कायाकल्प/८

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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जगदीशपुर की रानी देवप्रिया का जीवन केवल दो शब्दो में समाप्त हो जाता था-विनोद और विलास । इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास-वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी। हमारी कर्मेन्द्रियाँ भले ही जर्जर हो जाये, चेप्टाएँ तो वृद्ध नहीं होती ! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषायो की समाधि है, या पुराने पापो का पश्चात्ताप, पर रानी देवप्रिया का बुढापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना । वह दान पुण्य बहुत करती थी; साल मे दो चार यज्ञ भी कर लिया करती थी, साधु-सन्तों पर उनकी असीम श्रद्धा थी और इस धर्मनिष्ठा में उनका ऐहिक स्वार्थ छिपा होता था। परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न श्राती थी। वह भूल गई थीं कि इस जीवन के बाद भी कुछ है। उनके दान और स्नान का मुख्य उद्देश्य था-शारीरिक विकारों से निवृत्ति, विलास में रत रहने की परम योग्यता । यदि वह किसी देवता को प्रसन्न कर सकतीं, तो कदाचित् उससे यही वरदान माँगती कि वह कभी बूढ़ी न हो। इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भाँति भाँति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थी। झुर्रियाँ मिटाने और रग को चमकाने के लिए भी कितने ही प्रकार के पाउडरों, उपटनों और तेलों से काम लिया जाता था । वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयङ्कर न थी। चिन्ता को तो वह अपने पास न फटकने देती थी। रियासत उनके भोग विलास का साधन मात्र यी। प्रजा को क्या कष्ट होता है, उनपर कैसे-कैसे अत्याचार होते हैं, सूखे झूरे की विपत्ति क्योकर उनका सर्वनाश कर देती है, इन बातों की ओर कभी उनका ध्यान न जाता था। उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था । वह ऋण लेकर दे, चोरी करे, या प्रजा का गला काटे, इससे उन्हें कोई प्रयोजन न था।

यों तो रानी साहब को हरएक प्रकार के विनोद से समान प्रेम था। चाहे वह थिएटर हो, या पहलवानों का दगल, या अँगरेजी नाच, पर उनके जीवन की सबसे अानन्दमय घड़ियाँ वे होती थीं, जब वह युवकों और युवतियों के साथ प्रेम-क्रीड़ा करती थीं। इस मण्डली में बैठकर उन्हें श्रात्म प्रवचना का सबसे अच्छा अवसर मिलता था । वह भूल जाती थीं कि मेरा यौवन काल बीत चुका है। अपने बुझे हुए यौवन दीपक को युवा की प्रज्ज्वलित स्फूति से जलाना चाहती थीं, किन्तु इस धुन में वह कितने ही अन्य विलासान्ध प्राणियों की भाँति नीचो को मुंह न लगाती थीं। काशी प्रानेवाले राजकुमारों और रानकुमारियो ही से उनका सहवास रहता था। आनेवालों की कमी न यो । एक न-एक हमेशा ही अाता रहता था । रानी की अतिथि-शाला हमेशा श्राबाद रहती थी। उन्हें युवकों की आँखों में खुब जने की सनक-सी थी। वह चाहती थीं कि [ ५३ ]मेरे सौन्दर्य-दीपक पर युवक पतंगे की भाँति श्राकर गिरें । उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी।

एक दिन ठाकुर हरिसेवकसिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गये । रानी उसे देखकर मोहित हो गयीं। तबसे दिन में एक बार उससे जरूर मिलती। वह किसी कारण से न पाती तो उसे बुला भेजती । उसका मधुर गाना सुनकर वह मुग्ध हो जाती थी। हरिसेवक सिह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहाँ मनोरमा को रईसो और राज-कुमारों को श्राकर्षित करने का मौका मिलेगा।

भदों की अँधेरी रात थी । मूसलाधार वर्षा हो रही थी। रानी साहब को ग्रान कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था, पर पड़े रहने का अव-सर न था । हर्पपुर के राजकुमार को आज उन्होंने निमन्त्रित किया था। उनके आदर- सत्कार का काम करना जरूरी था। उनके सहवास के सुख से वह अग्ने को वचित न कर सकती थीं। उनके आने का समय भी निकट था। रानी ने बड़ी मुश्किल से उठकर पाइने में अपनी सूरत देखी। उनके हृदय पर आघात-सा हुआ । मुख प्रभात-चन्द्र की भॉति मन्द हो रहा था।

