कुँवर उदयभान चरित/२

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कुँवर उदयभान चरित  (1905) 
द्वारा इंशा अल्ला खां

[ १० ]

आना जोगी महेन्दरगिर का कैलास परवत से और हिरन हिरनी कर डालना कुँवर उदयभान और उसके मा बाप का।

जगतपरकास अपने गुरु को जो कैलास पहाड़ पर रहता था यों लिख भेजता है "कुछ हमारी सहाय कीजिये महा कठिन हम बिपता मारों को पड़ी है राजा सूरजभान को अब यहां तक बावभक ने लिया है जो उन्हों ने हमसे महाराजों से नाते का डौल किया है"। कैलास पहाड़ एक डाल चांदी का है। उस पर राजा जगतपरकास का गुरू जिसको इन्द्रलोक के लोग सब महेन्दरगिर कहते थे ध्यान ज्ञान में कोई नब्बे लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात रहा करता था। सोना रूपा तांबे रांगे का बनाना तो क्या और गुटका [ ११ ] मुंह में लेके उड़ना वरे रहे उसके और और बातें इस इस ढव की ध्यान में थीं जो कुछ कहने और सुन्ने से बाहर हैं। मेंह सोने और रूपे का बरसा देना और जिस रूपमें चाहना हो जाना। सब कुछ उसके आगे एक खेल था और गाने में और बीन बजाने में महादेव जी छुट सब उसके आगे अपने कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसको हिन्दू कहते हैं आदिशक्ति उन्ने उसी से कुछ कुछ गुनगुनाना सीखा था। उसके साम्हने छ राग छत्तीस रागनियां आठ पहर बंधुवों का सा रूप धरे हुए उसकी सेवा में हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं वहां अतीतों को यह कहकर पुकारते थे भैरोंगिर विभासगिर हिण्डोलगिर मेघनाथ किदारनाथ दीपक दास जातीसरूप सारङ्गरूप और अतीतने इस ढव से कहलाती हैं गूजरी टोड़ी असावरी गौरी मालसिरी बिलावल। जब चाहता था अधर में सिङ्गासन पर बैठ के उड़ाये फिरता था और नव्वे लाख अतीत गुटके अपने मुंहमें लिये हुए गेरुवे बसतर पहने हुए जटा बिखारे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी राजा जगतपरकास की चिट्ठी एक बगला ले पहुंचता है जोगी महेन्दरगिर एक चिंघाड़ मार के दल बादलों को ढलका देता है बाघंबर पर बैठ भभूत अपने मुंहमें मल कुछ कुछ पढ़न्त करता हुआ पवन के घोड़े की पीठि लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंहमें लिये हुए बोल उठे गोरख जागा एक आंख की झपक में वहां आन पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आयी फिर ओले बरसे फिर एक बड़ी आंधी आयी किसी को अपनी सुध बुध न रही। हाथी घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ राजा सूरजभान की थी कुछ न समझा गया किधर गयी और इन्हें कौन उठा लेगया और राजा जगतपरकास के [ १२ ] लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर केवड़े की बूंदों की नन्ही नन्ही फुहार सी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका तो गुरूजी ने अपने अतीतों से कहदिया उदयभान सूरजभान लछमीबास इन तीनों को हिरन हिरनी बना के किसी बनमें छोड़ दो और जो इनके साथी हों उन सभोंको तोड़ फोड़ दो। जैसा कुछ गुरूजीने कहा झटपट वैसा ही किया। बिपत का मारा कुंवर उदयभान और उसका बाप वह महाराजा सूरजभान और उसकी मा वह महारानी लछमीबास हिरन हिरनी बन वन की हरी हरी घास कई बरस तक चुगते रहे और उस भीड़ भड़के का तो कुछ थल बैड़ा न मिला जो किधर गयी और कहां थी॥ यहां की यहां ही रहने दो आगे सुनो अब रानी केतकी की बात और महाराजा जगतपरकास की सहनी इनका घरका घर गुरूजी के पावों पर गिरा और सबने सिर झुका कर कहा महाराज यह आपने बड़ा काम किया हम सब को रख लिया जो आज न आप पहुंचते तो क्या रहा था सब ने मरमिटने की ठान ली थी। इन पापीयों से कुछ न चलेगी यह जानली थी। राजपाट सब हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिये दे डालिये हम सब को अतीत बना के अपने साथ लीजिये राज हमसे नहीं थमता सूरजभान के हाथ से आपने बचाया अब कोई इनका चचा चन्दरभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा अपने आप में तो सकत नहीं फिर ऐसे राजा का फिट्टे मुंह हम कहां तक आप को सताया करेंगे यह सुनकर जोगी महेन्दरगिरं ने कहा तुम सब हमारे बेटे बेटी हो आनन्दं करो दनदनावो सुख चैनसे रहो ऐसा वह कौन है जो तुम्हें आंख फेर और ढबसे देख सके यह बाघम्वर और यह भनूत हमने तुम्हें दिया आगे जो कुछ ऐसी गाढ़ पड़े तो इस बावम्बर में से एक रोंगटा तोड़ कर आग पर धर के [ १३ ] फूंक दीजियो वह रोंगटा फुकने न पावेगा हम आन पहुंचेंगे रहा भभूत सो इस लिये है जो कोई चाहे जब इसे अञ्जन करे वह सब कुछ देखे और उसे कोई न देखे जो चाहे करले गुरू महेन्दरगिर जिसके पांव पूजिये और धन्न महाराज कहिये उन से तो कुछ छुपाव न था महाराजा जगतपरकास उन को मोरछल करते हुए रानियों के पास ले गये सोने रूपे के फूल में हीरे मोती गोद भर भर सबने निछावर किये और माथे रगड़े इन्हों ने सब की पीठें ठोंकी रानी केतकी ने भी दण्डवत की पर जी ही जी में गुरूजी को बहुत सी गालियां दीं गुरूजी सात दिन सात रातें यहां रहके राजा जगतपरकास को सिंहासन पर बैठाके अपने उस बाघम्बर पर उसी डौल से कैलास पहाड़ पर आ धमके राजा जगतपरकास अपने अगले से ढब से राज करने लगा।

रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना
और पिछली बातों का ध्यान करके जी
से हाथ धोनाअपनी बोलीकी धुनमें॥

रानी को बहुतसी बेकली थी। कब सूझती कुछ भली बुरी थी॥
चुपके चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थी॥
कहती थी कभी अरी मदनवान। है आठ पहर मुझे वही ध्यान॥
यहां प्यास किसे भला किसे भूख। देखूहुं वाही हरे हरे रूख॥
टपके का डर है अब यह कभी। चाहत का घर है अब यह कभी॥
अमरइयों में उनका वह उतरना। और रात का सांय सांय करना॥
और चुपके से उठ के मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना॥
उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनी॥

[ १४ ]

आंखों में मरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही है॥
क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं। कबतक मा बाप से डरूं मैं॥
अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बनके हिरन हुए उदयभान॥
चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तूभी पसीज सोच में डूब॥
मैं अपनी गई हुं चौकड़ी भूल। मत मुझको सुंघाय डहडहे फूल॥
फूलों को उठाके यहां से लेजा। सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा॥
बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का लाके रखदे गठ्ठा॥
हरयाली उसी की देखळूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं॥
इन आंखों में है भड़क हिरनकी। पलकें हुईं जैसे घास बनकी॥
जब देखिये डबडबा रही हैं। ओसें आसूं कि छा रही हैं॥
यह बात जो जीमें गड़गई है। एक ओससी मुझपै पड़ गई है॥

इसी डौलसे जब अकेली होती थी तब मदनबान के साथ ऐसेही मोती पिरोती थी॥

भभूत मांगना रानी केतकी का अपनी मा रानी कामलता से आंखमिचौवल खेलने के लिये और रूठ रहना और राजा जगतपरकास का बुलाना और प्यार से कुछ कुछ कहना और वह भभूत देना॥

एक रात रानी केतकी अपनी मा रानी कामलता को भुलावे में डाल यह पूछा गुरू जी गुसाईं महेन्दरगिर ने जो भभूत बाप को दिया था वह कहां रक्खा हुआ है और उससे क्या होता है उस की मा ने कहा मैं तेरी वारी! तू क्यों पूछती है रानी केतकी कहने लगी [ १५ ] आंख मिचौवल खेलने के लिये चाहती हूं जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो कोई मुझको पकड़ न सके रानी कामलता ने कहा वह खेलने के लिये नहीं है। ऐसे लटके किसी बुरे दिन को सँभाल को डाल रखते हैं क्या जानें कोई घड़ी कैसी है कैसी नहीं। रानी केतकी अपनी मा की इस बात से अपना मुंह ठिठा के उठ गई और दिनभर बिन खाये पीये पड़ी रही। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रुचि नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी अजी तुम ने कुछ सुना भी बेटी तुम्हारी आंखमिचौवल खेलने के लिये वह भभूत गुरूजीका दिया हुआ मांगती थी मैंने न दिया और कहा लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं किसी बुरे दिन के लिये गुरूजी देगये हैं इसी पर मुझसे रूठी है बहुतेरा भुलाती फुसलाती हूं मान्ती नहीं, महाराजने कहा भभूत तो क्या मुझे तो अपना जी भी इससे प्यारा नहीं इस के एक घड़ी भरके बहल जाने पर एक जी तो क्या जो लाख जी हों तो दे डालिये। रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ासा भभूत दिया। कई दिन तक आंखमिचौवल अपने मा बाप के साम्हने सहेलियों के साथ खेलती सब को हँसाती रही जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किये क्या कहूं एक चुहल थी जो कहिये तो करोरों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके।

