कायाकल्प/९

विकिस्रोत से
कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ ५९ ]

रानी देवप्रिया का सिर राजकुमार के पैरों पर था और आँखों से आँसू बह रहे थे।' उनकी ओर ताकते हुए विचित्र भय हो रहा था। उसे कुछ कुछ सन्देह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ। कोई मनुष्य माया के दुर्भेद्य अंधकार को चीर सकता है? जीवन और मृत्यु के मध्यवर्ती अपार विस्मृत-सागर को पार कर सकता है। जिसमें यह सामर्थ्य हो, वह मनुष्य नहीं, प्रेत योनि का जीव है। यह विचार आते ही रानी का सारा शरीर काँप उठा, पर इस भय के साथ ही उसके मन में उत्कण्ठा हो रही थी कि उन्हीं चरणों से लिपटी हुई इसी क्षण प्राण त्याग दूँ। राजकुमार उसके पति हैं, इसमें तो सन्देह न था, सन्देह केवल यह था कि मेरे साथ यह कोई प्रेत-लीला तो नहीं कर रहे हैं। वह रह रहकर छिपी हुई निगाहों से उनके मुख की ओर ताकती थी, मानों निश्चय कर रही हो कि पति ही हैं या मुझे भ्रम हो रहा है।

सहसा राजकुमार ने उसे उठाकर बैठा दिया और उसके मनोभावों को शान्त करते हुए बोले—हाँ प्रिये, मैं तुम्हारा वही चिरसंगी हूँ, जो अपने प्रेमाभिलाषायी को लिये हुए कुछ दिनों को तुमसे जुदा हो गया था। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कई यात्रा करके लौटा आ रहा हूँ। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, और जिसके भय से संसार काँपता है, वह केवल एक यात्रा है। उस यात्रा में भी मुझे तुम्हारी याद आती रहती थी। विकल होकर आकाश में इधर-उधर दौड़ा करता था। प्रायः सभी प्राणियों की यही दशा थी। कोई अपने संचित धन का अपव्यय देख-देखकर कुढ़ता था, कोई अपने बालबच्चों को ठोकरें खाते देखकर रोता था। वे दृश्य इस मर्त्यलोक के दृश्यों से कहीं करुणा जनक, कहीं दुःखमय थे। कितने ही ऐसे जीव दिखायी दिये, जिनके सामने यहाँ सन्मान समस्तक झुकता था, वहाँ उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी। यह कर्मलोक है, वहाँ भोग लोक; और कर्म का दण्ड कर्म से कही भयङ्कर होता है। मैं भी उन्हीं अभागों में था। देखता था कि मेरे प्रेम-सिंचित उद्यान को भाँति-भाँति के पशु कुचल रहे हैं, मेरे प्रणय के पवित्र सागर में हिंसक जल-जन्तु दौड़ रहे हैं, और देख देखकर क्रोध से विह्वल हो जाता था। अगर मुझमें वज्र गिराने की सामर्थ्य होती, तो [ ६० ]गिराकर उन पशुओं का अन्त कर देता। मुझे यही जलन थी। कितने दिनों मेरी यह अवस्था रही इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ समय का बोध कराने वाली मात्राएँ न थीं, पर मुझे तो ऐसा जान पड़ता था कि उस दशा में पड़े हुए मुझे कई युग बीत गये। रोज नयी नयी सूरतें आती और पुरानी सूरतें लुप्त होती रहती थीं। सहसा एक दिन मैं भी लुप्त हो गया। कैसे लुप्त हुआ, यह याद नहीं, पर होश आया, तो मैंने अपने को बालक के रूप में पाया। मैंने राजा हर्षपुर के घर में जन्म लिया था।

इस नये घर में मेरा लालन-पालन होने लगा। ज्यों-ज्यों बढ़ता था, स्मृति पर परदा-सा पड़ता जाता था, पिछली बातें भूलता जाता था। यहाँ तक कि जब बोलने की सामर्थ्य हुई, तो माया अपना काम पूरा कर चुकी थी। बहुत दिनों तक अध्यापकों से पढ़ता रहा। मुझे विज्ञान में विशेष रुचि थी। भारतवर्ष में विज्ञान की कोई अच्छी प्रयोगशाला न होने के कारण मुझे यूरप जाना पड़ा। वहाँ मै कई वैज्ञानिक परीक्षाएँ करता रहा। जितना ही रहस्यों का ज्ञान बढ़ता था, उतनी ही ज्ञान पिपासा भी बढ़ती थी, किन्तु इन परीक्षाओं का फल मुझे लक्ष्य से दूर लिये जाता था। मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्व निकाल लूँगा, पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ।

एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला। मुझे चिन्तित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा, फिर बोला—बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से प्रात्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता।

मैंने चकित होकर पूछा—आपको मेरे मन की बात कैसे मालूम हुई?