रानी ने सोचा-अभी राजकुमार आते होंगे । क्या मैं उनसे इसी दशा मे मिलूँगी ? ससार में क्या कोई ऐसी सञ्जीवनी नहीं है, जो काल के कुटिल चिह्न को मिटा दे ? ऐसी वस्तु कहीं मिल जाती, तो मे अपना सारा राज्य वेचकर उसे ले लेती। जब भोगने की सामर्थ्य ही न हो, तो राज्य से और सुख ही क्या ! हा निर्दयी काल ! तूने मेरा कोई प्रयत्न सफल न होने दिया।

राजकुमार अब अाते होंगे, मुझे तैयार हो जाना चाहिए । ज्वर है, कोई परवा नहीं। मालूम नहीं, जीवन में फिर ऐसा अवसर मिले या न मिले।

सामने मेज पर एक अलबम रखा था। रानी ने राजकुमार का चित्र निकालकर देखा । कितना सहास मुख था, कितना तपस्वी स्वरूप, कितनी सुधामयी छवि !

रानी एक अारामकुरसी पर लेटकर सोचने लगी-यह चित्र न जाने क्यों मेरे चित्त को इतने जोर से खींच रहा है। मेरा चित्त कभी इतना चंचल न हुआ था । इसी अल-चम में और भी कई चित्र हैं, जो इससे कहीं सुन्दर हैं, लेकिन उन नवयुवकों को मैंने कठपुतलियों की तरह नचाकर छोड़ा। यह एक ऐसा चित्र है, जो मेरे हृदय में भूली हुई बातों को याद दिला रहा है, जिसके सामने ताकते हुए मुझे लज्जा-मी अाती है !

रानी ने घड़ी की ओर अातुर नेत्रों से देखा । ६ वन रहे थे । अब वह लेटी न रह सको सँभलकर उठी; अालमारी में से एक शीशी निकाली। उसमें से कई वू दे एक प्याली में डाली और आँखें बन्द करके पी गयी । इसका चमत्कारिक अगर हुया, मानो कोई कुम्हलाया हुआ फूल ताजा हो जाय; कोई सूखी पत्ती हरी हो जाय । उनके मुख-मण्डल पर अामा दौड़ गयी। आँखों में चंचल सजीवता का विकास हो गया, शरीर में नये रक्त का प्रवाह-सा होने लगा। उन्होंने फिर आईने की ओर देखा और उनके [ ५४ ]अधरों पर एक मृदुल हास्य की झलक दिखाई दी। उनके उठने की अाहट पाकर लौंडी कमरे में आकर खड़ी हो गयी । यह उनकी नाइन थी। गुजराती नाम था।

रानी-समय बहुत थोड़ा है, जल्दी कर ।

गुजराती-रानियों को कैसी जल्दी | जिसे मिलना होगा, वह स्वय पायेगा और बैठा रहेगा।

रानी-महीं, आज ऐसा ही अवसर है।

नाइन बड़ी निपुण थी, तुरन्त शृगारदान खोलकर बैठ गयी और रानी का शृगार करने लगी, मानों कोई चित्रकार तसवीर में रंग भर रहा हो । बाघ घटा भी न गुजरा था कि उसने रानी के केश गुथकर नागिन की सी लटें डाल दी । कपोलों पर एक ऐसा रंग भरा कि झुरियाँ गायब हो गयी और मुख पर मनोहर आभा झलकने लगी। ऐसा मालूम होने लगा, मानो कोई सुन्दरी युवती सोकर उठी है। वही अलसाया हुश्रा अग था, वही मतवाली आँखें । रानी ने आईने को श्रोर देखा और प्रसन्न होकर बोलीं--- गुजराती, तेरे हाथ में कोई जादू है। मै तुझे अपने साथ स्वर्ग में ले चलूँगी । वहाँ तो देवता लोग होंगे, तेरी मदद की और भी जरूरत होगी।

गुजराती-आप कमी इनाम तो देती नहीं। बस, बखान करके रह जाती है !