रानी केतकी का चाहत से बेकल हो उभरना
और मदनवान का साथ देने से नहीं करना॥

एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में अपने मदनबान से बोल उठी अब मैं निगोड़ी लाज से कट गिरती हूं तू मेरा साथ दे मदन[ १६ ] बान ने कहा क्यों कर। रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे चिताया और यह सुनाया सब यह अंखमिचौवल की चुहले मैंने इसी दिन के लिये कर रक्खी थीं। मदनवान बोली मेरा कलेजा थरथराने लगा मैं यह माना तुम अपनी आंखों में इस भभूत का अंजन करलोगी और मेरे भी लगादोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा और हम तुम सब को देखेंगे पर ऐसे हम कहां से जी चले हैं जो बिन लिये साथ जोबन साथ बन बन भटका करें और हिरनों के सींगों में दोनों हाथ डाल के लटका करें और जिसके लिये यह सब कुछ है सो वह कहां और होवे तो क्या जाने जो यह रानी केतकी जी और यह मदनबान निगोड़ी नुची खसोटी इन की सहेली है चूल्हे भाड़ में जाय यह चाहत जिस के लिये मा बाप राज पाट सुख नींद लाज छोड़ कर नदी के कछारों में फिरना पड़े सोभी बेडौल जो वह अपने रूपमें होते तो भला थोड़ा बहुत कुछ आसरा था न जी यह हमसे न होसकेगा। महाराज जगत परकास और महारानी कामलता का हम जान बूझ कर घर उजाड़ें और बहका के उनकी बेटी जो इकलौती लाड़ली है उसको लेजावें और जहां तहां भटका और बनासपती खिलावें और चेड़े को हिलावें ऐ जी उस दिन तुम्हें यह बूझ न आयी थी जब तुम्हारे और उसके मा बाप में लड़ाई होरही थी उसने उस मालनके हाथ तुम्हें लिख भेजा था भागचलें तब तो अपने मुँह की पीकसे उसकी चिट्ठी की पीठ पर जो लिखा था सो क्या भूलगयी तबतो वह ताव भाव दिखाया था अब जो वह कुँवर उदयभान और उनके मा बाप तीनों जने बन बन के हिरन हिरनी बने हुए क्या जानिये किधर होंगे उन के ध्यान पर माटी डाल दो नहीं तो पछतावोगी और अपना किया पावोगी मुझसे तो कुछ न हो सकेगा तुम्हारी कुछ अच्छी बात होती तो जीते जी मेरे मुँह से न [ १७ ] निकलती पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती तुम अभी अल्हड़ हो तुम ने कुछ देखा नहीं जो इसी बात पर तुम्हें सचमुच ढलता हो तो देखूंगी तुम्हारे मा बाप से कहकर वह भभूत जो वह मुवा निगोड़ा भूत मछन्दर का पूत अवधूत दे गया है हाथ मरोड़वाकर छिनवा लूंगी। रानी केतकी ने यह रुखाइयां मदनबान की सुनकर हंस के टालदिया और कहा जिसका जी हाथमें न हो उसे ऐसी लाखों सूझती हैं पर कहने और करने से बहुत सा फेर है यह भला कोई अंधेर है जो मा बाप को छोड़ हिरनों के पीछे दौड़ती करछाल मारती फिरूं पर अरी तू बड़ी बावली चिड़िया है जो तूने यह बात ठीकठाक कर जानली और मुझसे लड़ने लगी॥

रानी केतकी का भभूत आंखोंमें लगाकर घर से
बाहर निकल जाना और सब छोटों
बड़ों का तलमलाना।

