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कुरल-काव्य

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

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नीतिधर्म ग्रन्थमाला
प्रथम पुष्प
 

कुरल-काव्य

 

तामिल भाषा में मूल लेखक
श्री एलाचार्य

 

संस्कृत तथा हिन्दी में अनुवादक
विद्याभूषण पं॰ गोविन्दराय जैन, शास्त्री

 

 

[महावीर जयन्ती, वीर सं॰ २४८०]

 

प्रकाशक—
पं॰ गोविन्दराय जैन, शास्त्री
महरौनी (झाँसी) उ॰ प्र॰

 

[सर्वाधिकार प्रकाशक के पास सुरक्षित]

 

मूल्य १०) दश रुपये


 

मुद्रक—
पं॰ परमेष्ठीदास जैन
जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर

विषय-सूची
क्रम विषय पृ॰ सं॰ क्रम विषय पृ॰ सं॰
१. ईश्वर-स्तुति (दोहा) ११० २५. दया १५८
२. मेघ-महिमा ११२ २६. निरामिष जीवन १६०
३. मुनि-महिमा ११४ २७. तप १६२
४. धर्म-महिमा ११६ २८. धूर्तता १६४
५. गृहस्थाश्रम ११८ २९. निष्कपट व्यवहार १६६
६. सहधर्मिणी १२० ३०. सत्यता १६८
७. सन्तान १२२ ३१. क्रोध त्याग १७०
८. प्रेम १२४ ३२. उपद्रव त्याग १७२
९. अतिथि-सत्कार १२६ ३३. अहिंसा १७४
१०. मधुर-भाषण १२८ ३४. संसार की अनित्यता १७६
११. कृतज्ञता १३० ३५. त्याग १७८
१२. न्यायशीलता १३२ ३६. सत्य का अनुभव १८०
१३. संयम १३४ ३७. कामना का दमन १८२
१४. सदाचार १३६ ३८. भवितव्यता १८४
१५. परस्त्रीत्याग १३८ ३९. राजा १८६
१६. क्षमा १४० ४०. शिक्षा १८८
१७. ईर्ष्या-त्याग १४२ ४१. शिक्षा की उपेक्षा १९०
१८. निर्लोभिता १४४ ४२. बुद्धिमानों के उपदेश १९२
१९. चुगली से घृणा १४६ ४३. बुद्धि १९४
२०. व्यर्थ भाषण १४८ ४४. दोषों को दूर करना १९६
२१. पाप कर्मों से भय १५० ४५. योग्य पुरुषों की मित्रता १९८
२२. परोपकार १५२ ४६. कुसङ्ग से दूर रहना २००
२३. दान १५४ ४७. विचारपूर्वक काम करना २०२
२४. कीर्ति १५६ ४८. शक्ति का विचार २०४
क्रम विषय पृ॰ सं॰ क्रम विषय पृ॰ सं॰
४९. अवसर की परख २०६ ७९. मित्रता २६६
५०. स्थान का विचार २०८ ८०. मित्रता के लिए योग्यता २६८
५१. विश्वस्त पुरुषों की परीक्षा २१० ८१. घनिष्ठ मित्रता २७०
५२. पुरुष परीक्षा और नियुक्ति २१२ ८२. विघातक मैत्री २७२
५३. बन्धुता २१४ ८३. कपट मैत्री २७४
५४. निश्चिन्तता से बचाव २१६ ८४. मूर्खता २७६
५५. न्याय-शासन २१८ ८५. अहङ्कारपूर्ण मूढ़ता २७८
५६. अत्याचार २२० ८६. उद्धतता २८०
५७. भयप्रद कृत्या का त्याग २२२ ८७. शत्रु की परख २८२
५८. विचारशीलता २२४ ८८. शत्रुओं के साथ व्यवहार २८४
५९. गुप्तचर २२६ ८९. घर का भेदी २८६
६०. उत्साह १२८ ९०. बड़ों के प्रति दुर्व्यवहार... २८८
६१. आलस्य त्याग २३० ९१. स्त्री की दासता २९०
६२. पुरुषार्थ २३२ ९२. वेश्या २९२
६३. संकट में धैर्य २३४ ९३. मद्य का त्याग २९४
६४. मन्त्री २३६ ९४. जुआ २९६
६५. वाक्‌पटुता २३८ ९५. औषधि २९८
६६. शुभाचरण २४० ९६. कुलीनता ३००
६७. स्वभाव निर्णय २४२ ९७. प्रतिष्ठा ३०२
६८. कार्यसंचालन २४४ ९८. महत्त्व ३०४
६९. राज-दूत २४६ ९९. योग्यता ३०६
७०. राजाओं के समक्ष व्यवहार २४८ १००. सभ्यता ३०८
७१. मुखाकृति से मनोभाव २५० १०१. निरुपयोगी धन ३१०
७२. श्रोताओं का निर्णय २५२ १०२. लज्जाशीलता ३१२
७३. सभा में प्रौढ़ता २५४ १०३. कुलोन्नति ३१४
७४. देश २५६ १०४. खेती ३१६
७५. दुर्ग २५८ १०५. दरिद्रता ३१८
७६. धनोपार्जन २६० १०६. भिक्षा ३२०
७७. सैना के लक्षण २६२ १०७. भीख माँगने से भय ३२२
७८. वीरयोद्धा का आत्मगौरव २६४ १०८. भ्रष्ट जीवन ३२४

