कुँवर उदयभान चरित/३

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कुँवर उदयभान चरित  (1905) 
द्वारा इंशा अल्ला खां

[ २२ ]

ढूंढना गुसाईं महेन्दरगिर का उदयभान और उसके मा बापको और न पाना और बहुतसा तलमलाना और राजा इन्दर का उसकी चिट्ठी पढ़ के आना।

यहां की बात और चुहलें जो कुछ हैं सो यहीं रहने दो अब आगे यह सुनो जोगी महेन्दरगिर और उसके नब्बे लाख अतीतों सारे वन के वन छान मारे कहीं कुँवर उदयभान और उसके मा बाप का ठिकाना न लगा तब उन्ने राजा इन्दर को चिट्ठी लिखभेजी उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था तीनों जनों को मैंने हिरन और हिरनी [ २३ ] कर डाला था अब उनको ढूंढता फिरता हूं कहीं नहीं मिलते और जितनी सकत थी अपनी सी कर चुका हूं और मेरे मुँह से निकला कुँवर उदयभान मेरा बेटा और मैं उसका बाप उसकी सुसराल में सब ब्याह के ठाठ हो रहे हैं अब मुझ पर निपट गाढ़ है जो तुम से हो सके सो करो राजा इन्दर गुरू महेन्दरगिर के देखने को सब इन्द्रासन समेत आप आन पहुंचता है और कहता है जैसा आप का बेटा वैसा मेरा बेटा आप के साथ सारे इन्दरलोक को समेट के कुँवर उदयभान को ब्याहने चढूंगा गुसाई महेन्दरगिर ने राजा इन्दर से कहा हमारी आप की एकही बात है पर कुछ ऐसी सुझाइये जिस में वह कुँवर उदयभान हाथ आवे यहां जितने गवैये और गायने हैं उनको साथ लेके हम और आप सारे वनों में फिरें कहीं न कहीं ठिकाना लग जायगा॥

हिरन और हिरनियों के खेलका बिगड़ना और नये सिरसे कुँवर उदयभान का रूप पकड़ना।

एक रात राजा इन्दर और गुसाईं महेन्दरगिर निखरी हुई चांदनी में बैठे राग सुन रहे थे करोरों हिरन आस पास आन के राग के ध्यान में चौकड़ी भूले सिर झुकाये खड़े थे इसमें राजा इन्दर ने कह दिया कि सब हिरनों पर पढ़के मेरी सकत गुरुके बहुरे भगत मंत्र ईश्वरोबाच एक एक छीटा पानी का दो क्या जानें वह पानी क्या था पानी के छींटे के साथी कुँवर उदयभान और उनके मा बाप तीनों जने हिरनों का रूप छोड़कर जैसे थे वैसे हो जाते हैं महेन्द्रगिर और राजा इन्दर इन तीनों को गले लगाते हैं और पास अपने बड़ी आव [ २४ ] भगत से बैठाते हैं और वही पानी का घड़ा अपने लोगों को देकर वहां पहुंचा देते हैं जहां सिर मुंडाते ही ओले पड़े थे राजा इन्दर के लोग जो पानी के छीटे वही ईश्वरोवाच पढ़के देते हैं जो जो मरमिटे थे सब खड़े होते हैं और जो जो अधमुवे होके भाग बचे थे सब सिमट आते हैं राजा इन्दर और महेन्दरगिर कुँवर उदयभान और राजा सूरजभान और रानी लछमीबास को लेकर एक उड़न खटोले पर बैठ कर बड़ी धूमधाम से उनको अपने राजपर बैठा ने ब्याह के ठाठ करते हैं पनसेरियों हीरे मोती उन सब पर निछावर होते हैं राजा सूरजभान और उदयभान और उनकी माता लछमीबास चितचाही आस पाकर फूले अपने आप में नहीं समाते और सारे अपने राजको यही कहते जाते हैं जौंरेभैौंरे के मुँह खोलदो और जिस जिस को जो जो उकत सूझे बोलदो आज के दिन से और कौनसा दिन होगा हमारी आंखों की पुतलियों का जिससे चैन है इस लाड़ले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूपसे निकल कर फिर राज पर बैठना पहले तो यह चाहिये जिन जिन की बेटियां बिन ब्याहियान कुँवारियान बालियान हों उन सब को इतना कर दो जो अपने जिस जिस चावचोज से चाहें अपनी अपनी गुड़ियां सँवार के उठादें और जब तलक जीते रहें हमारे यहां से सबके सब खाया पिया पकाया रांधा करें और सब राजभर की बेटियां सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे राते छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के किवांड़ गङ्गाजमनी सब घरों में लगजावें सब कोठों के माथों पर केसर और चन्दन के टीके लगे हों और जितने पहाड़ हमारे देस में हों उतने उतने ही रूपे सोने के पहाड़ आमने सामने खड़े हो जावें और सब डाकों के चोटियां मोतियों की मांग से बिन मांगे भर जावें और [ २५ ] फूलों के गहने और बन्दनवार से सब झाड़ पहाड़ लदे फँदे रहें और इस राजसे लगा उस राज तक अधरमें छतसी बांधदो चप्पा चप्पा कहीं न रहे फूल इतने बहुत सारे खंडजाय जोनदीया जैसी सचमुज फूलके बहतीयां हैं यह समझा जाय जहां भीड़ भड़क्का धूम घड़क्का न होना चाहिये और यह डौल करदो जिधर से दूल्हे को ब्याहने चढ़े सब लालड़ी और हीरे और पुखराज की इधर उधर कँवलकी टट्टियां बँधजायें और क्यारियां सी हो जायें जिनके बीचों बीचसे हो निकलें और कोई डांग और पहाड़तली का उतार चढाव ऐसा दिखाई न दे जिस की गोद पखरोटों और फूल फलों से भरी भतूली न हो।