रानी-अच्छा, बता क्या लेगी ?

गुजराती-मै लुंगी, तो वही लूँगी, जो कई बार माँग चुकी हूँ। रुपए-पैसे लेकर मुझे क्या करना है!

यह एक दीवारगीर पर रखी हुई मदन की छोटो-सी मूर्ति थी। चतुर मूर्तिकार ने इस पर कुछ ऐसी कारीगरी की थी जिससे कि दिन के साथ उसका भी रंग बदलता रहता था।

गुजराती-अच्छा, तो न दीजिए, लेकिन फिर मुझसे कभी न पूछिएगा कि क्या लेगी?

रानी-क्या मुझसे नाराज हो गयी ? (चौंककर) वह रोशनी दिखायी दी | कुवर साहब श्रा गये ! मैं झूला-घर में जाती हूँ। वहीं लाना।

यह कहकर रानी ने फिर वही शीशी निकाली और दुगुनी मात्रा में दवा पीकर झूला घर की ओर चलीं। यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पैग ली जा सकती थी। रेशम को डोरियों में पड़ा हुआ एक पटरा छत से लटक रहा था पर चित्रकारो ने ऐसी कारीगरी की थी कि मालूम होता था, किसी वृक्ष को डाल में पड़ा हुआ है। पौधों, झाड़ियों और लताओं ने उसे यमुना तट का कुब्ज-सा बना दिया था। कई हिरन और मोर इधर-उधर विचरा करते थे। रात का उस भवन में पहुँचकर सहसा यह ज्ञान न होता था कि यह कोई भवन है। पानी का रिमझिम बरसना, ऊपर से हल्की-हल्की फुहारों का पड़ना, हौल में जल यक्षियों का क्रीड़ा करना~यह सब किसी उपवन की शोभा दरसाता था। [ ५५ ]रानी झूले की डोरी पकड़कर खड़ी हो गयीं और एक हिरन के बच्चे को बुलाकर उसका मुंह सहलाने लगीं। सहसा कदमों की आहट हुई। रानी मेहमान का स्वागत करने के लिए द्वार पर आयीं पर यह राजकुमार न थे, मनोरमा थी। रानी को कुछ निराशा तो हुई; किन्तु मनोरमा भी आज के अभिनय की पात्री थी। उन्होंने उसे बुलवा भेजा था।

रानी-बड़ी देर लगायी ! तेरी राह देखते-देखते आँखें थक गयीं।

मनोरमा-पानी के मारे घर से निकलने की हिम्मत ही न पड़ती थी।

रानी-राजकुमार ने न जाने क्यों देर की । श्रा, तब तक कोई गीत सुना।

यहीं हौज के किनारे एक सगमरमर का चबूतरा था। दोनों जाकर उस पर बैठ गयीं।

रानी-क्या मैं बहुत बुरी लगती हूँ?

मनोरमा-आप ? श्राप तो सौन्दर्य की देवी मालूम होती हैं !

रानी-चल, झूठी। मुझसे अपना रूप बदलेगी?

मनोरमा-मैं तो आपकी लौंडी की तरह भी नहीं हूँ। मुझे आपके साथ बैठते शरम आती है।

रानी-अच्छा, बता, ससार मे सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है ?

मनोरमा-कोहनूर हीरा होगा, और क्या ?

रानी-दुत् पगली ! संसार की सबसे उत्तम, देव-दुर्लभ वस्तु यौवन है । बता, तूने किसी से प्रेम किया है ?