दस पन्दरह दिनके पीछे एक रात रानी केतकी मदनबान के बिन कहे वह भभूत आंखों में लगाकर घर से बाहर निकल गयी कुछ कहने में नहीं आता जो मा बाप पर हुई सब ने यह बात ठहरा दी गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट सब कुछ इस वियोग में छोड़छाड़ पहाड़ की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने लोगों में से राज थामने के लिये छोड़ गये तब मदनबान ने सब बातें खोलीं रानी केतकी के मा बाप ने यह कहा अरी मदनबान जो तू भी उसके साथ होती तो एकसे दो भली थी अब [ १८ ] जो वह तुझे लेजाबे तो कुछ हिचर मिचर न कीजियो उसके साथ हो लीजियो जितना भभूत है तू अपने पास रख हम क्या इस राख को चूल्हे में डालेंगे गुरूजी ने तो दोनों राजों का खोज खो दिया कुँवर उदयभान और उसके मा बाप दोनों अलग हो रहे जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया भभूत न होता तो यह काहेको साम्हने आतीं। निदान मदनवान भी उनके ढूंढने को निकली अंजन लगाये हुए रानी केतकी कहती हुई चली जाती थी बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की डारों में उदयभान उदयभान चिंघाड़ती हुई आ निकली ज्यों एक को एक ने ताड़कर यों पुकारा अपनी अपनी आंखें धो डालो एक डबरे पर बैठ के दोनों की मुठभेड़ हुई। गले मिलके ऐसी रोईं जो पहाड़ों में कूकसी पड़ गयी॥

दोहा अपनी बोली का।

छागई ठण्डि सांस झाड़ों में। पड़गई कूकसी पहाड़ों में॥

दोनों जनीं एक टीले पर अच्छी सी छांह ताड़ के आ बैठीं अपनी अपनी बातें दोहराने लगीं।

बात चीत मदनवान की रानी केतकी के साथ।

रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींखना झींखा की और उनके मा बाप ने उनके लिये जो जोग साधा था और वियोग लिया था सब कहा जब मदनबान यह सब कुछ कहचुकी तो फिर हँसने लगी रानी केतकी यह दोहा लगी पढ़ने॥ [ १९ ]

हम नहिं हंसने रुकते जिसका जी चाहे हंसे।
है वही अपनी कहावत आफँसे जी आफँसे॥
अब तो अपने पीछे सारा झगड़ा झांटा लग गया।
पांव का क्या ढूंढती है जी में कांटा लग गया॥

मदनबान से कुछ रानी केतकी के आंसू पुछते से चले उनने यह बात ठहरायी जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजड़े हुए मा बाप को चुपचाप यहीं ले आउं और उन्हीं से इस बात को ठहराऊं गुसांईं महेन्दरगिर जिसके यह सब करतूत हैं वह भी उन्हीं दोनों उजड़े हुओं की मुट्ठी में हैं अभी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढ़े तो गये हुए दिन फिर फिर सकते हैं पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं हम क्या पड़े बकते हैं मैं इस पर बीड़ा उठाती हूं बहुत दिनों में रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने मा बाप के पास भेजा और चिट्ठी लिख भेजी जो आप से कुछ हो सके तो उस जोगी से यह ठहराके आवें।

महाराज और महारजी के पास मदनवान का
फिर आना और चित चाही बात सुनाना।

मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड़ पर बैठे हुए थे वहां झट से आदेस करके आ खड़ी होती है और कहती है लीजे आप का घर नये सिर से बसा और अच्छे दिन आये रानी केतकी का एक बाल भी बीका नहीं हुआ उन्हीं के हाथ की चिट्ठी लायी हूं आप पढ़ लीजिये आगे जो चाहिये सो कीजिये। महाराज ने उसी बाघम्बर में से एक रोंघटा तोड़[ २० ] कर आग पर धर दिया बात की बात में गुसाई महेन्दरगिर आ पहुंचे और जो कुछ यह नया स्वाँग जोगी जोगन का आया था आंखों देखा सब को छाती से लगाया और कहा बाघम्बर तो इसी लिये मैं सौंप गया था जो तुम पर कुछ होवे तो इसका एक रोंघटा फूंक दीजो तुम्हारे घर की यह गति होगयी अब तक तुम क्या कर रहे थे और किन नींदों । सो रहे थे पर तुम क्या करो वह खिलाड़ी जो रूप चाहे सो दिखावे जो जो नाच चाहे सो नचावे भभूत लड़की की क्या देना था हिरन हिरनी उदयभान और सूरजभान उसके बाप को और लछमीबास को मैंने किया था मेरे आगे उन तीनों को जैसा का तैसा करना कुछ बड़ी बात न थी अच्छा हुई सो हुई अब चलो उठो अपने राज पर विराजो और ब्याह के ठाठ करो अब तुम अपनी बेटी को समेटो कुँवर उदयभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूंगा महाराज यह सुनते ही अपने राज की गद्दी पर आ बैठे और उसी घड़ी कह दिया सारी छतों को और कोठों को गोटे से मढ़लो और सोने रूपे के सुनहरे रुपहरे सब झाड़ और पहाड़ों पर बांध दो और पेड़ों में मोती की लड़ियां गूंधो और कहदो चालीस दिन चालीस रात तक जिस घर नाच आठ पहर न रहेगा उस घरवाले से मैं रूठ रहूंगा और जागा यह मेरे दुख सुख का साथी नर्ही छ महीने जब कोई चलनेवाला कहीं न ठहरे और रात दिन चला जाय इस हेर फेर में वह राज सब कहीं था यही डौल हो गया।