राजा इन्द्र का ठाठ करना उदयभान के ब्याहने के लिये।

राजा इन्दर ने कह दिया वह रण्डियां बुलबुलियां जो अपने मद में उड़ चलियां हैं उनखे कहदो सोलह सिंगार बालबाल गजमोती पिरोवो अपने अपने अचरज और अचंभे के उड़न घटोलों को इसस राजसे ले उस राज तलक अथरमें छतसी बांधदो पर कुछ ऐसे रूप से उड़ चलो जो उड़नखटोलों की क्यारियां और कुलवारियां सी सैकड़ोंकोस तक होजायें और ऊपरही उपर मिरदंग बीज जलतरंग मुँहचंग घूँघरू तबले करताल और सैकड़ा इल ढब के अनोख बाजे बजते आयें और उन क्यारियों के बीचमें हीरे पुखराज अनबेधे मोतियों के झाड़ और लालटैंनों की भीड़भाड़ झमझमाहट दिखाई दे और और उन्हीं लालटैनों में से हथफूल फुलझड़ियां जाही जूहियां कदम गेंदा [ २६ ] चबेली इस ढब से छूटें जो देखतों की छातियोंके किवाड़ खुलजायं और पटाखे जो उछल उछल के फूटें उनमें से हँस्तीसुपारी और बोलते पखरौटे ढुलढुल पड़ें और जब तुम सबको हँसी आवे तो चाहिये उस हँसी के साथ मोती की लड़ियां झड़ें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजराजे होजाबें डोमिनियोंके रूपमें सारंगियां छेड़ छेड़ सोहलें गावो दोनों हाथ हिलावो उँगलियां नचावो जो किसी ने न सुने हों वह ताव भाव आव जाव राव चाव दिखावो ठुड्डिया कपकपावो और नाक भवें तान तान भाव वतावो कोई फूटकर रह न जावो ऐसा भाव जो लाखों बरस में होता है जो जो राजा इन्दर ने अपने मुँह से निकाला था आंख की झपक के साथ वहीं होने लगा और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने इधर उधर कह दिया था सब कुछ उसी रूपसे ठीकठाक होगया जिस ब्याहने की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघटे के साथ हो कि उसका और कुछ फैलावा क्या होगा यह ध्यान करलो।

ठाठ गुसाईं महेन्दरगिरिका।

जब कुँवर उदयभान को उस रूप से ब्याहने चढ़े और वह बामन अंधेरी कोठरी में मुंदा हुआ था उस को भी साथ लेलिया और बहुत से हाथ जोड़े और कहा बाह्मन देवता हमारे कहने सुन्ने पर न जावो तुम्हारी जो रीत होती चली आई है बताते चलो एक उड़नखटोले पर वह भी रीति बताने को साथ हुआ राजा इन्दर और गुसाईं महेन्दरगिर ऐरावत हाथी पर झूमते झामते देखते भालते सारा अखाड़ा लिये चले जाते थे राजा सूरजभान दूल्हे के घोड़े के साथ [ २७ ]

