संसार में इससे बहूमूल्य कोई वस्तु नहीं है। शंखधर की पुरानी धोती और फटे हुए कुरते सिरहाने रखकर सोते हैं। रमणी अपने सुहाग के जोड़े की भी इतनी देख रेख न करती होगी।

सन्ध्या हो गयी है। चक्रधर मन्दिर के दालान बैठे हुए चलने की तैयारी कर रहे हैं। अब यहाँ नहीं रहा जा सकता। उस देवकुमार को देखने के लिए आज वह बहुत विकल हो रहे हैं।

गाँव के चौधरी ने आकर कहा—महाराज, आप व्यर्थ गठरी बाँध रहे हैं। हम लोगों का प्रेम आपको फिर आधे रास्ते से खींच लायेगा। आप हमारी विनती न सुनें पर प्रेम की रस्सी को कैसे तोड़ डालिएगा?

चक्रधर—नहीं भाई, अब जाने दो। बहुत दिन हो गये।

चौधरी का लड़का नीचे रखी हुई खँजरी उठाकर बजाने लगा। चक्रधर ने उसके हाथ से खँजरी छोन ली और बोले—खँजरी हमें दे दो बेटा, टूट जायगी।

लड़के ने रोकर कहा—हम खँजरी लेंगे। चौधरी ने चक्रधर की ओर देखकर कहा—बाबाजी के चरण छुओ, तो दिला दूँ।

चक्रधर बोले—नहीं भाई, खँजरी न दूँगा। यह खँजरी उस युवक की है, जो कई दिनों तक मेरे पास रहा था। दूसरे की चीज कैसे दे दूँ?

गाँव के बहुत-से आदमी जमा हो गये। चक्रधर विदा हुए। कई आदमी मील भर तक उनके साथ आये।

लेकिन प्रातःकाल लोग मन्दिर पर पूजा करने आये, तो देखा कि बाबा भगवान दास चबूतरे पर झाड़ लगा रहे हैं।

एक आदमी बोला—हम कहते थे, महाराज न जाइए, लेकिन आपने न माना। आखिर हमारी भक्ति खींच लायी न। अब इसी गाँव में आपकी कुटी बनानी पड़ेगी।

चक्रधर ने सकुचाते हुए कहा—अभी यहाँ कुछ दिन और अन्न-जल है भाई, सचमुच इस गाँव की मुहब्बत नहीं छोड़ती।

चक्रधर ने मन में निश्चय किया, अब शंखधर को देखने का इरादा कभी न करूँगा। वह अपने घर पहुँच गया। सम्भव है, उसका तिलक भी हो गया हो। मेरी याद भी उसे न आती होगी। मैं व्यर्थ ही उसके लिए इतना चिन्तित हूँ। पुत्र सभी के [ ३६० ]होते हैं, पर उसके पीछे कोई इतना अन्धा नहीं हो जाता कि और सब काम छोड़कर बस उसी के नाम रोता रहे।

फिर सोचा—एक बार देख आने में हरज ही क्या है? कोई मुझे बाँध तो रखेगा नहीं। जब उस वक्त कोई न रोक सका, तो आज कौन रोकेगा? जरा देखूँ, किस ढंग से राज करता है। मेरे उपदेशों का कुछ फल हुआ, या पड़ गया उसी चक्कर में? धुन का पक्का तो जरूर है। कर्मचारियों के हाथ की कठपुतली तो शायद न बने, मगर कुछ कहा नहीं जा सकता। मानवीय चरित्र इतना जटिल है कि बुरे-से-बुरा आदमी देवता हो जाता है, और अच्छे-से-अच्छा आदमी भी पशु। मुझे देखकर झेंपेगा तो क्या! मै यों उसके सम्मुख जाऊँ ही क्यों? दूर ही से देख कर चला आऊँगा। रंग-ढंग तो दो-चार आदमियों से बातें करते ही मालूम हो जायगा।