भिन्नु ने हँसकर कहा—आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है। जड़ से चेतन का ज्ञान नहीं होता। यह क्रिया ही उलटी है। उन महात्माओं के पास जाओ, जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया है। वही तुम्हें वह मार्ग दिखायेंगे।

मैंने पूछा—ऐसे महात्माओं के दर्शन कहाँ होंगे? मेरा तो अनुमान है कि वह विद्या ही लोप हो गयी और उसके जानने का जो दावा करते हैं, वे बने हुए महात्मा हैं।

भिक्षु—यथार्थ कहते हो, लेकिन अब भी खोजने से ऐसे महात्मा मिल जायेंगे। तिब्बत की तपोभूमि में आज भी ऐसी महान् आत्माएँ हैं, जो माया का रहस्य खोल सकती हैं। हाँ, जिज्ञासा की सच्ची लगन चाहिए।

मेरे मन में बात बैठ गयी। तिब्बत की चरचा बहुत दिनों से सुनता आता था। भिक्षु से वहाँ की कितनी ही बातें पूछता रहा। अन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी। मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई, तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गये। हमारी एक समिति बनायी गयी, जिसमें २ अँगरेज, २ फ्रेंच और ३ जर्मन थे। अपने साथ नाना प्रकार के यन्त्र लेकर हम लोग अपने मिशन पर चले। मार्ग में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वहाँ कैसे पहुँचे, विहारों में क्या क्या दृश्य [ ६१ ]देखे, इसकी चर्चा करने लगूँ तो कई दिन लग जायँगे। कई बार तो हम लोग मरते-मरते बचे; लेकिन यहाँ चित्त को जो शान्ति मिली, उसके लिए हम मर भी जाते, तो दुःख न होता। अँगरेजों को तो सफलता न हुई; क्योकि वे तिब्बत की सैनिक स्थिति का निरीक्षण करने आये थे और भिक्षुओं ने उनकी नीयत भाँप ली थी। लेकिन शेष पाँचों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रन्थ रत्न खोज निकाले कि उन्हें यहाँ से ले जाना कठिन हो गया। जर्मन तो ऐसे प्रसन्न थे, मानो उन्हें कोई प्रदेश हाथ आ गया हो।

शरद-ऋतु थी, जलाशय हिम से ढक गये थे। चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ दिखायी देती थी। मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गये थे। अकेला मैं ही रह गया था। एक दिन सन्ध्या समय मैं इधर-उधर बिचरता हुआ एक शिला पर जाकर खड़ा हो गया। सामने का दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। उसका बखान करना उसका अपमान करना है। मनुष्य की वाणी में न इतनी शक्ति है, न शब्दों में इतना वैचित्र्य। इतना ही कह देना काफी है कि वह दृश्य अलौकिक था, स्वर्गापम था। बिशाल दृश्यों के सामने हम मंत्र मुग्ध-से हो जाते हैं, अवाक् होकर ताकते हैं, कुछ कह नहीं सकते। मौन आश्चर्य की दशा में खड़ा ताक हो रहा था कि सहसा मैंने एक वृद्ध पुरुष को सामने की एक गुफा से निकलकर पर्वत-शिखर की ओर जाते देखा। जिन शिलाओं पर कल्पना के भी पाँव डगमगा जायँ, उनपर वह इतनी सुगमता से चले जाते थे कि विस्मय होता था। बड़े-बड़े दरों को इस भाँति फाँद जाते थे, मानों छोटी-छोटी नालियाँ हैं। मनुष्य की यह शक्ति कि वह, उस हिम से ढके हुए दुर्गम शृङ्ग पर इतनी चपलता से चला जाय और मनुष्य भी वह जिसके सिर के बाल सन् की भाँति सफेद हो गये थे। मुझे ख्याल आया कि इतना पुरुषार्थ प्राप्त करना किसी सिद्ध ही का काम है। मेरे मन में उनके दर्शनों की तीन उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था। वह न जाने फिर कब तक उतरे, कब तक वहाँ खड़ा रहना पड़े। उधर अँधेरा बढ़ता जाता था। आखिर मैंने निश्चय किया कि आज लौट चलूं, कल से रोज दिन भर यही बैठा रहूँगा, कभी न कभी तो दर्शन होगे ही। मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा। दूसरे दिन में प्रातःकाल वहाँ आकर बैठ गया और सारे दिन शिखर की ओर टकटकी लगाये देखता रहा; पर चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया। एक महीने तक यही मेरा नित्य का नियम रहा। रात भर विहार में पड़ा रहता, दिनभर शिला पर बैठा रहता; पर महात्माजी न जाने कहाँ गायब हो गये थे उनकी झलक तक न दिखायी देती थी। मैंने कई बार ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया, पर सौ गज से आगे न जा सका। कील काँटे ठोंकते, शिलाओं पर रास्ता बनाते कई महीनो में शिखर पर पहुँचना सम्भव था; पर यह अकेले आदमी का काम न था, अन्य भिक्षुओं से पूछता तो वे हँसकर कहते—उनके दर्शन हमें दुर्लभ हैं, तुम्हें क्या होंगे? बरसों से कभी एक बार दिखायी दे जाते हैं। कहाँ रहते हैं, कोई नहीं जानता, किन्तु अधीर न होना। वह [ ६२ ]यदि तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गये, तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जायगी। यह भी सुनने में आया कि कई भिक्ष उनके दर्शनों की चेष्टा में प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। उनमें इतना विद्युत्तेज है कि साधारण मनुष्य उनके सम्मुख खड़ा ही नहीं हो सकता। उनकी नेत्र ज्योति बिजली की तरह हृत्स्थल में लगती है। जिसने यह आघात सह लिया, उसकी तो कुशल है, जो नहीं सह सकता, वह वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो जाता है। कोई योगी ही उनसे साक्षात् कर सकता है।

यह बातें सुन-सुनकर मेरी भक्ति और भी दृढ़ होती चली जाती थी। मरूँ या जिऊँ; पर उनके दर्शन अवश्य करूँगा, यह धारणा मन में जम गयी। योगी की क्रियाएँ तो पहले ही करने लगा था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं उनके तेज का सामना कर सकता हूँ। दिव्य-ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में मर जाना भी श्रेय की बात होगी। क्या था, क्या हूँगा? कहाँ मैं आया हूँ, कहाँ जाउँगा। इन स्वप्नों का उत्तर किसी ने आज तक न दिया और न दे सकता है। वह तो अपने अनुभव की बात है। हम उसका अनुभव ही कर सकते हैं, किसी को बता नहीं सकते। इस महान उद्योग में मर जाना भी मनुष्य के लिए गौरव की बात है।

एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए। न जाने कहाँ जाकर अन्तर्धान हो गये। वहाँ से न किसी को पत्र लिख सकता था, न संसार की कुछ खबर मिलती थी। कभी कभी जी ऐसा घबराता कि चलकर अन्य सांसारिक प्राणियों की भाँति जीवन का सुख भोूँग। इसमें रखा ही क्या है कि मैं क्या था और क्या हूँगा। पहले तो यही निश्चित नहीं कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त भी होगा और हो भी गया, तो उससे मेरा या संसार का क्या उपकार होगा। बिना इन रहस्यों के जाने भी जीवन को उच्च और पवित्र बनाया जा सकता है। वहाँ की सुरम्यता अजीर्ण हो गयी, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आँखों में खटकने लगी। विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े, तो वह नरक तुल्य हो जाय।

अन्त में एक दिन मैंने निश्चय किया कि अब जो होना हो, सो हो, इस पर्वत-शृंग पर अवश्य चढ़ूँगा। यह निश्चय करके मेंने चढ़ना शुरू किया, लेकिन दिन गुजर गया और मैं सौ गज से आगे न जा सका। मेरी चढ़ाई उन विज्ञान के खोजियों की सी न थी, जो सभी साधनों से लैस होते हैं। मैं अकेला था, न कोई यन्त्र, न मन्त्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक, भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था। पर करता क्या! ज्ञान के मार्ग में यन्त्रों का जिक्र ही क्या। आत्म-समर्पण तो उसकी पहली क्रिया है। जानता था कि मर जाऊँगा, किन्तु पड़े-पड़े मरने से उद्योग करते हुए मरना अच्छा था।

पहली रात मैंने एक चट्टान पर बैठकर काटी। बार-बार झपकियाँ आती थीं, पर चौक-चौंक पड़ता था। जरा चूका और रसातल पहुँचा। इतनी कुशल थी कि गरमी के दिन आ गये थे। हिम का गिरना बन्द था, पर जहाँ इतना आराम था, वहाँ पिघली हुई हिम-शिलाओं के गिरने से क्षण-मात्र में जीवन से हाथ धोने की शंका भी थी। वह [ ६३ ]मयंकर निशा, वह भयकर जन्तुओं की गरज और तड़प याद करता हूँ, तो आज भी रोमाञ्च हो जाता है। बार-बार पूर्व दिशा की ओर ताकता था; पर निर्दयी सूर्य उदय होने का नाम न लेता था। खैर, किसी तरह रात कटी, सवेरे फिर चला। श्राज की चढ़ाई इतनी सीधी न थी, फिर भी ५० गज से आगे न जा सका । रास्ते में एक दर्रा'पड गया, जिसे पार करना असम्भव था। इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ायी; पर ऐसा कोई उतार न दिखायी दिया जहाँ से उतरकर दर्रे को पार कर सकता। इधर भी सीधी दीवार थी, उधर भी । संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखायो दिये। मेरी जेब में पतली रस्सी का एक टुकड़ा पड़ा हुआ था। अगर किसी तरह इस रस्सी को दोनों वृक्षों में बाँध सकें, तो समस्या हल हो नाय, लेकिन उस पार रस्सी को पेड़ में कौन बाँधे ? आखिर मैंने रस्सी के एक सिरे में पत्थर का एक भारी टुकड़ा खूब कस- कर बाँधा और उसको लंगर की भॉति उस पारवाले वृक्ष पर फेंकने लगा कि किसी डाल में फँस जाय, तो पार हो जाऊँ । बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहाँ तक न पहुँचता था। सारा दिन इसी लगरवानी में कट गया, रात आ गयी। शिलाओं पर सोना जान-जोखिम था। इसलिए वह रात मैंने वृक्ष ही पर काटने की ठानी । मैं उस पर चढ़ गया और दो डालों में रस्सी फंसा फंसाकर एक छोटी-सी खाट बना ली। आधी रात गुजरी थी कि बड़े जोर का धमाका हुआ । उस अथाह खोह में कई मिनट तक उसकी आवाज गूंजती रही। सवेरे देखा तो बर्फ की एक बड़ी शिला ऊपर से पिघलकर गिर पड़ी थी और उस दर्रे पर उसका एक पुल-सा बन गया था । मैं खुशी के मारे फूला न समाया । जो मेरे किए कभी न हो सकता, वह प्रकृति ने अपने आप हो कर दिया । यद्यपि उस पुल पर से दर को पार करना प्राणों से खेलना था-मृत्यु के मुख में पाँव रखना था; पर दूसरा कोई उपाय न था। मैंने ईश्वर को स्मरण किया और सँभल-संभलकर उस हिम-राशि पर पॉव रखता हुआ खाई को पार कर गया। इस असाध्य साधना में सफल होने से मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि मैं मर नहीं सकता । कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। किसी कठिन कार्य में सफल हो जाना आत्मविश्वास के लिए सञ्जीवनी के समान है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा मनोरथ अवश्य पूरा होगा।