मनोरमा-जाइए, मै आपसे नहीं बोलती ।

रानी-आह ! तूने तीर मार दिया। यही बिगड़ना तो पुरुपों पर जादू का काम करता है । काश, मेरे मुँह से ऐसी बातें निकलती ! सच बता, तूने किसी युवक से कभी मि किया है ? अच्छा था, आज मैं सिखा दूं।

मनोरमा-आप मुझे छेड़ेंगी, तो मै चली जाऊँगी।

रानी-ऐं, तो इतना चिढ़ती क्यों है ? ऐसी कोई बालिका तो नहीं । देख, सबसे हली बात है--कटाक्ष करने की कला में निपुण होना । जिसे यह कला श्राती है, वह हे चन्द्रमुखी न हो; फिर भी पुरुष का हृदय छीन सकती है। सौन्दर्य स्वयं कुछ नहीं र सकता, उसी तरह जैसे कोई सिपाही शस्त्रों से कुछ नहीं कर सकता, जबतक वह उन्हें लाना न जानता हो । चतुर खिलाड़ी एक बॉस की छड़ी से वह काम कर सकता है,।दूसरे सगीन और बन्दूक से भी नही कर सकते । मान ले, मैं तेरा प्रेमी हूँ। वता, री ओर कैसे ताकेगी?

मनारमा ने लजा से सिर झुका लिया। उसे रानी की रसिकता पर कुतूहल हो रहा वह कितनी ही वार यहाँ आयी थी, पर रानी को कमी इतना मदमत्त न पाया था। राना ने उसकी ठुडडी पकड़कर मुँह उठा दिया और बोली-पगली, इस भांति [ ५६ ]सिर झुकाने से क्या होगा? पुरुष समझेगा, यह कुछ जानती ही नहीं। अच्छा, समझ ले कि तू पुरुष है; देख, मैं तेरी ओर कैसे ताकती हूँ। सिर उठाकर मेरी ओर देख। कहती हूँ सिर उठा, नहीं तो मैं चुटकी काट लूँगी। हाँ, इस तरह।

यह कहकर रानी ने मनोरमा को भृकुटि-विलास और लोचन कटाक्ष का ऐसा कौशल दिखाया कि मनोरमा का अज्ञान मन भी एक क्षण के लिए चंचल हो उठा। कटाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अनुमान हो गया।

रानी—तुझे कुछ मालूम हुआ?

मनोरमा—मुझे तो तीर-सा लगा। आप मोहिनी-मन्त्र जानती होंगी।

रानी—तू युवक होती, तो इस समय छाती पर हाथ धरे आहतों की भाँति खड़ी होती, यह तो कटाक्ष हुआ। आ, अब तुझे बताऊँ कि आँखों से प्रेम की बातें कैसे की जाती हैं। मेरी ओर देख।

यह कहते-कहते रानी को फिर शिथिलता का अनुभव हुआ। 'सुधाबिन्दु' का प्रकाश मन्द होने लगा। विकल होकर पूछा—क्यों री, देख तो मेरा मुख कुछ उतरा जाता है।

मनोरमा ने चौंककर कहा—आपको यह क्या हो गया? मुख बिलकुल पीला पड़ गया है। क्या आप बीमार हैं?

रानी—हाँ बेटी, बीमार हूँ। राजकुमार अब भी नही आये? तू जाकर गुजराती से 'सुधाबिन्दु' की शीशी और प्याला माँग ला। जल्द आना, नही तो मै गिर पड़ूँगी!

मनोरमा दवा लाने गयी, तो राजकुमार इन्द्रविक्रमसिंह को मोटर से उतरते देखा। कोई ३० वर्ष की अवस्था थी। मुख से संयम, तेज और संकल्प झलक रहा था। ऊँचा कद था, गोरा रंग, चौड़ी छाती ऊँचा मस्तक, आँखों में इतनी चमक और तेजी थी कि हृदय में चुभ जाती थी। वह केवल एक पीले रंग का रेशमी कुरता पहने हुए थे और गले में एक सफेद चादर डाल ली थी। मनोरमा ने किसी देव-ऋषि का एक चित्र देखा था। मालूम होता था, इन्हीं को देखकर वह चित्र खींचा गया था।

उनके मोटर से उतरते ही चपरासी ने सलाम किया और लाकर दीवानखाने में बैठा दिया। इधर मनोरमा ने गुजराती से शीशी ली और जाकर रानी से यह समाचार कहा। रानी चबूतरे पर लेटी हुई थीं। सुनते ही उठ बैठीं और मनोरमा के हाथ से शीशी ले, प्याली में बिना गिने कई बूँद निकाल, पी गयी।