माला जपता हुआ पैदल था इतने में एक सन्नाटा हुआ सब घबरा गये उस सन्नाटे में से वह जो जोगी के नब्वेलाख अतीत बने थे सब के सब जोगी बने हुये मोतियों की लड़ियों के सेली तागे गलों में डाले गातियां उसी ढव की बांधे मृगछालों और बाघम्बरों पर आ टपके लोगों के जियों में जितनी उमंगें छारही थीं वह चौगुनी पचगुनी होगईं सुखपाल और चंडोलों पर और रथों पर जितनी रानियां और महारानियां लछमीवास के पीछे चली आती थीं सब गुदगदियां सी होने लगीं उस में कहीं भरथरी का स्वांग आया कहीं जोगी जैपाल आ खड़े हुए कहीं महादेव और पारवती दिखाई पड़े कहीं गोरख जागे कहीं मछन्दरनाथ भागे कहीं मच्छ कच्छ बराह सन्मुख हुए कहीं परसराम कहीं वामनरूप कहीं हरनाकस और नरसिंह कहीं राम लछमन सीता सामने आये कहीं रावन और लङ्का का बखेड़ा सारे का सारा दिखाई देने लगा कही कन्हहैया जी का जन्मअष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका उस रूप से बढ़ चलना और गाय चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूम मचानी और राधिका रस और कुबजा का बस करलेना कहीं बनसीबट चीर घाट वृन्दावन करील की कुंज बरसाने में रहना और ऊस कन्हैया से जो जो कुछ हुआ था सब का सब ज्यों का त्यों आंखों में आना और द्वारका में जाना और वहीं सोने के घर बनाना और फिर ब्रज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना साम्हने आगया उन गोपियों में से ऊधो का हाथ पकड कर एक गोपी के उस कहने ने सबको रुला दिया जो उस ढब से बोल के रौंधे हुये जी को खोलती थी॥ [ २८ ]

कबित्त।

जब छाँड़ करील की कुंजन कों हरि द्वारकाजीवमां जाय बसे।
कुलधूत के धाम बनाय घने महाराजन के महराज भये॥
तज मोर मुकुट अरु कामरिया कछु औरहि नाते जोड़ लये।
धरे रूप नये किये नेह नये और गइयां चरायेबो भूलगये॥

अच्छापना घाटों का।

जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे कच्चे चांदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे निबाड़े भौलिये बजरे चलके मोरपंखी सोनामुखी श्यामसुन्दर रामसुन्दर और जितनी ढब की नावें थीं सुथरे रूप से सजी सजाई कसी कसाई सौ सौ लचके खाती आती जाती लहराती पड़ी फिरती थीं उन सब पर भी गवैये कंचनियां रामजनियां डोमनियां खचाखच भरी अपने अपने करतब में नाचती गाती बजाती कूदती फांदती धूमें मचाती अंगड़ाती जंभाती और ढुवी पडती थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने रूपे के पत्रों से मढ़ी हुई और असवारी से ढंपी हुई न हो और बहुतसी नावों पर हिंडोले भी उसी ढब के उन पर गायनें बैठी झूलती हुई सोल्हे किदारे बागेसरी कान्हडे में गा रही थीं दलबादल ऐसे नवाड़ों के सब झीलों में भी छारहे थे॥

आ पहुंचना कुँवर उदयभान का ब्याहने के ठाठ के साथ दुल्हन की डेवढी पर।

उस धूम धाम के साथ कुंवर उदयभान सिहरा बांधे जब दुल्हन के घर तलक आपहुँचा और जो रीतें उनके घराने में होती चली [ २९ ] आती थीं होने लगी मदनवान रानी केतकी से ठठोली करके बोली अब सुख समेटिये भर भर झोली सिर निहुड़ाये क्या बैठी हो आओ न टुक हम तुम मिलके झरोखों से उन्हें झांके रानी केतकी ने कहा ऐसी निलज बातें हम से न कर हमें ऐसी क्या पड़ी जो इस घड़ी ऐसी कड़ी कर रेल पेल इस उबटन और तेल फुलेल भरी हुई उनके झांकनको जा खड़ी हों मदनबान इस रुखाई को उड़ानधाई की अंटियों में कर।