उस पार पहुंचते ही सीधी चट्टान मिली। दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अन्तर था। उस पतले रास्ते पर चलना तल-वार को बाढ़ पर पैर रखना या । चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन थएटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहाँ चट्टान को तेजी बहुत कम हो गयी थी। मैं लेटकर ऊपर को रेंगने लगा। सम्भव था, मै सन्ध्या तक इस तरह रेंगता रहता, पर सयोग से एक समतल शिला मिल गयी और उसे देखते ही मुझे नोर की थकान मालूम होने लगी। जानता था कि यहाँ सोकर फिर उठने की नौबत न आयेगी, पर जरा-से लेट जाने के लोभ को मैं किसी तरह संवरण न कर सका । नींद को दूर रखने [ ६४ ]के लिए एक गीत गाने लगा। लेकिन न जाने का आँखें झपक गयीं। कह नहीं सकता, कितनी देर तक सोया, जब नींद खुली और चाहा कि उठूँ, तो ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर मनों बोझ रखा हुआ है। सब अंग जकड़े हुए थे। कितना ही जोर मारता था, पर अपनी जगह से हिल न सकता था चेतना किसी डूबते हुए नक्षत्र की भाँति डूबती जाती थी। समझ गया कि जीवन से इतने दिनों तक का साथ था। पूर्व स्मृतियाँ चेतना की अन्तिम जागृति की भाँति जाग्रत हो गयीं। अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। व्यर्थ प्राण खोये। इतना जानने ही से तो उद्धार न होगा कि मैं पूर्व जन्म में क्या था। यह ज्ञान न रखते हुए भी संसार में एक-से एक ज्ञानी, एक-से-एक प्रणवीर, एक से एक धर्मात्मा हो गये, क्या उनका जीवन सार्थक हुआ? यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया। जब आँख खुली, तो देखा कि एक छोटी-सी कुटी में मृगचर्म पर कम्बल ओढ़े पड़ा हुआ हूँ और एक पुरुष बैठा मेरे मुख की ओर वात्सल्य दृष्टि से देख रहा है। मैंने इन्हें पहचान लिया। यह वही महात्मा थे, जिनके दर्शनों के लिए मैं लालायित हो रहा था। मुझे आँखें खोलते देखकर वह सदय भाव से मुस्कराये और बोले—हिम-शय्या कितनी पी वस्तु है! पुष्प शय्या पर तुम्हें कभी इतना सुख मिला था?

मैं उठ बैठा और महात्मा के चरण पर सिर रखकर बोला—आपके दर्शनो से जीवन सफल हो गया। आपकी दया न होती, तो शायद वहीं मेरा अन्त हो जाता।

महात्मा—अन्त कभी किसी का नहीं होता। जीव अनन्त है। हाँ, अज्ञानवश हम ऐसा समझ लेते हैं।

मैं—मुझे आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। आपमें अमानुषीय शक्ति है।

महात्मा—इसी लिए ऐसा समझते हो कि तुमने मुझे शिलाओं पर चढते देखा है? यह तो अमानुषीय शक्ति नहीं है। यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है।

मैं—आपने योग द्वारा ही यह बल प्राप्त किया होगा?

महात्मा—नहीं, मैं योगी नहीं प्रयोगी हूँ। आपने डारविन का नाम सुना होगा? पूर्व जन्म में मेरा हो नाम डारविन था।

मैंने विस्मित होकर कहा—आप ही डारविन थे?

महात्मा—हाँ, उन दिनों मैं प्राणि शास्त्र का प्रेमी था। अब प्राण-शान का खोजी हूँ।

सहसा मुझे अपनी देह में एक अद्भुत शक्ति का सञ्चालन होता हुया मालूम हुआ। नाड़ी की गति तीव्र हो गयी, आँखों से ज्योति की रेखाएँ-सी निकलने लगी। वाणी में ऐसा विकास हुआ, मानो कोई क्ली खिल गयी हो। में फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा, किन्तु उन्होंने मुझे रोककर कहा—तुम मुझे शिलानों पर चलते देखकर विस्मित हो गये, पर वह समय आ रहा है, जब आनेवाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी। यह मेरा विश्वास है। [ ६५ ]पृथ्वी का क्षेत्र उन्हें छोटा मालूम होगा। वह पृथ्वी से अन्य पिण्डों में उतनी ही सुगमता से आ-जा सकेंगे, जैसे एक देश से दूसरे देश में।

मैं—आपको अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान योग द्वारा ही हुआ होगा?

महात्मा—नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मै योगी नहीं, प्रयोगी हूँ। तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्युत् का अपार सागर है। जब हम विज्ञान द्वारा मन के गुप्त रहस्य जान सकते हैं, तो क्या अपने पूर्व संस्कार न जान सकेंगे। केवल स्मृति को जगा देनेही से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।

मैं—मुझे भी वह ज्ञान प्राप्त हो सकता है?

महात्मा—मुझे हो सकता है, तो आपको क्यों न हो सकेगा। अभी तो आप थके हुए हैं। कुछ भोजन करके स्वस्थ हो जाइए, तो मैं आपको अपनी प्रयोगशाला की सैर कराऊँ।

मैं—क्या आपकी प्रयोगशाला भी यहीं है?

महात्मा—हाँ, इसी कमरे से मिली हुई है। क्या आप भोजन करना चाहते हैं?

