कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स/मार्क्स का सिद्धान्त

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कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स  (1918) 
द्वारा लेनिन
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मार्क्स का सिद्धान्त

मार्क्स के क्रमबद्ध विचारों और सिद्धान्तों का नाम मार्क्सवाद है। १९ वीं सदी की तीन सैद्धान्तिक धाराएं - जिनके प्रतिनिधि रूप में संसार के तीन उन्नत देश थे - जर्मनी का क्लासिकल दर्शन , इंगलैण्ड का क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ्रान्स का समाजवाद , जिसके साथ वहां के क्रान्तिकारी सिद्धान्त भी मिले हुए थे - इन सबको आगे बढ़ाकर पूर्ण कर देनेवाली प्रतिभा मार्क्स की थी। मार्क्स के विचार कैसे संगत रूप से एक ही सूत्र में गुंथे हुए हैं, इस बात को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। इन विचारों का समष्टिरूप ही आधुनिक पदार्थवाद तथा आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद है, जो संसार के सभी सभ्य देशों के मज़दूर आन्दोलन का सैद्धान्तिक आधार और कार्यक्रम है। इसलिए यहां आवश्यक है कि मार्क्सवाद के मुख्य सार का याने मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्तों का विवेचन करने के पहले मार्क्स के दृष्टिकोण की रूपरेखा दे दी जाय।

दार्शनिक पदार्थवाद

१८४४-१८४५ से- जब मार्क्स की विचारधारा निश्चित हो गयी थी- वह एक पदार्थवादी , विशेषकर फ़ायरबाख़ के अनुयायी रहे। आगे चलकर भी उन्होंने देखा कि फायरबाख़ की कमजोरी केवल यही है कि उनका पदार्थवाद काफ़ी संगत और व्यापक नहीं है। मार्क्स के लिए फायरबाख़ की " युग- प्रवर्तक" और समस्त संसार के लिए ऐतिहासिक महत्ता इस बात में थी कि उन्होंने पूरी तरह से हेगेल के आदर्शवाद से नाता तोड़ लिया था। उनकी महत्ता उसी पदार्थवाद को घोषित करने में थी जिसे “१८ वीं सदी में भी , विशेषकर फ्रान्स में, तत्कालीन राजनीतिक संस्थाओं, धर्म और धर्मशास्त्र से ही नहीं ... वरन् हर प्रकार के अतिभूतवाद (मेटा-फ़िज़िक्स)" ("स्वस्थ दर्शन" से भिन्न " उन्मत्त कल्पना की उड़ान" के अर्थ में) से लड़ना पड़ा था ('साहित्यिक विरासत' में 'पवित्र परिवार')। 'पूंजी' के प्रथम खंड के दूसरे संस्करण के उपसंहार में मार्क्स ने लिखा था : “ हेगेल के लिए मानव

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[ १२ ]मस्तिष्क की चिन्तन-क्रिया जिसे वह विचार-तत्व का नाम देकर एक स्वतंत्र