दवा ने जाते ही अपना असर दिखाया। रानी के मुख मण्डल पर फिर वही मनोरम छवि, अंगों में फिर वही चपलता, वाणी में फिर वही सरसता, आँखों में फिर वही मधुर हास्य, कपोलों पर वही अरुण ज्योति शोभा देने लगी। वह उठकर झूले पर जा बैठीं। झूला धीरे धीरे झूलने लगा। रानी का अञ्चल हवा से उड़ने लगा और केश बिखर गये। यही मोहिनी छवि वह राजकुमार को दिखाना चाहती थीं।

एक क्षण में राजकुमार ने झूले-घर में प्रवेश किया। रानी झूले से उतरना ही चाहती थीं कि वह उनके पास आ गये और बोले—क्या मधुर कल्पना स्वप्न साम्राज्य में बिहार कर रही हैं? [ ५७ ]

रानी—जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य को गोद में विश्राम कर रही है। इतने देर क्यों राह दिखायी?

राजकुमार—मेरा अपराध नहीं। मैं आ ही रहा था कि विश्वविद्यालय के कई छात्र आ पहुँचे और मुझे एक गम्भीर विषय पर व्याख्यान देने के लिए घसीट ले गये। बहुत हीले हवाले किये; लेकिन उन सबों ने एक न सुनी।

रानी—तो मैं आपसे शिकायत कब करती हूँ। आप आ गये, यही क्या कम अनुग्रह है। न आते तो मैं क्या कर लेती? लेकिन इसका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, याद रखिए। आज रात-भर कैद रखूँगी।

राजकुमार—अगर प्रेम के कारावास में प्रायश्चित है, तो मैं उसमें जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ।

रानी—आप बातें बनाने में निपुण मालूम होते हैं। इन निर्दयी केशों को जरा संभाल दीजिए, बार-बार मुख पर आ जाते हैं।

राजकुमार—मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पर्श करने योग्य नहीं हैं।

रानी ने कनखियों से—मर्मभेदी कनखियों से—राजकुमार को देखा। यह असाधारण जवाब था। उन कोमल, सुगन्धित, लहराते हुए केशों के स्पर्श का अवसर पाकर ऐसा कौन था, जो अपना धन्य भाग न समझता! रानी दिल में कटकर रह गयी। उन्होंने पुरुष को सदैव विलास की एक वस्तु समझा था। प्रेम से उनका हृदय कभी आन्दोलित न हुआ था। वह लालसा ही को प्रेम समझती थीं। उस प्रेम से, जिसमें त्याग और भक्ति है, वह वञ्चित थीं लेकिन इस समय उन्हें उसी प्रेम का अनुभव हो रहा था। उन्होंने दिल को बहुत सँभालकर राजकुमार से इतनी बातें की थीं। उनका अन्तःकरण उन्हें राजकुमार से यह वासनामय व्यवहार करने पर धिक्कार रहा था। राजकुमार का देव-स्वरूप ही उनकी वासना-वृत्ति को लज्जित कर रहा था। सिर नीचा करके कहा—यदि हाथों की भाँति हृदय भी कठोर है, तो वहाँ प्रेम का प्रवेश कैसे होगा?

राजकुमार—बिना प्रेम के तो कोई उपासक देवी के सम्मुख नहीं जाता। प्यास के बिना भी आपने किसी को सागर की ओर जाते देखा है?

रानी अब झूले पर न रह सकी। इन शब्दों में निर्मल प्रेम झलक रहा था। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि देवप्रिया के कानों में ऐसे सच्चे अनुराग में डूबे हुए शब्द पड़े। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आँखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं। वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थी। झूले से उतरकर रानी ने अपने केश समेट लिये और घूँघट से माथा छिपाती हई बोलीं—श्रद्धा देवताओं को भी खींच लाती है। भक्त के पास सागर भी उमड़ता चला पाता है।

यह कहकर वह हौज के किनारे जा बैठीं और फौवारे को घुमाकर खेला, तो राजकुमार पर गुलाब-जल की फुहारें पड़ने लगीं। उन्होंने मुस्कराकर कहा—गुलाब से सिंचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा। इसका खयाल रखिएगा। [ ५८ ]रानी ने प्रेम-सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा—अभी गुलाब से सींचती हूँ, फिर अपने प्राण-जल से सींचूँगी, पर उसका फल खाना मेरे भाग्य में है या नहीं, कौन जाने। उस वस्तु की आशा कैसे करूँ, जिसे मैं जानती हूँ कि मेरे लिए दुर्लभ है।

देवप्रिया ने यह कहते-कहते एक लम्बी साँस ली और आकाश की ओर देखने लगी। उसके मन में एक शंका हो उठी, क्या यह दुर्लभ वस्तु मुझे मिल सकती है? मेरा यह मुँह कहाँ?