मैं—उसके लिए आप कोई चिन्ता न करें। आपका जूठन मैं भी खा लूँगा।

महात्मा (हँसकर) अभी नहीं खा सकते। अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है। तुम जिन पदार्थों को खाद्य समझते हो, उन्हें मैंने बरसों से नहीं खाया। मेरे लिए उदर को स्थूल वस्तुओं से भरना वैसा ही अवैज्ञानिक है, जैसे इस वायुयान के दिनों में बैलगाड़ी पर चलना। भोजन का उद्देश्य केवल संचालन-शक्ति को उत्पन्न करना है। जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कही आसानी से मिल सकती है, तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें। वास्तव में आनेवाली जाति उदर-विहीन होगी।

यह कहकर उन्होंने मुझे थोड़े-से फल खिलाये, जिनका स्वाद आज तक याद करता हूँ। भोजन करते ही मेरी आँखें खुल सी गयीं। ऐसे फल न जाने किस बाग में पैदा होते होंगे। यहाँ की विद्युन्मय वायु ने पहले ही आश्चर्यजनक स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ। वह चढ़ाई, जिसे मैं असाध्य समझ रहा था, अब तुच्छ मालूम होती थी।

अब महात्माजी मुझे अपनी प्रयोगशाला की सैर कराने चले। यह एक विशाल गुफा थी, जिसके विस्तार का अनुमान करना कठिन था, उसकी चौडाई ५०० हाथ से कम न रही होगी। लम्बाई उसकी चौगुनी थी। ऊँची इतनी कि हमारे ऊँचे-से-ऊँचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे। बौद्ध मूर्तिकारों की अद्भुत चित्रकला यहाँ भी विद्यमान थी। यह पुराने समय का कोई विहार था। महात्माजी ने उसे प्रयोगशाला बना लिया था।

प्रयोगशाला में कदम रखते ही मैं एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया। जेनेवा नगर आँखों के सामने था और एक भवन में राष्ट्रों के मन्त्री बैठे हुए किसी राजनीतिक [ ६६ ] विषय पर बहस कर रहे थे। उनकी आँखों के इशारे, होठों का हिलना और हाथों का उठना साफ दिखाई देता था। उनके मुख से निकला हुआ एक एक शब्द साफ-साफ कानों में आता या। एक क्षण के लिए मैं धोखे में आ गया कि जेनेवा ही में बैठा हूँ। जरा और आगे बढा तो सगीत की ध्वनि कानों में पायी। मैंने यूरप में यह आवाज सुनी थी। पहचान गया, पैड्रोस्को की आवाज थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। जिन आविष्कारों का बड़े बड़े विद्वानों को प्राभास मात्र था, वे सब यहाँ अपने समुन्नत, पूर्ण रूप में दिखायी दे रहे थे। इस निर्जन स्थान में, आवादी से कोसों दूर, इतनी ऊँचाई पर कैसे उन प्रयोगों में सफलता हुई, ईश्वर ही जान सकते हैं। महात्मा लोग तो योग की क्रियाओं ही में कुशल होते हैं। अध्यात्म उनका क्षेत्र है। विज्ञान पर उन्होंने कैसे ग्राधिपत्य जमाया। महात्माजी मेरी ओर देखकर मुस्कराये और बोले-विज्ञान अन्तःकरण को भी गुप्त नहीं छोड़ता। तुम्हें इन बातों से आश्चर्य हो रहा है, पर यथार्थ यह है कि विज्ञान ने योग को बहुत सरल कर दिया है। वह वहिर्जगत् से अब धीरे धीरे अन्तर्जगत् में प्रवेश कर रहा है। मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है। कदाचित् वह समय दूर नहीं कि हम विज्ञान द्वारा मोक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे।

मैंने पूछा-क्या पूर्व-समय का ज्ञान भी किसी प्रयोग द्वारा हो सकता है?

महात्मा--हो सकता है, लेकिन उससे किसी उपकार की आशा नहीं। विज्ञान अगर प्राणियों का उपकार न करे, तो उसका मिट जाना ही अच्छा। केवल निज्ञासा को शान्त करने, विलास में योग देने, या यथार्थ की सहायता करने के लिए योग करना उसका दुरुपयोग करना है। मैं चाहूँ तो अभी एक क्षण में यूरप के बड़े से बड़े नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दें, लेकिन विज्ञान प्राण-रक्षा के लिए है, वध करने के लिए नहीं।

मुझे निराशा तो हुई, पर आग्रह न कर सका। शाम तक प्रयोगशाला के यन्त्रों को देखता रहा। किन्तु उनमें अब मन न लगता था। यही धुन सवार थी कि क्योंकर यह दुस्तर कार्य सिद्ध करू। आखिर, उन्हें किसी तरह पसीजते न देखकर मैंने उसी हिकमत से काम लिया, जो निरुपायों का आधार है। बोला-भगवन्, आपने वह सब कर दिखाया, जिसका ससार के विज्ञानवेत्ता अभी केवल स्वप्न देख रहे हैं।

महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था। यद्यपि मैंने यथार्थ ही कहा था, लेकिन कभी-कभी यथार्थ भी खुशामद का काम कर जाता है। प्रसन्न होकर बोले-मैं गर्व तो नहीं करता, पर ऐसी प्रयोगशाला संसार में दूसरी नहीं है।

मैं-यूरपवालों को खबर मिल जाय, तो आपको आराम से बैठना मुश्किल हो जाय।

महात्मा-मैंने कितनी ही नयी-नयी वार्ते खोज निकाली, पर उनका गौरव प्रान दूसरों को प्राप्त है। लेकिन इसकी क्या चिन्ता। मैं विज्ञान का उपासक हूँ, अपनी ख्याति और गौरव का नहीं।

मापने इस देश का मुख उज्ज्वल कर दिया। [ ६७ ]