वस्तु मान लेते हैं, वास्तविक संसार का देमिऊर्ग (निर्माता, रचयिता) है। इसके विपरीत , मेरे लिए विचार-तत्व मानव-मस्तिष्क द्वारा प्रतिबिम्बित , और चिन्तन के विभिन्न रूपों में परिवर्तित , बाह्य संसार को छोड़कर और कुछ नहीं।" मार्क्स के पदार्थवादी दर्शन के पूर्ण रूप से अनुकूल , और उसकी व्याख्या करते हुए, एंगेल्स ने 'ड्यूहरिंग मत-खंडन' में (जिसकी पाण्डुलिपि मार्क्स ने पढ़ी थी), लिखा थाः “संसार की एकता उसके अस्तित्व में नहीं है। संसार की वास्तविक एकता उसकी भौतिकता में है... जो दर्शन और प्रकृति-विज्ञान के एक सुदीर्घ और कठिन विकास से सिद्ध होती है ... गति पदार्थ के अस्तित्व का रूप है। कहीं भी पदार्थ का अस्तित्व गति के बिना नहीं रहा और न ही गति पदार्थ के बिना हो सकती है .. परन्तु यदि ... यह प्रश्न उठाया जाय कि विचार और चेतना क्या हैं और इनका उद्गम क्या है, तो यह प्रकट हो जाता है कि वे मानव- मस्तिष्क की उपज हैं और मनुष्य स्वयं प्रकृति की उपज है जिसका अमुक वातावरण में, और प्रकृति के साथ, विकास हुआ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव-मस्तिष्क की उपज अन्ततोगत्वा प्रकृति की ही उपज होने के कारण शेष प्रकृति का विरोध नहीं करती , वरन् उसके अनुरूप है। " हेगेल आदर्शवादी थे, अर्थात् उनके लिए मस्तिष्क के विचार वास्तविक चीज़ों और प्रक्रियाओं के कमोबेश भाववाचक प्रतिबिम्ब नहीं थे (मूल में Abbilder --प्रतिच्छाया; कभी-कभी एंगेल्स नक़ल उल्लेख करते हैं), वरन् इसके विपरीत , उनके लिए चीजें और उनका विकास , किसी उस विचार-तत्व के ही गोचर रूप थे, जिसका अस्तित्व इस संसार के पहले ही कहीं न कहीं अवश्य था।" अपनी पुस्तक 'लुडविग फ़ायरबाख' में जिसमें फ़ायरबान के दर्शन पर अपने और मार्क्स के मतों की वह व्याख्या करते हैं, और जिसे १८४४-१८४५ में हेगेल, फायरबाल और इतिहास की पदार्थवादी धारणा पर मार्क्स के साथ मिलकर लिखी हुई अपनी एक पुरानी पांडुलिपि को दोबारा पढ़ने के बाद उन्होंने प्रेस में दिया था- एंगेल्स ने लिखा था : सभी तरह के दर्शनों का , विशेषकर आधुनिक दर्शन का मूल महाप्रश्न चित् और सत् (विचार और अस्तित्व),

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[ १३ ]आत्मा और प्रकृति के सम्बन्ध पर है ... कि इनमें मूल कौन है , आत्मा

या प्रकृति ... दार्शनिकों ने इसके जो उत्तर दिये , उनके अनुसार वे दो बड़े दलों में विभक्त हो गये। जो प्रकृति की अपेक्षा आत्मा को मूल स्वीकार करते थे और इसलिए अन्ततोगत्वा किसी न किसी रूप में संसार की सृष्टि को भी मानते थे... वे आदर्शवादी दल में आ गये। दूसरे दार्शनिक जो प्रकृति को ही मूल स्वीकार करते थे, वे पदार्थवाद की विभिन्न धाराओं में आ गये।" आदर्शवाद और पदार्थवाद की धारणाओं का और किसी तरह से (दार्शनिक अर्थ में) प्रयोग केवल भ्रम उत्पन्न करता है। मार्क्स ने न केवल आदर्शवाद को ही (जो किसी न किसी रूप में धर्म से बंधा ही रहता है) निश्चित रूप से रद्द किया, वरन् ह्यूम और कान्ट के मतों को भी अस्वीकार किया जो आजकल विशेष रूप से प्रचलित हैं- विभिन्न रूपों में अज्ञेयवाद, समीक्षावाद और निरीक्षणवाद । उनका कहना था कि यह दर्शन आदर्शवाद को दी गयी "प्रतिक्रियावादी" रियायत से अधिक कुछ नहीं, बहुत से बहुत , यह “संसार के सामने पदार्थवाद को अस्वीकार करते हुए भी उसे लुक-छिपकर मान लेने का ढंग है"। इस संबंध में एंगेल्स और मार्क्स की उपरोक्त कृतियों के सिवा एंगेल्स के नाम मार्क्स का १२ दिसम्बर १८६८ का पत्र भी देखना चाहिए। इसमें मार्क्स ने प्रसिद्ध प्रकृतिवादी टी० हेक्सली की एक उक्ति का उल्लेख किया है जिसमें उनका पदार्थवाद अधिक उभर कर आया है"। हेक्सली ने लिखा था : "जब तक हम वास्तव में देखने और सोचने की क्रियाएं करते हैं, तब तक हम संभवतः पदार्थवाद से बच नहीं सकते।" मार्क्स ने उनपर दोष लगाया है कि उन्होंने अज्ञेयवाद और ह्यूमवाद के लिए एक बार फिर नयी “राह" छोड़ दी थी। स्वतंत्रता और आवश्यकता के संबंध में मार्क्स का मत जानना हमारे लिए विशेषतया महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं- “आवश्यकता वहीं तक अन्धी होती है जहां तक वह समझी नहीं जाती। स्वतंत्रता आवश्यकता का ज्ञान ही है।" (एंगेल्स : 'ड्यूहरिंग मत-खंडन')। इसका अर्थ है, प्रकृति की वस्तुगत नियमितता की और आवश्यकता के स्वतंत्रता में द्वंद्वात्मक रूपान्तर की स्वीकृति (उसी भांति जैसे अज्ञात किन्तु ज्ञेय “मूल वस्तु” का “प्रतीत वस्तु" के रूप में, “वस्तुसार” का “घटनाओं" के रूप में परिवर्तन का