यह सोचते-सोचते चक्रधर सो गये। रात को उन्हें एक भयंकर स्वप्न दिखाई दिया। क्या देखते हैं कि शंखधर एक नदी के किनारे उनके साथ बैठा हुआ है। सहसा दूर से एक नाव आती हुई दिखायी दी। उसमें से मन्नासिंह उतर पड़ा। उसने हँसकर कहा—बाबूजी, यही राजकुमार हैं न? मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूँ। राजा साहब इन्हें बुला रहे हैं। शंखधर उठकर मन्नासिंह के साथ चला। दोनों नाव पर बैठे, मन्नासिंह डाँड़ चलाने लगा। चक्रधर किनारे ही खड़े रह गये। नाव थोड़ी ही दूर जाकर चक्कर खाने लगी। शंखधर ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें बुलाया। वह दौड़े, पर इतने में नाव डूब गयी। एक क्षण में फिर नाव ऊपर आ गयी। मन्नासिंह पूर्ववत् डाँड़ चला रहा था, पर शंखधर का पता न था।

चक्रधर जोर से एक चीख मारकर जग पड़े। उनका हृदक धक-धक कर रहा था। उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े—ईश्वर! यह स्वप्न है, या होनेवाली बात। अब उनसे वहाँ न रहा गया। उसी वक्त उठ बैठे, बकुचा लिया और चल खड़े हुए।

चाँदनी छिटकी हुई थी। चारों ओर सन्नाटा था। पर्वत श्रेणियाँ अभिलाषाओं की समाधियों-सी मालूम होती थीं। वृक्षों के समूह श्मशान से उठने वाले धूँए की तरह नजर आते थे। चक्रधर कदम बढ़ाते हुए पथरीली पगडण्डियों पर चले जाते थे।

चक्रधर की इस वक्त वह मानसिक दशा हो गयी थी, जब अपने ही को अपनी खबर नहीं रहती। वह सारी रात पथरीले पथ पर चलते रहे। प्रातःकाल रेलवे स्टेशन मिला। गाड़ी आयी, उसपर जा बैठे। गाड़ी में कौन लोग बैठे थे, उन्हें देख-देखकर लोग उनसे क्या प्रश्न करते थे, उसका वह क्या उत्तर देते थे, रास्ते में कौन-कौन से स्टेशन मिले, कब दोपहर हुई, कब संध्या हुई, इन बातों का उन्हें जरा भी ज्ञान न हुआ। पर वह कर वही रहे थे, जो उन्हें करना चाहिए था। किसी की बात का ऊट-पटाँग जवाब न देते थे, जिन गाड़ियों पर बैठना न चाहिए था, उनपर न बैठते थे, जिन स्टेशनों पर उतरना न चाहिए था, वहाँ न उतरते थे। अभ्यास बहुधा चेतना का स्थान ले लिया करता है। [ ३६१ ]

तीसरे दिन प्रातःकाल गाड़ी काशी जा पहुँची। ज्योंही गाड़ी गंगा के पुल पर पहुँची, चक्रधर की चेतना जाग उठी। सँभल बैठे। गंगा के बायें किनारे पर हरियाली छायी हुई थी। दूसरी ओर काशी का विशाल नगर ऊँची अट्टालिकाओं और गगनचुम्बी मंदिर-कलसों से सुशोभित, सूर्य के स्निग्ध आकाश से चमकता हुआ खड़ा था। मध्य में गगा मन्दगति से अनन्त की ओर दौड़ी चली जा रही थीं, मानो अभिमान से अटल नगर और उच्छृङ्खलता से झूमती हुई हरियाली से कह रही हों—अनन्त जीवन अनन्त प्रवाह में है। आज बहुत दिनों के बाद यह चिर-परिचित दृश्य देखकर चक्रधर का हृदय उछल पड़ा। भक्ति का उद्गार मन में उठा। एक क्षण के लिए वह अपनी सारी चिन्ताएँ भूल गये, गगा-स्नान की प्रबल इच्छा हुई। इसे वह किसी तरह न रोक सके।

स्टेशन पर कई पुराने मित्रों से उनकी भेंट हो गयी। उनकी सूरतें कितनी बदल गयी थीं। वे चक्रधर को देखकर चौंके, कुशल पूछी और जल्दी से चले गये। चक्रधर ने मन में कहा—कितने रूखे लोग हैं कि किसी को बातें करने की भी फुरसत नहीं।

वह एक ताँगे पर बैठकर स्नान करने चले। थोड़ी ही दूर गये थे कि गुरुसेवकसिंह मोटर पर सामने से आते दिखायी दिये। चक्रधर ने ताँगेवाले को रोक दिया। गुरुसेवक ने भी मोटर रोकी और पूछा—क्या अभी चले आ रहे हैं?