महात्मा—मेरा यान आकाश में जितनी ऊँचाई तक पहुँच सकता है, उसकी यूरप वाले कल्पना भी नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी। यूरप के वैज्ञानिकों की तैयारियाँ देख-देखकर मुझे हँसी आती है। जब तक हमको यहाँ की प्राकृतिक स्थिति का ज्ञान न हो, हमारी यात्रा सफल नहीं हो सकती। सबसे पहले विचार-धाराओ को वहाँ ले जाना होगा। विद्वान् लोग भी कभी-कभी बालकों की-सी कल्पनाएँ करने लगते हैं।

मैं—वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा।

महात्मा—प्राचीन काल में ऋषिगण योग-बल से त्रिकाल दृष्टि प्राप्त किया करते थे। पर उसमें बहुधा भ्रम हो जाता था। उसकी सहायता का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होता था। मैंने वैज्ञानिक परीक्षाओं से उस कार्य को सिद्ध किया है। प्रण तो मैंने यही किया था कि किसी को यह रहस्य न बताऊँगा, लेकिन तुम्हारी तपस्या देखकर दया आ रही है। मेरे साथ आओ।

मैं महात्माजी के पीछे-पीछे एक ऐसी गुफा में पहुँचा, जहाँ केवल एक छोटी-सी चौकी रखी हुई थी। महात्माजी ने गम्भीर मुख से कहा—तुम्हें यह बात गुप्त रखनी होगी। मैने कहा—जैसी आज्ञा।

महात्मा—तुम इसका वचन देते हो।

मैं—आप इसकी किंचित्-मात्र भी चिन्ता न करें।

महात्मा—अगर किसी यश और धन के इच्छुक को यह खबर मिल गयी तो वह संसार में एक महान् क्रांति उपस्थित कर देगा और कदाचित् मुझे प्राणों से हाथ धोना पड़े। मैं मर जाऊँगा, किन्तु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूँगा। तुम इस चौकी पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो।

चौकी पर लेटते ही मेरी आँखें झपक गयीं और पूर्व-जन्म के दृश्य आँखों के सामने आ गये। हाँ प्रिये, मेरा अतीत जीवित हो गया। यही भवन था, यही माता-पिता थे, जिनकी तसवीरें दीवानखाने में लगी हुई हैं। मै लड़कों के साथ बाग में गेंद खेल रहा था। फिर दूसरा दृश्य सामने आया। मैं गुरु की सेवा में बैठा हुआ पढ़ रहा था। यह वही गुरुजी थे, जिनकी तसवीर तुम्हारे कमरे में है। एक तिल का भी अन्तर नहीं है। इसके बाद युवावस्था का दृश्य आया। मैं तुम्हारे साथ एक नौका पर बैठा हुआ नदी में जल-क्रीड़ा कर रहा था। याद है वह दृश्य जब हवा वेग से चलने लगी थी और तुम डरकर मेरे हृदय से चिमट गयी थी?

देवप्रिया—खूब याद है, प्राणेश! खूब याद है।

राजकुमार—वह दृश्य याद है, जब मैं लताकुञ्ज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभूषणों से अलंकृत कर रहा था?

देवप्रिया—हाँ प्राणनाथ, खूब याद है। यही तो स्थान है!

राजकुमार—पाँचवा दृश्य वह था, जब में मृत्यु-शय्या पर पड़ा हुआ था। माता [ ६८ ]पिता सिरहाने खड़े थे और तुम मेरे पैरों पर सिर रखे रो रही थीं! याद है?

देवप्रिया—हाय प्राणनाथ। वह दिन भी भूल सकती हूँ?

राजकुमार—एक क्षण में मेरी आँखें खुल गयीं। पर जो कुछ देखा था, वह सब आँखों में फिर रहा था, मानों बचपन की बातें हों। मैने महात्मा से पूछा—मेरे माता पिता जीवित हैं? उन्होंने एक क्षण आँखें बन्द करके सोचने के बाद कहा—उनका देहावसान हो गया है। तुम्हारे शोक में दोनों घुल-घुलकर मर गये।

मैं—और मेरी स्त्री?

महात्मा—वह अभी जीवित है।

मैं—किस नगर में है?

महात्मा—काशी के समीप जगदीशपुर में। किन्तु तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं, यह ईश्वरी इच्छा के विरुद्ध होगा और संस्कारों के क्रम को पलटना अनिष्ट का मूल है।

मैंने उस समय तो कुछ न कहा, पर उसी क्षण मैंने तुमसे मिलने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मुझे अब वहाँ एक एक क्षण एक-एक युग हो गया। दो दिन तो मैं किसी तरह रहा, तीसरे दिन मैंने महात्माजी से विदा होकर प्रस्थान कर दिया। महात्माजी बड़े प्रेम से मुझसे गले मिले और चलते चलते ऐसी क्रिया बतलायी, जिसके द्वारा हम अपनी श्रायु और बल को इच्छानुसार बढा सकते हैं। तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया। यान मुझे हरिद्वार पहुँचा कर आपही आप लौट गया। यह उनके यानों की विशेषता है। हरिद्वार से मैं सीधा हर्षपुर पहुँचा और एक सप्ताह तक माता-पिता की सेवा में रहकर यहाँ आ पहुँचा। तुमसे मिलने के पहले मैं कई बार इधर निकला। यहाँ की हरएक वस्तु मेरी जानी-पहचानी मालूम होती थी। दो-चार पुराने दोस्त भी दिखायी दिये, पर उनसे मै बोला नहीं। एक दिन जगदीशपुर की सैर भी कर आया। ऐसा मालूम होता था कि मेरी बाल्यावस्था वहीं गुजरी हो। तुमसे मिलने के पहले कई दिन गहरी चिन्ता में पड़ा रहा। एक विचित्र शंका होती थी। अकस्मात् तुमसे पार्क में मुलाकात हो गयी। कह नहीं सकता, तुम्हें देखकर मेरे चित्त की क्या दशा हुई। ऐसा जी चाहता था, दौड़कर हृदय से लगा लूँ। महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गये और मैं वहाँ तुमसे मिल गया।