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बोध)। मार्क्स और एंगेल्स ने “पुराने" पदार्थवाद के , जिसमें फ़ायरबाख का पदार्थवाद भी शामिल था, (बुख़नर , फ़ोग्ट और मोलेशौट के “बाज़ारी" पदार्थवाद का कहना ही क्या! ) ये मुख्य दोष बताये थे : (१) यह "प्रधानतः यान्त्रिक" था और रसायन और जीवशास्त्र के नवीनतम विकास की ओर उसने ध्यान न दिया था (आजकल पदार्थ संबंधी विद्युत्- सिद्धान्त का उल्लेख करना भी आवश्यक होगा); (२) वह अनैतिहासिक और अद्वंद्वात्मक था (द्वंद्वात्मक-विरोधी होने से अतिभूतवादी था) और सभी क्षेत्रों में सुसंगत रूप से विकास के दृष्टिकोण का अनुसरण न करता था; (३) वह "मनुष्य का सार" भाववाचक रूप से समझता था , उसे " सभी सामाजिक संबंधों" के " समन्वय " के रूप में न देखता था (जो निश्चित और स्थूल रूप से ऐतिहासिक हैं), और इस प्रकार वह संसार की व्याख्या करता था" जब कि प्रश्न उसे “बदलने" का था, अर्थात् 'क्रान्तिकारी व्यवहारिक कार्यवाही" का महत्व उसने न समझा था।

द्वंद्ववाद

मार्क्स और एंगेल्स की दृष्टि में हेगेल का द्वंद्ववाद जर्मनी के क्लासिकल दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण देन है। विकास का यह सिद्धान्त व्यापक , गंभीर और सबसे अधिक सारपूर्ण है। विकास और क्रमिक उन्नति के अन्य सभी सिद्धान्तों को वे एकांगी और छिछला मानते थे, जो प्रकृति और समाज के वास्तविक विकास-क्रम को विकृत और भ्रष्ट कर देते थे (यह विकास बहुत बार छलांगों, आकस्मिक विध्वंसों और क्रान्तियों द्वारा भी होता है)। "मार्क्स और मैं स्वयं प्रायः एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने (हेगेलवाद और आदर्शवाद के ध्वंस से) “सचेत द्वंद्ववाद की रक्षा करने और प्रकृति की पदार्थवादी धारणा के लिए उसका प्रयोग करने का उद्देश्य अपने सामने रखा।" द्वंद्ववाद की कसौटी प्रकृति है और यह मानना होगा कि आधुनिक प्रकृति-विज्ञान ने इस कसौटी के लिए बहुत-सी सामग्री और दिन-पर-दिन बढ़नेवाली सामग्री दी है।" (रेडियम , एलेक्ट्रोन और तत्वों के रूपांतर की जानकारी के पहले यह लिखा गया था ! )।

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"इस प्रकार प्रकृति-विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अन्ततोगत्वा प्रकृति की क्रियाएं द्वंद्ववादी हैं, न कि अतिभूतवादी !"