चक्रधर—जी हाँ, चला ही आता हूँ।

गुरुसेवक ने मोटर आगे बढ़ा दी। चक्रधर को इनसे इतनी रुखाई की आशा न थी। चित्त खिन्न हो उठा।

दशाश्वमेध घाट पहुँचकर ताँगे से उतरे। इसी घाट पर वह पहले भी स्नान किया करते थे। सभी पण्डे उन्हें जानते थे; पर आज किसी ने भी प्रसन्न-चित्त से उनका स्वागत नहीं किया। ऐसा जान पड़ता था कि उन लोगों को उनसे बातें करते जब्र हो रहा है। किसी ने पूछा, कहाँ कहाँ घूमें? क्या करते रहे?

स्नान करके चक्रधर फिर ताँगे पर आ बैठे और राजभवन की ओर चले। ज्यों-ज्यों भवन निकट आता था, उनका आशंकित हृदय अस्थिर होता जाता था।

ताँगा सिंह-द्वार पर पहुँचा। वह राज्य पताका, जो मस्तक ऊँचा किये लहराती रहती थी, झुकी हुई थी। चक्रधर का दिल बैठ गया। इतने जोर से धड़कन होने लगी, मानो हथौड़े की चोट पड़ रही हो।

ताँगा देखते ही एक बूढ़ा दरबान आकर खडा हो गया, चक्रधर को ध्यान से देखा और भीतर की ओर दौड़ा। एक क्षण में अन्दर हाहाकार मच गया। चक्रधर को मालूम हुआ कि वह किसी भयंकर जन्तु के उदर में पड़े हुए तड़फड़ा रहे हैं।

किससे पूछें, क्या विपत्ति आयी है? कोई निकट नहीं आता। सब दूर सिर झुकाये खड़े हैं। वह कौन लाठी टेकता हुआ चला आता है? अरे! यह तो मुंशी वज्रधर हैं। चक्रधर ताँगे से उतरे और दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़े। [ ३६२ ]
मुशीजी ने तिरस्कार के भाव से कहा-दो चार दिन पहले न आते बना कि लड़के का मुँह तो देख लेते । अब आये हो, जब कि सर्वनाश हो गया ! क्या बैठे यही मना रहे थे ?

चक्रधर रोये नहीं, गम्भीर एव, सुदृढ भाव से बोले-ईश्वर की इच्छा । मुझे किसी ने एक पत्र तक न लिखा । बीमारी क्या थी ?

मुन्शी-अजी, सिर तक नहीं दुखा, बीमारी होना किसे कहते हैं ? बस, होनहार । तकदीर | रात को भोजन करके बैठे एक पुस्तक पढ रहे थे । बहू से बात करते हुए स्वर्ग की राह ली। किसी हकोमचैद्य की अक्ल नहीं काम करती कि क्या हो गया था। जो सुनता है, दाँतोंत्तले अँगुली दबाकर रह जाता है। वेचारे राजा साहब भी इस शोक मे चल बसे । तुमने उसे भुला ही दिया था, पर उसे तुम्हारे नाम की रट लगी हुई थी। वेचारे के दिल में कैसे कैसे अरमान थे ! हम और तुम क्या रोयेंगे, रोती है प्रजा इतने ही दिनों मे सारी रियासत उसपर जान देने लगी थी। इस दुनिया में क्या कोई रहे ! जी भर गया । अब तो जब तक जीना है, तब तक रोना है । ईश्वर बड़ा ही निर्दयी है।