देवप्रिया ने रोते हुए कहा—प्राणनाथ, आपके दर्शन पाते ही मेरा हृदय गद्गद हो गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो आपसे मेरा पुराना परिचय है, मानों मैंने आपको कहीं देखा है। आपने एक दृष्टि में मेरे मन के उन भावों को जाग्रत कर दिया, जिन्हें मेरी विलासिता ने कुचल कुचलकर शिथिल कर दिया था। स्वामी। मैं आपके चरणों को स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ, लेकिन जब तक जीऊँगी, तब तक आपकी स्मृति को हृदय में संचित रखूँगी।

राजकुमार—प्रिये, तुम्हें मालूम है, विवाह का सम्बन्ध देह से नहीं आत्मा से है। क्या आत्मा अनन्त और अमर नहीं? [ ६९ ]

देवप्रिया ने उसका कोई उत्तर न दिया। प्रश्नसूचक नेत्रों से राजकुमार की ओर ताकने लगी।

राजकुमार—तो अब तुम्हें मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है?

देवप्रिया ने रुँधे हुए कण्ठ से कहा—प्राणनाथ, आप मुझसे यह प्रश्न क्यों करते हैं? आप मेरा उद्धार कर रहे हैं, आपको छोड़कर और किसकी शरण जाऊँगी? अब तो मुझे आप मार-मारकर भी भगायें, तो आपका दामन न छोड़ूँगी। आह स्वामी! यह शुभ अवसर जीते-जी मिलेगा, इसकी तो स्वप्न में भी आशा न थी। मेरा सौभाग्यसूर्ये इतने दिनों के बाद फिर उदय होगा, यह तो कदाचित् मेरे देवताओं को भी न मालूम होगा। न जाने किसके पुण्य-प्रताप से मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ है। कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है? आपको पाकर मैं सब कुछ पा गयी। अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही। आपकी चेरी हूँ—वही चेरी, जो एक बार आपके ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी है।

राजकुमार ने रानी को कण्ठ से लगाकर कहा यह हमारा पुनर्संयोग है।

देवप्रिया—नहीं प्राणनाथ, मैं इसे प्रेम-मिलन समझती हूँ।

यह कहते-कहते रानी चुप हो गयी। उसे याद आ गया कि मुझ जैसी वृद्वा ऐसे देव-रूप पुरुष के योग्य नहीं है। अभी दया के वशीभूत होकर यह मेरा उद्धार कर देंगे, पर दया कब तक प्रेम का पार्ट खेलेगी? सम्भव है, इनकी दया दृष्टि मुझपर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियो को कौन मुँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलूँगी। उस दशा में तो दया मेरी रक्षा न कर सकेगी। यह अवस्था तो असह्य हो जायगी। राजकुमार ने उसके मनोभावो को ताड़कर कहा—प्रिये, तुम्हारे मन मे शकाओं का उठना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें निकाल डालो। मैं विलास का दास होता, तो तुम्हारे पास आता ही नहीं। मेरे चित्त की वृत्ति वासना की ओर नहीं है। मैं रूप-सौन्दर्य का मूल्य जानता हूँ और उसका मुझपर कोई आकर्षण नहीं हो सकता। मेरे लिए तो तुम इस रूप में भी उतनी ही प्रिय हो। हाँ, तुम्हारे सन्तोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगो, जो महात्माजी ने चलते-चलते बतायी थीं। जिसके द्वारा मैंने मायान्धकार पर विजय पायी, उसके द्वारा काल की गति को भी पलट सकूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मुरझाया हुआ फूल एक बार फिर हरा हो जायगा—वही छवि, वही सौरभ, वही कोमलता फिर इसकी बलाएँ लेंगी। लेकिन तुम्हें भी मेरे लिए बड़े-बड़े त्याग करने पड़ेंगे। सम्भव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही सन्तोष करना पड़े। क्या तुम उन कष्टों को सह सकोगी?

देवप्रिया—आपको पाकर अब मुझे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। जिसे सच्चा सुख मयस्सर हो, वह विलास की तृष्णा क्यों करें।

रानी मुँह से तो ये बातें कह रही थीं, किन्तु इस विचार से उनका चित्त प्रफुल्लित [ ७० ]हो रहा था कि मेरा यौवन पुष्य फिर खिलेगा, और सौन्दर्य दीपक फिर जलेगा।

राजकुमार—तो अब मैं जाता हूँ। कल संध्या-समय फिर आऊँगा। इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारियाँ कर लेना।

देवप्रिया ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा—मैं आपके साथ चलूँगी। मुझे न-जाने कैसी शकाएँ हो रही हैं। में अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोड़ूँगी।

राजकुमार—यों चलने से लोगों के मन में भाँति-भाँति की शकाएँ होंगी। मेरे पुनर्जन्म का किसी को विश्वास न आयेगा, लोग समझेंगे कि ऐब को छिपाने के लिए यह कया गढ़ ली गयी है, केवल कुत्सित प्रेम को छिपाने के लिए यह कौशल किया गया है। इसलिए तुम किसी तीर्थ यात्रा

रानी ने बात काटकर कहा—मुझे अब लोक-निन्दा का भय नहीं है। मैं यह कहने को तैयार हूँ कि अपने प्राणपति के साथ जा रही हूँ।

राजकुमार ने मुस्कुराकर कहा—अगर मैं तुमसे दगा करूँ, तो?