एंगेल्स ने यह भी लिखा था : जन-साधारण की चेतना में एक आधारभूत महान विचार ने इस प्रकार व्यापकता से घर कर लिया है - विशेषकर हेगेल के समय से-कि उसके बारे शायद ही कभी कोई शंका उठाता हो। यह विचार इस प्रकार है : संसार को स्वतः प्रस्तुत पदार्थों का संगठन कहने से उसका बोध नहीं हो सकता ; उसे प्रक्रियाओं का संगठन मानना चाहिए। इन प्रक्रियाओं में पदार्थ ऊपर से वैसे ही स्थायी जान पड़ते हैं जैसे मस्तिष्क के भीतर उनके मानसिक प्रतिबिम्ब , उनकी कल्पनाएं परन्तु इन पदार्थों के आवागमन का एक अबाध परिवर्तन-क्रम चला ही करता है। परन्तु इस आधारभूत विचार को शब्दों में स्वीकार कर लेना एक बात है और यथार्थ में, उसे अनुसंधान के सभी क्षेत्रों में सर्वांशतः लागू करना दूसरी बात है।" "द्वंद्वात्मक दर्शन के लिए कुछ भी अन्तिम , त्रिकाल-सत्य और पवित्र नहीं है। वह हर चीज़ में, और हर चीज़ की , अनित्यता का दर्शन कराता है। उसके सामने आवागमन के अबाध क्रम को छोड़कर, निम्न से ऊर्ध्व की ओर अविराम उन्नति को छोड़कर, कुछ भी चिरन्तन नहीं है। और द्वंद्वात्मक दर्शन अपने में चिन्तनशील मस्तिष्क में इस क्रम के प्रतिबिम्ब मात्र के सिवा कुछ नहीं है। इस प्रकार मार्क्स के अनुसार द्वंद्ववाद “बाह्य संसार और मानवीय चिन्तन दोनों की ही गति के सामान्य नियमों का विज्ञान" है।

हेगेल के दर्शन के इस क्रान्तिकारी पहलू को मार्क्स ने अपनाया और उसे आगे बढ़ाया। द्वंद्वात्मक पदार्थवाद को “अब ऐसे दर्शन की ज़रूरत नहीं है जो दूसरे विज्ञानों से ऊपर हो"। पहले के दर्शन में अब “चिन्तन और उसके नियम - औपचारिक तर्कशास्त्र और द्वंद्ववाद" शेष रहे। मार्क्स द्वंद्ववाद का जो अर्थ लगाते थे और इसमें उनके विचार हेगेल से मिलते थे- उसमें वर्तमान बोध-सिद्धान्त भी आ जाता है। इसके अनुसार भी विषय-वस्तु पर वैसे ही विचार करना होगा - बोध के उद्गम और विकास का अज्ञान से ज्ञान की ओर संक्रमण का ऐतिहासिक अध्ययन करके उससे व्यापक परिणाम निकालना होगा।

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[ १६ ]वर्तमान काल में उन्नति और विकास की अवधारणा प्रायः पूर्ण रूप

से सामाजिक चेतना में घुस गयी है। परन्तु यह काम और तरह से हुआ है, हेगेल के दर्शन द्वारा नहीं। परन्तु हेगेल के दर्शन के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने उसी कल्पना की जो व्याख्या की है, वह प्रचलित विकास- सिद्धान्त से अधिक व्यापक और गम्भीर है। विकास-क्रम में मालूम होता है कि पहले की मंज़िलें फिर लौट कर आ रही हैं परन्तु ये मंज़िलें एक दूसरे ढंग से, एक और ऊंचे स्तर पर आती हैं (“ निषेध का निषेध"); यह विकास सीधी रेखा में न होकर शंखतुल्य आवर्तपूर्ण होता है ; - यह विकास छलांग , विध्वंस और क्रान्ति द्वारा ही होता है ; - “क्रमविकास में खंड"; मात्रा का गुण में परिवर्तन होता है ; - किसी वस्तु , घटनाक्रम या समाज पर घात-प्रतिघात करनेवाली विभिन्न शक्तियों अथवा प्रवृत्तियों के अन्तर्विरोध तथा टकराव से विकास के लिए आन्तरिक प्रेरणा मिलती है ; प्रत्येक घटनाक्रम के सभी अंगों में परस्पर निर्भरता , और इस प्रकार निकटतम और अटूट सम्बद्धता होती है (इतिहास नित नये अंगों को प्रकट करता जाता है); इस सम्बद्धता से एकरूप , नियमचालित तथा विश्वव्यापी गतिक्रम संभव होता है-विकास के सिद्धान्त के साधारण की तुलना में) अधिक सम्पन्न द्वंद्ववाद की यही कुछ विशेषताएं हैं। (एंगेल्स के नाम मार्क्स का ८ जनवरी १८६८ का वह पत्र देखिये जिसमें वह स्टाइन के उस "निर्जीव त्रयवाद" की खिल्ली उड़ाते हैं, जिसे पदार्थवादी द्वंद्ववाद समझना मूर्खता है)।