दोहे अपनी बोली में।

यों तु देखो बाछड़े जी बाछड़े जी बाछड़े।
हम से अब आने लगी हैं आप यह मुहरे कड़े॥
छान मारे बन के बन थे आप ने जिनके लिये।
वह हिरन जोबन के मद में हैं बने दुल्हा खड़े॥
तुम न जाओ देखने को जो उन्हें कुछ बात है।
झांकते इस ध्यान में हैं उनके सब छोटे बड़े॥
है कहावत जीको भावे योहि पर मुंडियां हिलाय।
लेचलेंगे आपको हम हैं इसी धुन में अड़े॥
सांस ठण्डी भरके रानी केतकी बोली कि सच।
सबतो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेड़े में पड़े॥

वारीफेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बासका सूंघना और उनीदेपन से ऊंघना

उस घड़ी कुछ मदनबान को रानी केतकी के मांझे का जोड़ा और भीना भीनापन और अँखड़ियों का लजाना और बिखरा बिखरा [ ३० ] जाना भला लगगया तो रानी केतकी की बास सूंघने लगी और अपनी आंखों को ऐसा कर लिया जैस कोई ऊंघने लगता है सिर से लगा पांव तक जब वारी फेरी होके तळुवे सहलाने लगी रानी केतको झटसे धीमी सीहँसके लचक साथ ले उठी मदनवान बोली मेरे हाथ के ठोके से वहीं पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूंढाढूंढ में पड़गया था ऐसी दुखती चुटकी की चोट से मसोसकर रानी केतकी ने कहा कांटा अड़ा तो अड़ा और छाला पड़ा तो पड़ा पर निगोडी तू क्यों मेरा पँछाला हुई।

सराहना रानी केतकी के जोबनका।

रानी केतकी का भला लगना लिखने पढ़ने से बाहर है वह दोनों भवोंकी खिचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रुँधाहट और हँसी की लगावट दंतडियों में मिसियों की उदाहट और इतनी सी रुकावट से नाक और तेवरी चढ़ालेना और सहेलियों को गालियां देना और चल निकलना और हिरनों के रूप से करछालें मार परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता।

सराहना कुँवरजी के ज्जोबनका।

कुँवर उदयभान के अच्छेपने में कुछ चल निकलना किसी से हो सके हायरे उनके उभारके दिनों का सुहानापन और चाल ढाल का अच्छन्न प्रच्छन्न उठती हुईं कोंपलकी फवन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के हरे भरे पहाड़ोंकी गोद सूरज की किरन निकल आती है यही रूप था उनकी भीगति मसोंसे रस का टपका [ ३१ ] पड़ना और अपनी परछाईं देखकर अकड़ना जहां तहां छांह उसका डौल ठीकठाक उनके पांवतले धूप थी।

दुल्ह उदयभान का सिंहासन पर बैठना।

और इधर उधर राजा इन्दर और जोगी महेन्दरगिर जमगये दुल्ह उदयभान सिंहासनपर बैठा दुल्ह का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ कुछ गुनगुनाने लगा और नाच लगा होने और अधरमें जो उड़नखटोले इन्दरके अखाड़े के थे सबके सब उस रूपसे छत बांधे हुए थिरका किये महारानियां दोनों समधनें आपुसमें मिलियां जुलियां और देखने दाखने को कोठोंपर चन्दन के किवाड़ों के अड़तलोंमें आबैठियां सांग सँगीत भण्डताल रहस होने लगा जितने राग और रागिनियां थीं यमनकल्यान (शुद्धकल्यान) झिझौटी कान्हड़ा खम्माच सोहनी परज बिहाग सोरठ कालंगड़ा भैरवी खट ललित भैरों रूप पकड़े हुए सचमुच के जैसे गानेवाले होते हैं उसी रूपसे अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियां उस नाच का जो भाव ताव रचावट के साथ हुआ किसका मुँह जो कहसके जितने वहांके सुख चैन के घर थे माधोबिलास रसधाम कृष्णनिवास मच्छीभवन चन्द्रभवन सब के सब लप्पे से लपेटे और सच्चे मोतियों की झालरें अपनी अपनी गांठमें समेटे हुए एक फबन के साथ मतवालों के रूप से झूमझाम बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे। बीचोंबीच उन सब घरों के एक आरसीधाम बनाया था जिसकी छत और किवाड़ और आंगन में आरसी छुट लकड़ी ईंट पत्थर की पुट एक उँगली की पोरी भर न थी चांदनी का जोड़ा पहने हुये चौदहवीं रात जब घड़ी छ एक रात रहगयी तब रानी [ ३२ ] केतकी सी दुल्हन को उसी आरसीभवन में बैठाकर दुल्ह को बुला भेजा कुँवर उदयभान कन्हैया बना हुआ सिरपर मुकुट धरे सिहरा बांधे उसी तडावे और जमघट के साथ चान्दसा मुखड़ा लिये जा पहुँचा जिस जिस ढबसे बाम्हन और पण्डित कहते गये और जो जो महाराजों में रीतें चली आतियां थी उसी डोलसे उसी रूपसे भौंरी गठजोड़ा सब कुछ होलिया।