रानी ने भयातुर होकर कहा—प्राणनाथ, ऐसी बातें न करो। मैं अपने को तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर चुकी, लेकिन कुसंस्कारों से मुक्त नहीं हूँ। यदि कोई आदमी अभी आकर मुझसे कहे कि इन्द्रजाल का खेल कर रहे हैं, तो मैं नहीं कह सकती कि मेरी क्या दशा होगी। अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वञ्चित हूँ। मैं निष्कपट भाव से अपने मन की दुर्बलताएँ, प्रकट कर रही हूँ। मुझे क्षमा कीजिएगा। अभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूँगी। उस स्वप्न को भंग न कीजिए। इस वक्त यहीं आराम कीजिए, रात बहुत बीत गयी है। मैं तब तक कुँवर विशालसिंह को सूचना दे दूँ कि वह आकर अपना राज्य सँभालें। कल मैं प्रातःकाल आपके साथ चलने को तैयार हो जाऊँगी।

यह कहकर रानी ने राजकुमार के लिए भोजन लाने की आज्ञा दी। जब वह भोजन करने लगे, तो आप ही खड़ी होकर उन्हें पंखा झलने लगी। ऐसा स्वर्गीय आनन्द उसे कभी प्राप्त न हुआ था। उसके मर्मस्थल में प्रेम और उल्लास की तरंगें उठ रही थीं, जी चाहता था कि इसी क्षण इनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूँ।

कुँवर साहब लेटने गये, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पत्र लिखा—'कुँवर विशालसिंहजी',

इतने दिनों तक मायाजाल में फँसे रहने के बाद अब मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है। मैं तीर्थयात्रा करने जा रही हूँ और शायद फिर न लोटूँगी। किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूँगी। आपको उचित है कि आकर अपने राज्य का भार सँभालें। मुझे खेद है कि मेरे कारण आपको बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े। आपने मेरे साथ जो अनीति की, उसे भी मैं क्षमा करती हूँ। मायान्ध होकर हम सभी ऐसा करते हैं। मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि मेरी लौंडियों और सेवकों पर दया कीजिएगा। मैं अपने साथ कोई चीज नहीं ले जा रही हूँ। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना [ ७१ ]है कि वह अापको सद्बुद्धि दे और आपकी की कोति देश-देशान्तरों में फैलाये ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर अानन्द को और कोई बात न होगी ।

आपकी-देवप्रिया
 

यह पत्र लिखकर रानी ने मेन पर रखा ही था कि उन्हें खयाल आया, मैं अपना राज्य क्यों छोड़ ? मैं हर्षपुर से भी तो इसकी देखभाल कर सकती है। साल में महीने टो-महीने के लिए यहाँ अाना कौन मुश्किल है ? चलकर प्राणनाय से पूछ, उन्हें इसमे कोई आपत्ति तो न होगी। वह राजकुमार के कमरे के द्वार तक गयी, पर अन्दर कदम न रख सकी। खयाल अाया, समझेंगे अभी तक इसकी तृष्णा बनी हुई है ! उलटे पाँव लौट आयी।

रात के दो बन गये थे । देवप्रिया यात्रा की तैयारियाँ कर रही थी। उसके मन में प्रश्न हो रहा था, कौन-कौन सी चीजें साथ ले जाऊँ ? पहले वह अपने वस्त्रागार में गयो । शीशे की आलमारियो में एक-से-एक अपूर्व वस्त्र चुने हुए रखे थे। इस समूह में से उसने खोजकर अपनो सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने अाज २५ वर्ष हो गये। आज उसकी शोभा और सभी साड़ियों से बढी हुई थी। उसके सामने सभी कपड़े फीके जचते थे।

फिर वह अपने आभूषणो की कोठरी में गयी। इन श्राभूषणों पर वह जान देती थी। ये उसे अपने राज्य से भी प्रिय थे। लेकिन इस समय इनको छूते हुए उसे ऐसा भय हो रहा था, मानो चोरी कर रही है। उसने बहुत साहस करके रत्नों का वह सन्दू- कचा निकाला, जिसपर इन २५ बरसो में उसने लाखों रुपए खर्च किये थे और उसे अञ्चल में छिपाये हुए बाहर निकली। इस लोभ को वह सवरण न कर सकी।

वह अपने कमरे मे आकर बैठी ही थी कि गुजराती आकर खड़ी हो गयी। देव-प्रिया ने पूछा-सोयी नहीं ?

गुजराती-सरकार नही सोयी, तो मैं कैसे सोती ?

'मैं तो कल तीर्थ यात्रा करने जा रही हूँ ?'

'मुझे भी साथ ले चलिएगा?'

'नहीं, मै अकेली जाऊँगी।'

'सरकार लौटेंगी कब तक ?

'कह नहीं सकती । बहुत दिन लगेंगे । बता, तुझे क्या उपहार हूँ ?'

'मैं तो एक बार माँग चुको । लुगी तो वही लूँगी ।'

'मैं तुझे नौलखा हार दूंगी।'

'उसकी मुझे इच्छा नहीं ।

'चड़ाऊँ कगन लेगी?

'जी नहीं !

'वह रल लेगी, जो बड़ी बड़ी रानियों को भी मयस्सर नहीं ?'