इतिहास की पदार्थवादी धारणआ

पुराने पदार्थवाद की असंगति , अपूर्णता और एकांगीपन का अनुभव करके मार्क्स को निश्चय हो गया कि “समाज-विज्ञान तथा उसके पदार्थवादी आधार में सामंजस्य स्थापित करना और उस आधार पर उसका पुनर्निर्माण करना" आवश्यक है। यदि साधारण रूप से पदार्थवाद के अनुसार चेतना अस्तित्व का परिणाम है, न कि उसके विपरीत , तो मनुष्य जाति के सामाजिक जीवन पर पदार्थवाद को लागू करने से यह भी स्पष्ट हो जाना

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चाहिए कि सामाजिक चेतना सामाजिक अस्तित्व का परिणाम है। 'पूंजी के प्रथम खंड में मार्क्स ने लिखा था : प्रौद्योगिकी से पता चलता है कि प्रकृति से मनुष्य किस तरह व्यवहार करता है, वह उत्पादन-क्रम क्या है जिससे उसका जीवन-यापन होता है ; और इसी से उस पद्धति का भी पता चलता है जिसके अनुसार मनुष्य के सामाजिक सम्बन्ध और तज्जनित मानसिक कल्पनाएं निर्मित होती हैं।" 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना' की भूमिका में मार्क्स ने मानव-समाज और उसके इतिहास पर लागू होनेवाले पदार्थवाद के आधारभूत सिद्धान्तों की सुसम्बद्ध व्याख्या की है। वह व्याख्या इस प्रकार है:

"मनुष्य जो सामाजिक उत्पादन करते हैं, उसमें वे ऐसे निश्चित संबंध स्थापित करते हैं जो अनिवार्य और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। ये उत्पादन-सम्बन्ध भौतिक उत्पादक शक्तियों के विकास की एक निश्चित अनुकूल ही होते हैं।

"इन उत्पादन-सम्बन्धों का योग ही समाज का आर्थिक ढांचा है, वह असली नींव है, जिसपर राजनीति और कानून की भारी इमारत खड़ी होती है ; उसी ढांचे के अनुरूप सामाजिक चेतना के विभिन्न निश्चित रूप भी होते हैं। भौतिक जीवन में उत्पादन की पद्धति साधारण रूप से सामाजिक , राजनीतिक और बौद्धिक जीवन-क्रम को निश्चित करती है। मनुष्य की चेतना अस्तित्व को निश्चित नहीं करती ; इसके विपरीत उसका सामाजिक अस्तित्व ही उसकी चेतना को निश्चित करता है। अपने विकास की एक नियत अवस्था तक पहुंच जाने के बाद समाज के विद्यमान उत्पादन-सम्बन्धों से भौतिक उत्पादक शक्तियों की मुठभेड़ होती है, या- जोकि इस बात की केवल कानूनी अभिव्यक्ति है- सम्पत्ति के जिन संबंधों में पहले उन शक्तियों का विकास होता था, उनसे उनकी मुठभेड़ होती है। ये उत्पादन-संबंध उत्पादक शक्तियों के विकास के विभिन्न रूप न रहकर अब उनके बन्धन हो जाते हैं। इसके बाद सामाजिक क्रान्ति का युग आरंभ होता है। आर्थिक नींव बदलने से उसपर बनी हुई वह भारी-भरकम इमारत भी बहुत कुछ जल्दी ही बदल जाती है। इस तरह के परिवर्तनों पर विचार करते हुए एक भेद अवश्य समझ लेना चाहिए। एक तो उत्पादन की आर्थिक 2-2600

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परिस्थितियों में भौतिक परिवर्तन होता है जिसे हम प्रकृतिविज्ञान की सही नापतौल की तरह आंक सकते हैं। दूसरा परिवर्तन क़ानूनी , राजनीतिक , धार्मिक , कलात्मक या दार्शनिक - संक्षेप में सैद्धान्तिक रूपों का होता है जिसमें मनुष्य संघर्ष के प्रति सचेत हो जाते हैं और निपटारे के लिए युद्ध करते हैं।

किसी व्यक्ति के बारे में हम अपनी धारणा इस बात से नहीं बनाते कि वह अपने बारे में क्या सोचता है ; इसी तरह परिवर्तन-युग को उसकी चेतना के बल पर हम नहीं परख सकते। इसके विपरीत इस चेतना की व्याख्या हम भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर करेंगे, उस विद्यमान संघर्ष के बल पर करेंगे जो समाज की उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-संबंधों के बीच हो रहा है". "मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि उत्पादन की एशियाई , प्राचीन , सामंतशाही और आधुनिक पूंजीवादी प्रणालियां समाज के आर्थिक संगठन के प्रगतिशील युग कही जा सकती हैं। (एंगेल्स के नाम मार्क्स के ७ जुलाई १८६६ के पत्र में इस उक्ति की ओर ध्यान दीजिये: "हमारा सिद्धान्त है कि उत्पादन के साधनों द्वारा श्रम- संगठन निश्चित होता है।" )