दोहे अपनी बोली के।

अब उदयभान और रानी केतकी दोनों मिले।
आस के जो फूल कुम्हलाये हुये थे फिर खिले॥
चैन होताही न था जिस एक को उस एक बिन।
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥
अय खिलाडी यह बहुत था कुछ नहीं थोडा हुआ।
अनकर आपस में जो दोनों का गट जोडा हुआ॥
चाह के डूबे हुए अय मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे अपने दिन फिरें॥

वह उड़नखटोलेवालियां जो अधर में छत बांधे हुए थिरक रहीं थीं भरभर झोलियां और मुट्ठियां हीरे और मोतियों से निछावर करने के लिये उतर आयियां और उडनखटोले ज्यों के त्यों अधर में छत बांधे हुए खडे रहे दूल्ह दुल्हन पर से सात सात फेरे होने में पिस पिस गयीं उन सभों को एक हिचकी सी लगगयी राजा इन्दर ने दुल्हन की मुंहदिखाई में एक हीरे का एक डालछपरखट और पीढी [ ३३ ]

पुखराजकी दी और एक पारिजात का पौधा जिससे जो फूल मांगिये सोही मिले दुल्हन के साम्हने लगा दिया और एक कामधेनु गायकी पठिया भी उसके नीचे बांधदी और इक्कीस लौंडियां उन्हीं उड़नखटोलेवालियों से चुन के अच्छीसे अच्छी सुथरी गाती बजातियां सीती पिरोतियां सुघड़ से सुघड़ सौंपी और उन्हें कहदिया रानी केतकी छुट उनके दूल्हेसे कुछ बात चीत न रखियो तुम्हारे कान पहिलेही मरोड़े देता हूं नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरतें बन जावोगी और गुसाईं महेन्दर गुरु जीने बावन तोले पाउ रत्ती जो सुन्ते हैं उसके इक्कीस मट्के आगे रखके कहा यह भी एक खेल है जब चाहिये बहुतसा तांबा गला के एक इतनी सी इसको छोड़ दीजियेगा कञ्चन हो जायगा और जोगी ने यह सभों से कह दिया जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं उनके घरों में चालीस दिन चालीस रात सोनेकी टिड़ियों के रूपमें हुन वरसें और जब तक जियें किसी बात को फिर न तरसें नौ लाख निन्नानवे गायें सोने रूप के सिंगौटियों की जड़ाऊ गहना पहने हुए घूंघुरू झुनझुनातियां बाह्मनों को दान हुईं और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड़ दिया बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊंट लदेहुए रुपयोंके लुटा दिये कोई उस भीड़भाड़ में दोनों राज का रहनेवाला ऐसा न रहा जिसको घोड़ा जोड़ा रुपयों का तोड़ा सोने के जड़ाऊ कड़ों की जोड़ी न मिली हो और मदनबान छुट दूल्ह दुल्हन के पास किसी का हियाब न था जो बिन बुलाये चलीजाय बिन बुलाये दौड़ी आई तो वही आयी और हँसावे तो वही हँसाय रानी केतकी के छेड़ने को उनके कुँवर उदयभान को कुँवर कुँवर अजी कहके पुकारती थी और उसी बात को सौ सौ रूप में सँवारती थी॥ [ ३४ ]

दोहे अपनी बोली के।

घर बसा जिस रात उन्हों का तब मदनबान उस घड़ी।
कहगई दुल्हे दुल्हन को ऐसी सौ बातें कड़ी॥
बास पाकर केवड़े की केतकी का जी खिला।
सच है इन दोनों जनों को अब किसी की क्या पड़ी॥
क्या न आयी लाज कुछ अपने पराये की अजी।
थी अभी इस बात की ऐसी अभी क्या हड़बड़ी॥

दुलहन ने अपनि घूघँट से कहा।

जी में आता है तेरी होठों को मल डालूं अभी।
बस वे अय रण्डी तेरी दांतों की मिस्सी की धड़ी॥

एङ्गलो ओरियन्टल प्रेस लखनऊ. मार्च १९०५