आत्म-निवेदन

प्रस्तुत कुरल काव्य का हमें सब से प्रथम परिचय आज से ४० वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय हम बनारस के स्याद्वाद् महाविद्यालय में अध्ययन करते थे। "दैनिक पाटलिपुत्र" में उसके सम्पादक स्वनामधन्य श्रीयुत बाबू काशीप्रसाद जी जायसवाल ने कई लेख कुरल काव्य के विषय मे लिखे थे। जिन्हें पढ़कर हमारे मन में इस काव्य के प्रति अत्यधिक आदर उत्पन्न हुआ। बाबू साहब ने एक लेख में यह भी लिखा था कि "जब तक कुरल काव्य जैसे संसारप्रसिद्ध ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में न होगा तब तक उस का साहित्य-भण्डार अपूर्ण ही रहेगा।" सहपाठी मद्रासी छात्रों से यह जानकर और भी अधिक हर्ष हुआ कि यह एक जैनाचार्य की कृति है।

इन बातों से उसी समय हमारे मनमें यह विचार आया कि इस लोकोपकारी महान् ग्रन्थ का अनुवाद हिदी में पद्य में भी होना चाहिए जैसा कि वह तामिल भाषा में है। उस समय योग्यता के न होने से तथा बाद में अवकाश न मिलने से वह विचार मन में सुप्त सा बना रहा।

दैव-दुर्विपाक से जब हमारे दोनों नेत्र सहसा (सन् ४० में) एक ही रात्रि में धार में चले गये तो चिन्ता हुई कि आगे का जीवन अब किस रूप में व्यतीत किया जावे? आर्तध्यान और रौद्रध्यान में उसे व्यतीत करना तो मूर्खता की बात होगी। पवित्र जैनधर्म के सिद्धान्त और सद्‌गुरुओं के उपदेश इसी दिन के लिए हैं कि संकट में धैर्य रखकर उच्चकार्यों में शेष जीवन को लगाना चाहिए।

अतः हमने इस काव्य के अनुवाद करने की ठानी। साथ ही यह भी विचार आया कि यह "धारा" राजा भोज की नगरी है जिसमें संस्कृत के बड़े बड़े उद्‌भट विद्वान हुए हैं। अब संस्कृत में रचना का प्रवाह बन्द हो गया है, वह भी चालू रहे। इसलिए हमने हिन्दी के साथ ही संस्कृत में भी अनुवाद प्रारम्भ कर दिया। उसी का फल यह आपके सामने उपस्थित है। अब तक यह हमारे हाथ में था आज से हम इसे जगत के न्यायप्रिय पुरुषों के कर कमलों में दे रहे हैं।

फल में यदि कुछ मिठास है तो वह वृक्ष का ही गुण है। इस कारण इन अनुवादों की सरसता का सारा श्रेय हम अपने शिक्षादाता सद्‌गुरुओं को ही देते हैं। श्रीमान् पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के हम विशेषतः कृतज्ञ हैं जो हमें दस वर्ष की आयु में ही घरसे काशी ले गये। उन्हींके शुभ प्रसाद का यह फल है कि हम आज इस योग्य बन सके।

नेत्र जाने के पश्चात् चि॰ दयाराम ने इस युग का श्रवणकुमार बनकर जिस प्रेम के साथ हमारी परिचर्या की उसको हम ही जानते हैं। इस कुरल काव्य की रचना के समय भी उसने हमारे नेत्र और हाथ दोनों का ही काम किया। इस काव्य के प्रचार और प्रकाशन में जिन भाईयो ने हमें सहयोग दिया है उन्हें तथा निम्नलिखित सज्जनों को धन्यवाद है:—

श्रीयुत ला॰ पृथ्वीसिंह जी जैन सर्राफ व बाबू नरेन्द्रकुमार जी जैन बी॰ ए॰ देहरादून, श्रीयुत ला॰ त्रिलोकचन्द जी जैन रईस देहली, श्रीयुत पं॰ जगमोहनलाल जी कटनी, पं॰ रमानाथ जी जैन (न्या॰ व्या॰ तीर्थ) इन्दौर व भाई पं॰ परमेष्ठीदास जी (न्यायतीर्थ), श्रीयुत्त बाबू यशपाल जी जैन बी॰ ए॰, श्रीमान् माननीय राजगोपालाचार्यजी, जिन्होंने इस काव्य को ४० मिनट तक सुनने की कृपा की।

हमने अपने अनुवाद में निम्नलिखित अनुवादों का उपयोग किया है—श्रीयुत बी बी॰ एस॰ अय्यर का अंग्रेजी अनुवाद, श्रीयुत अज्ञात जी का मराठी अनवाद और श्रीयुत क्षेमानन्द जी राहत का तामिल वेद। इनके के भी हम बहुत उपकृत हैं।

क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।"

महरौनी
(झाँसी)
गोविन्दराय शास्त्री।

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