इतिहास की पदार्थवादी धारणा की खोज से, अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि सामाजिक घटनावली के क्षेत्र में पदार्थवाद के संगत प्रसार से , पहले के इतिहास के सिद्धान्तों के दो मुख्य दोष दूर हो गये। सबसे पहले वे सिद्धान्त बहुत से बहुत , मनुष्यों के ऐतिहासिक क्रिया-कलाप की सैद्धान्तिक प्रेरणा की छानबीन करते थे। इस सैद्धांतिक प्रेरणा के मूल स्रोत का पता लगाने की चेष्टा वे न करते थे; सामाजिक संबंधों की व्यवस्था के विकास में कौनसे वस्तुगत नियम काम कर रहे हैं, उन्हें उन्होंने न समझा था। वे यह न देख सकते थे कि सामाजिक संबंधों के रूप भौतिक उत्पादन के स्तर पर निर्भर हैं। इसके सिवा, पहले के इतिहास-शास्त्र ने जनता की कार्यवाही को अपना विषय ही न बनाया था। इसके विपरीत ऐतिहासिक पदार्थवाद से यह पहली बार संभव हुआ कि जन-जीवन की सामाजिक परिस्थितियों और उन परिस्थितियों के परिवर्तन का हम वैज्ञानिक प्रामाणिकता से अध्ययन करें। मार्क्स से पहले

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का "समाज-विज्ञान" और इतिहास लेखन अधिक से अधिक जहां-तहां से अपरिपक्व सामग्री उठाकर रख देते थे, और ऐतिहासिक क्रम के कुछ एक पहलुओं का वर्णन कर देते थे। मार्क्सवाद ने विरोधी प्रवृत्तियों के समन्वय को लेकर उसकी छानबीन की, समाज के विभिन्न वर्गों की उत्पादन-पद्धति और उनके जीवनक्रम की ऐसी परिस्थितियों के रूप में उन प्रवृत्तियों का सार निकाला कि उनकी निश्चित शब्दों में व्याख्या हो सके। मार्क्सवाद ने कुछ "विशिष्ट" विचारों के चयन में या उनकी व्याख्या करने में निरंकुशता और व्यक्तिगत भावना को ठुकराया और दिखाया कि किस तरह निरपवाद रूप से सभी विभिन्न प्रवृत्तियों और विचारों का उद्गम उत्पादन की भौतिक शक्तियों की परिस्थितियों में है। मार्क्सवाद ने सामाजिक-आर्थिक संगठनों की उन्नति , विकास और ह्रास के क्रम के एक व्यापक और सर्वग्राही अध्ययन का मार्ग दिखाया। मनुष्य अपने इतिहास के विधायक हैं। परन्तु उनकी कार्य-प्रेरणा , अर्थात् जन-समूहों की कार्य-प्रेरणा को निश्चित करनेवाला कौन है ? विरोधी विचारों और प्रयत्नों के संघर्ष का कारण क्या है ? मानव-समाजों के सम्पूर्ण समूह में इन संघर्षों का पंजीभूत परिणाम क्या होता है ? भौतिक जीवन के उत्पादन की वस्तुगत परिस्थितियां क्या हैं जो मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक क्रिया-कलाप का आधार बनती हैं ? इन परिस्थितियों के विकास का नियम क्या है ? इन सब बातों की ओर मार्क्स ने ध्यान दिलाया और वह मार्ग दिखाया जिससे कि अपनी असीम विविधता और विरोध के होते हुए भी सूत्रबद्ध नियमित क्रम के रूप में इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन हो सके।

वर्ग-संघर्ष

किसी भी समाज में कुछ लोगों के प्रयत्न दूसरों के प्रयत्नों से टक्कर खाते हैं ; सामाजिक जीवन अन्तर्विरोधों से पूर्ण है ; इतिहास हमें जातियों और समाजों के संघर्ष का परिचय देता है और बताता है कि स्वयं प्रत्येक जाति और समाज के भीतर संघर्ष होता है; क्रान्ति और प्रतिक्रिया , शान्ति और युद्ध, गतिरोध और द्रुतविकास या ह्रास के युग आते-जाते