जाना महाराज और महारानी और गुसाईं महेन्दरगिर का रानी केतकी के लेने के लिये।

फिर गुरूजी और महाराज और महारानी मदनवान के साथ वहां आपहुंचे जहां रानी केतकी चुपचाप सुन बैंचे बैठी थी गुरूजी ने रानी [ २१ ] केतकी को अपनी गोद में लेके कुँवर उदयभान का चढ़ावा चड़ा दिया और कहा तुम अपने बाप के साथ अपने घर सिधारो अब मैं अपने बेटे कुँवर उदयभान को लिये आता हूं गुरूजी गुसाई जिनको दण्डवत है सो तो यों सिधारते हैं आगे जो होगी सो कहने में आवेगी यहां की यह धूमधान और फैलावा अब ध्यान कीजिये महाराजा जगतपरकास ने अपने सारे देसमें कहा यह पुकारदे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होगी गांव में आमने सामने तिरपौलिये बना बना के सूहे कपड़े उनपर लगादो और गोट धनक की और गोखरू रुपहरे सुनहरे किरने और डांक टांक टांक रक्खो और जितने वड़ पीपल के पुराने पुराने पेड़ थे जहां जहां हों उन पर गोटों के फूलोंके सिहरे हरी भरी बड़ी ऐसे जिसमें सिर से लगा जड़ तलक उनकी थलक और झलक पहुंचे बांध दो॥

॥चौतुक्का॥

पौदों ने रंगा के सूहे जोड़े पहने। सब पांउ में डालियों ने तोड़े पहने॥
बूटे बूटे ने फूल फल के गहने। जो बहुत न थे तो थोड़े थोड़े पहने॥

जितने डहडहे और हरियावल में लहलहे पात थे सबने अपने अपने हाथ में चुहचही मिहँदी को रचावट सजावट के साथ जितनी समावट में समा सकी करली और जहां तलक नवल ब्याही दुल्हन नन्हीं नन्हीं फलियों की और सुहागनें नयी नयी कलियों की जोड़े पंखड़ियों के पहने हुए थीं सब ने अपनी अपनी गोद सुहागप्यार की फूल और फलों से भरलीं और तीन बरस का पैसा जो लोग दिया करते थे उस राजा के राज भर में जिस जिस ढब से हुआ खेती बारी करके हल जोत के और कपड़ा लत्ता बेच खोंच के सो सब [ २२ ] उनको छोड़ दिया अपने अपने घरों में बनाव के ठाठ करें और जितने राज भर में कुवे थे खण्डसालों की खण्डसालें लेजा उनमें उण्डेली गई और सारे बनों में और पहाड़ तलियों में लालटैनों की बहार झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी और जितनी झीलें थीं उन सब में कुसुम और टेसू और हरसिंगार तैरगया और केसर भी थोड़ी थोड़ी घोलो में आगयी और फुनंगे से लगा जड़ तलक जितने झाड़ झांखरों में पत्ते और पत्तों के बन्धे छूटे थे उनमें रुपहले सुनहले डांक गोंद लगा लगा के चिपकादिये और कह दिया गया जो सूही पगड़ी चौर सूहे बागे बिन कोई किसी डौलका किसी रूपसे न फिरे चले और जितने गवइये नचइये भांड भगतिये ढांडी रासधारी और संगीत नाचते हुए हों सबको कह दिया जिन जिन गावों में जहां जहां हों अपने अपने ठिकानों से निकल कर अच्छे अच्छे बिछौने बिछाकर गाते वजाते धूम मचाते नाचते कूदते रहा करें॥