चक्रधर ने लम्बी साँस खींचकर कहा-मेरे कर्मों का फल है। ईश्वर को दोप न दीनिए ।

मुन्शी-तुमने ऐसे कर्म किये होंगे, मैंने नहीं किये । मुझे क्यों इतनी बड़ी चोट लगायी ? मैं भी अब तक ईश्वर को दयालु समझता था, लेकिन अब वह श्रद्धा नहीं रही । गुणानुवाद करते सारी उम्र बीत गयी । उसका यह फल | उसपर कहते हो, ईश्वर को दोष न दीजिए। अपने कल्याण ही के लिए तो ईश्वर का भजन किया है, या किसी को जीभ खुजलाती है ? कसम ले लो, जो आज से कभी एक पद भी गाऊँ। तोड़ आया सितार, सारगी, सरोद, पखावज; सब पटककर तोड़ डाले। ऐसे निर्दयी की महिमा कौन गाये और क्यों गाये ? मरदे आदमी, तुम्हारी आँखों से आँसू भी नहीं निकलते ' खड़े ताक रहे हो। मैं कहता हूँ-रो लो, नहीं तो कलेजे में नासूर पड़ जायगा । बड़े बड़े त्यागी देखे हैं, लेकिन जो पेट भरकर रोया नहीं, उसे फिर हँसते नहीं देखा । आओ , अन्दर चलो। बहू ने दीवार से सिर पटक दिया, पट्टी बाँधे पड़ी हुई है । तुम्हें देखकर उसे धीरज हो जायगा। मैं डरता हूँ कि वहाँ जाकर कहीं तुम भी रो न पड़ो, नहीं तो उसके प्राण ही निकल जायेंगे ।

यह कहकर मुन्शीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया और अन्तःपुर में ले गये । अहल्या को उनके आने की खबर मिल गयी थी। उठना चाहती थी, पर उठने की शक्ति न थी।

चक्रधर ने सामने आकर कहा--अहल्या ! अहल्या ने फिर चेष्टा की । वरसों की चिन्ता, कई दिनों के शोक और उपवास एव बहुत-सा रक्त निकल जाने के कारण शरीर जीर्ण हो गया था। करवट घूमकर दोनों [ ३६३ ]
हाथ पति के चरणो की ओर बढ़ाये; पर वह चरणों को स्पर्श न कर सकी, हाथ फैले रह गये, और एक क्षण मे भूमि पर लटक गये। चक्रधर ने घबराकर उसके मुख की ओर देखा । निराशा मुरझाकर रह गयी थी। नेत्रों में करुण याचना भरी हुई थी।

चक्रधर ने रुंधे हुए स्वर मे कहा-अहल्या, मैं आ गया, अव कहीं न जाऊँगा । ईश्वर से कहता हूँ, कहीं न जाऊँगा । हाय ईश्वर ! क्या तू मुझे यही दिखाने के लिए यहॉ लाया था?

अहल्या ने एक बार तृषित दीन एवं तिरस्कारमय नेत्रों से पति की ओर देखा। आंखें सदैव के लिए बन्द हो गयीं।

उसी वक्त मनोरमा आकर द्वार पर खड़ी हो गयी । चक्रधर ने ऑसुत्रों को रोकते हुए कहा-रानीजी, जरा आकर इन्हें चारपाई से उतरवा दीजिए।

मनोरमा ने अन्दर आकर अहल्या का मुख देखा और रोकर बोली---आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो प्राण तो कब के निकल चुके थे। दुखिया का कोई भी अरमान पूरा न हुआ।

यह कहते-कहते मनोरमा की ऑखो से ऑसुनो की झड़ी लग गयी।

उपसंहार

कई साल बीत गये हैं। मुंशी वज्रधर नहीं रहे । घोड़े की सवारी का उन्हें बड़ा शौक था। नर घोड़े ही पर सवार होते थे। बग्घी, मोटर, पालकी इन सभी को वह जनानी सवारी कहते थे। एक दिन जगदीशपुर से बहुत रात गये लौट रहे थे। रास्ते मे एक नाला पड़ता था । नाले में उतरने के लिए रास्ता भी बना हुया था; लेकिन मुशीजी नाले में उतरकर पार करना अपमान की बात समझते थे । घोड़े ने जस्त मारी, उस पार निकल भी गया, पर उसके पॉव गड्ढे में पड़ गये। गिर पड़ा, मुशीजी भी गिरे और फिर न उठे। हँस-खेलकर जीवन काट दिया, निर्मला भी पति का वियोग सहने के लिए बहुत दिन जीवित न रही । उसकी अन्तिम अभिलापा, कि चक्रधर फिर विवाह कर ले, पूरी न हो सकी।

देवप्रिया फिर जगदीशपुर पर राज्य कर रही है । हॉ, उसका नाम बदल गया हैं। विलासिनी देवप्रिया अब तपस्विनी देवप्रिया है। उसका भविष्य अब अन्धकार-मय नहीं है। प्रभात की आशामयी किरणे उसके जीवन मार्ग को आलोकित कर रही हैं।