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रहते हैं, ये तथ्य सर्वविदित थे। मार्क्सवाद से इस प्रकटतः भूल-भुलैयां और शृंखलाहीनता में नियम का शासन खोज निकालने के लिए कुंजी मिल जाती है। यह कुंजी वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त है। किसी भी समाज या समाजों के समूह के सभी सदस्यों के प्रयत्नों के समन्वय के अध्ययन से ही इन प्रयत्नों के परिणाम की वैज्ञानिक व्याख्या हो सकती है। जिन वर्गों में समाज विभाजित होता है, उनकी जीवन-पद्धति और परिस्थितियों के भेद से विरोधी प्रयत्नों का उद्गम होता है। 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स ने लिखा था , अब तक के विद्यमान सब समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है।" ( एंगेल्स ने बाद में जोड़ दिया था- "आदिम जन-समुदाय को छोड़ कर।") 'स्वतंत्र मनुष्य और दास , अभिजातवर्ग और साधारण प्रजा ( पेट्रीशियन और प्लेबियन ), सामन्त और कम्मी (अर्ध-गुलाम ), फ़ोरमैन और मजदूर कारीगर , संक्षेप में पीड़क और पीड़ित के बीच , तीव्र संघर्ष चलता आया है। ये दोनों वर्ग, कभी छिपे कभी प्रकट , बराबर एक दूसरे से लड़ते रहे। इस लड़ाई के अन्तस्वरूप या तो समाज के सारे ढांचे के अन्दर आमूल क्रान्तिकारी परिवर्तन हो जाता , या दोनों विरोधी वर्ग बर्बाद हो जाते ... सामन्ती समाज के ध्वंस से पैदा हुए आधुनिक पूंजीवादी समाज ने वर्ग-विरोधों को ख़त्म नहीं कर दिया है। उसने केवल पुराने वर्गों के स्थान में नये वर्ग, पीड़न की नयी पद्धति , और संघर्ष के नये स्वरूप खड़े कर दिये हैं। हमारे अपने युग, पूंजीवादी युग की, दूसरे युगों की तुलना में बस यही विशेषता है कि इसने वर्ग-विरोधों को सरल बना दिया है। आज का समाज अधिकाधिक दो महान विरोधी जमातों में, एक दूसरे के खिलाफ़ सीधे खड़े पूंजीपति और सर्वहारा, दो महान वर्गों में बंटता जा रहा है। "जब से फ्रांस की महान क्रान्ति हुई है तब से यूरोप के इतिहास में हमें विभिन्न देशों के भीतरी घटनाचक्र में यही वर्ग-संघर्ष साफ़ साफ़ नज़र आ रहा है। फ्रांस में बादशाह की सत्ता की पुनःस्थापना¹⁰ के काल में कुछ ऐसे इतिहासकार भी गये थे (त्येर्री, गिजो, मिन्ये , थियेर ) जो घटनाक्रम का परिणाम निकालते हुए यह देखने के लिए बाध्य हुए कि फ्रान्स के सम्पूर्ण इतिहास को समझने की कुंजी वर्ग-संघर्ष है। वर्तमान युग में, जब