राजकुमार ने करुण-स्वर में कहा—जिस वस्तु को आप दुर्लभ समझ रही हैं, वह आज से बहुत पहले आपको भेंट हो चुकी है। आप मुझे नहीं जानतीं, पर मैं आपको जानता हूँ—बहुत दिनों से जानता हूँ। अब आपके मुँह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली?

रानी—उस रत्न को ग्रहण करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है। आपकी दया के योग्य हूँ, प्रेम के योग्य नहीं।

राजकुमार—कोई ऐसा धब्बा नहीं है, जो प्रेम के जल से छूट न जाय।

रानी—समय के चिह्न को कौन मिटा सकता है? हाय! आपने मेरा असली रूप नहीं देखा। यह मोहिनी छवि, जो आप देख रहे हैं, बहुत दिन हुए, मेरा साथ छोड़ चुकी। अब मैं अपने यौवनकाल की चित्र-मात्र हूँ। आप मेरी असली सूरत देखेंगे, तो कदाचित् घृणा से मुँह फेर लेंगे।

यह कहते कहते रानी को अपनी देह शिथिल होती हुई जान पड़ी। 'सुधाबिंदु' का असर मिटने लगा। उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियाँ दिखायी देने लगीं। उन्होंने लज्जा से मुँह छिपा लिया और यह सोचकर कि शीघ्र ही यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जायगा, वह फूट फूटकर रोने लगीं। राजकुमार ने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया और प्रेम-मधुर स्वर में बोले—प्रिये, मैं तुम्हारे इसी रूप पर मुग्ध हूँ, उस बने हुए रूप पर नहीं। मैं वह वस्तु चाहता हूँ, जो इस परदे के पीछे छिपी हुई है। वह बहुत दिनों से मेरी थी, हाँ, इधर कुछ दिनों से उस पर मेरा अधिकार न था। मेरी तरफ ध्यान से देखो, मुझे पहचानती हो? कभी देखा है?

रानी ने हैरत में आफर राजकुमार के मुँह पर नजर डाली। ऐसा मालूम हुआ, मानो आँखों के सामने से परदा हट गया। याद आया, मैंने इन्हें कहीं देखा है। जरूर देखा है। वह सोचने लगी, मैंने इन्हें कहाँ देखा है। याद न आया। बोली—मैंने आपको कहीं पहले देखा है।

राजकुमार—खूब याद है कि आपने मुझे देखा है? भ्रम तो नहीं हो रहा है?

रानी—नहीं, मैंने आपको अवश्य देखा है। सम्भव है, कभी रेलगाड़ी में देखा हो, मगर मुझे ऐसा मालूम होता है कि आप और मैं कभी बहुत दिनों एक ही जगह रहे हैं। मुझे तो याद नहीं आता। आप ही बताइए।

राजकुमार—खूब याद कर लिया? [ ५९ ]

रानी—(सोचकर) हाँ, कुछ ठीक याद नहीं आता। शायद तब आपकी उम्र कुछ कम थी; मगर थे आप ही।

राजकुमार से गम्भीर भाव से कहा—हाँ प्रिये, मैं ही था। तुमने मुझे अवश्य देखा है, हम और तुम एक साथ रहे हैं और इसी घर में। यही मेरा घर था। तुम स्त्री थीं, मैं पुरुष था। तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, इसी हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे। अब पहचाना?

देवप्रिया की आँखें फिर राजकुमार की ओर उठीं। आइने की गर्द साफ हो गयी।

बोली—प्राणेश! तुम्हीं हो इस रूप में!!

यह कहते-कहते वह मूर्च्छित हो गयीं!