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पूंजीवादी वर्ग की पूर्ण विजय हो गयी है, जिस युग में प्रतिनिधि-संस्थाएं हैं, विस्तृत (या आम) मताधिकार है, जनता तक पहुंचनेवाले सस्ते दैनिक हैं, मजदूरों और मालिकों आदि के शक्तिशाली और नित विस्तृत होनेवाले संगठन हैं, - इस युग में और भी स्पष्ट रूप से दिखायी देता है ( यद्यपि कभी कभी बहुत ही एकांगी , “शान्तिपूर्ण' और "वैधानिक रूप में ) कि वर्ग-संघर्ष ही घटनाओं की मूल प्रेरणा है। मार्क्स के 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के निम्नलिखित वाक्यों से पता चलेगा कि वर्तमान समाज में प्रत्येक वर्ग की स्थिति के वस्तुगत विश्लेषण में, और प्रत्येक वर्ग के विकास की दशा के विश्लेषण के लिए, मार्क्स सामाजिक विज्ञान से क्या चाहते थे : “पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध आज जितने वर्ग खड़े हैं उन सब में केवल सर्वहारा वर्ग ही वास्तविक रूप में क्रान्तिकारी है। दूसरे वर्ग आधुनिक उद्योग के सामने नष्ट-भ्रष्ट होकर आखिर में ख़तम हो जाते हैं। सर्वहारा वर्ग उसकी आवश्यक और ख़ास अपनी उपज है। निम्न मध्य-वर्ग के लोग : छोटे कारखानेदार , दूकानदार, दस्तकार, किसान,-ये सब अपने मध्यवर्गीय अस्तित्व को बचाये रखने के लिए पूंजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ लड़ते हैं। इसलिए वे क्रान्तिकारी न होकर रूढ़िवादी होते हैं। बल्कि, इतना ही नहीं, वे प्रतिक्रियावादी हैं, क्योंकि वे इतिहास के पहियों को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं। अगर संयोग से वे क्रान्तिकारी होते हैं तो वह सिर्फ इस खयाल ने कि उन्हें सर्वहाराओं की श्रेणी में पहुंचना पड़ेगा, कि वे अपने वर्तमान हितों की नहीं, बल्कि भविष्य के स्वार्थों की रक्षा करते हैं और अपना दृष्टिकोण छोड़कर सर्वहारा वर्ग का दृष्टिकोण अपना लेते हैं।" मार्क्स ने कई ऐतिहासिक ग्रंथों में ('साहित्य' देखिये ) पदार्थवादी इतिहास-लेखन की गम्भीर और श्रेष्ठ मिसालें दीं। उन्होंने प्रत्येक वर्ग विशेष की स्थिति और कभी-कभी एक ही वर्ग के भीतर के विभिन्न गुटों या स्तरों का विश्लेषण किया और स्पष्ट रूप से दिखाया कि क्यों और कैसे “प्रत्येक वर्ग-संघर्ष राजनीतिक संघर्ष है"। ऊपर के उद्धरण से पता चलता है कि समूचे ऐतिहासिक विकास का परिणाम निश्चित करने के लिए मार्क्स सामाजिक सम्बन्धों के किस तानेबाने और एक वर्ग से दूसरे वर्ग

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[ २२ ]तक , भूतकाल से भविष्य तक के संक्रमण की अवस्थाओं का विश्लेषण

करते हैं।

मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों द्वारा मार्क्सवाद का सबसे गंभीर, बहुमुखी और सर्वांगीण पुष्टीकरण तथा प्रयोग हुआ है।


मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्त

'पूंजी' के प्रथम खंड की भूमिका में मार्क्स ने लिखा था- "इस पुस्तक का अन्तिम ध्येय वर्तमान समाज" (अर्थात् पूंजीवादी , बुर्जुआ समाज) "की गति के आर्थिक नियम को प्रकट करना है।" किसी विशेष और ऐतिहासिक दृष्टि से निर्धारित समाज के उत्पादन-संबंधों की उत्पत्ति , विकास और ह्रास का अनुसंधान - यह है मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत का अन्तरस्थ । पूंजीवादी समाज की प्रमुख विशेषता माल तैयार करना है और इस कारण से मार्क्स का विश्लेषण माल की छान-बीन से शुरू होता है।

मूल्य

माल उसे कहते हैं जिससे मनुष्य की कोई ज़रूरत पूरी होती हो ; इसके सिवा माल उसे कहते हैं जिसके बदले में कोई और चीज़ मिल सके। किसी वस्तु की उपयोगिता से वह उपयोग-मूल्य बनती है। विनिमय- मूल्य (अथवा केवल मूल्य ) सबसे पहले एक अनुपात के रूप में आता है। यह अनुपात एक तरह के कुछ उपयोग-मूल्यों से दूसरी तरह के कुछ उपयोग-मूल्यों के विनिमय में होता है। दैनिक जीवन हमें बताता है कि इस तरह के लाखों-करोड़ों विनिमयों से तमाम तरह के उपयोग-मूल्य जो परस्पर भिन्न और एक दूसरे के समकक्ष नहीं हैं, सारा वक्त एक दूसरे के बराबर कर दिये जाते हैं। सामाजिक संबंधों की किसी निश्चित व्यवस्था में इन तरह-तरह की चीज़ों में समान वस्तु क्या है, जो बराबर एक दूसरे से नापी-तौली जाती हैं ? उनमें समानता यह है कि वे श्रम की उपज हैं। इस तरह वस्तुओं का विनिमय करने में लोग अत्यंत विलग