कुरल-काव्य/प्रस्तावना

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[ प्रस्तावना ]

प्रस्तावना

परिचय और महत्व

'कुरल' तामिल भाषा का एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त काव्यग्रन्थ है। यह इतना मोहक और कलापूर्ण है कि संसार दो हजार वर्ष से इस पर मुग्ध है। यूरोप की प्रायः सब भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। अंग्रेजी में इसके रेवरेण्ड जी॰ यू॰ पोप कवि, वी॰ वी॰ एस॰ अय्यर और माननीय राजगोपालाचार्य द्वारा लिखित तीन अनुवाद विद्यमान है।

तामिल भाषा-भाषी इसे 'तामिल वेद' 'पंचम वेद' 'ईश्वरीय ग्रन्थ' 'महान सत्य' 'सर्वदेशीय वेद' जैसे नामों से पुकारते हैं। इससे हम यह बात सहज में ही जान सकते हैं कि उनकी दृष्टि में कुरल का कितना आदर और महत्व है। 'नालदियार' और 'कुरल' ये दोनों जैन काव्य तामिल भाषा के 'कौस्तुभ' और 'सीमन्तक' मणि हैं। तामिल भाषा का एक स्वतन्त्र साहित्य है, जो मौलिकता तथा विशालता में विश्वविख्यात संस्कृत साहित्य से किसी भी भांति अपने को कम नहीं समझता।

कुरल का नामकरण ग्रन्थ में प्रयुक्त 'कुरलवेणवा' नामक छन्द विशेष के कारण हुआ है, जिसका अर्थ दोहा-विशेष है। इस नीति काव्य में १३३ अध्याय है, जो कि धर्म (अरम) अर्थ (पोरुल) और काम (इनवम) इन तीन विभागों में विभक्त है और ये तीनों विषय विस्तार के साथ इस प्रकार समझाये गये हैं जिससे ये मूलभूत अहिंसासिद्धान्त के साथ सम्बद्ध रहे। पारखी तथा धार्मिक विद्वान् इसे अधिक महत्व इस कारण देते हैं कि इसकी विषय-विवेचन-शैली बड़ी ही सुन्दर, सूक्ष्म और प्रभावोत्पादक है। विषय-निर्वाचन भी इसका बड़ा पाण्डित्यपूर्ण हैं। मानव जीवन को शुद्ध और सुन्दर बनाने के लिए जितनी विशाल मात्रा में इसमें उपदेश दिया गया है उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ हैं। इसके अध्ययन से सन्तप्त-हृदय को बहुत शांति और बल मिलता है, यह हमारा निज का भी अनुभव है। एक ही रात्रि में दोनों नेत्र चले जाने के पश्चात् हमारे हृदय को प्रफुल्लित रखने का श्रेय कुरल को ही प्राप्त हैं। हमारी राय में यह [  ]काव्य संसार के लिए वरदानस्वरूप है। जो भी इसका अध्ययन करेगा वही इस पर निछावर हो जावेगा। हम अपनी इस धारणा के समर्थन में तीन अनुवादकों के अभिमत यहां उद्धृत करते हैं—

१. डॉ॰ पोपका अभिमत—मुझे प्रतीत होता है कि इन पद्योंमें नैतिक कृतज्ञता का प्रबल भाव, सत्य की तीव्रशोध, स्वार्थरहित तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया उज्ज्वल उद्देश्य अधिक प्रभावक है। मुझे कभी कभी ऐसा अनुभव हुआ है कि मानो इसमें ऐसे मनुष्यों के लिए भण्डार रूप में आशीर्वाद भरा हुआ है जो इस प्रकार की रचनाओं से अधिक आनन्दित होते हैं और इस तरह सत्य के प्रति क्षुधा और पिपासा की विशेषता को घोषित करते हैं। वे लोग भारतवर्ष के लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा कुरल एवं मालदी ने उन्हें इस प्रकार बनाने में सहायता दी है।

२. श्री वी॰ वी॰ एस॰ अय्यर का अभिमत—कुरलकर्ता ने आचार धर्म् की महत्ता और शक्ति का जो वर्णन किया है उससे संसार के किसी भी धर्मसंस्थापक का उपदेश अधिक प्रभावयुक्त या शक्तिप्रद नहीं है। जो तत्व इसने बतलाये हैं उनसे अधिक सूक्ष्म बात भीष्म या कौटिल्य कामन्दक या रामदास विष्णुशर्मा या माई॰ के॰ वेली ने भी नहीं कही है। व्यवहार का जो चातुर्य इसने बतलाया है और प्रेमी का हृदय और उसकी नानाविधि वृत्तियों पर जो प्रकाश डाला है उससे अधिक पता कालिदास या शेक्सपियर को भी नहीं था।

श्री राजगोपालाचार्य का अभिमत—'तामिल जाति की अन्तरात्मा और उसके संस्कारों को ठीक तरह से समझने के लिए 'त्रिक्कुरल' का पढ़ना आवश्यक है। इतना ही नही, यदि कोई चाहे कि भारत के समस्त साहित्य का मुझे पूर्णरूप से ज्ञान हो जाय तो त्रिक्कुरल को बिना पढ़े हुए उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता।

त्रिक्कुरल, विवेक, शुभसंस्कार और मानव प्रकृतिके व्यावहारिक ज्ञान की खान है। इस अद्‌भुत ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता और चमत्कार यह है कि इसमें मानवचरित्र और उसकी दुर्बलताओं की तह तक विचार करके उच्च आध्यात्मिकता का प्रतिपादन किया [  ]गया है। विचार के सचेत और संयत औदार्य के लिए त्रिक्कुरल का भाव एक ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अनुपम बना रहेगा। कला की दृष्टि से भी संसार के साहित्य में इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काव्य है, उपमाएँ और दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गये हैं और इस की शैली व्यङ्गपूर्ण है।

कुरलका कर्तृत्व—

भारतीय प्राचीनतम पद्धति के अनुसार यहाँ के ग्रन्थकर्ता ग्रन्थ में कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे। कारण, उनके हृदय में कीर्तिलालसा नहीं थी, किन्तु लोकहित की भावना ही काम करती थी। इस पद्धति के अनुसार लिखे गये ग्रंथों के कर्तृत्व-विषयमें कभी कभी कितना ही मतभेद खड़ा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण कुरलकाव्य है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता 'तिरुवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते है कि इसके कर्ता 'एलाचार्य' थे।

इसी प्रकार कुरलकर्ता के धर्म सम्बन्ध में भी मतभेद है। शैव लोग कहते हैं कि यह शैवधर्म का ग्रन्थ है और वैष्णव लोग इसे वैष्णव धर्म का ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके अंग्रेजी अनुवादक डॉ॰ पोप ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरलकर्ता पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। कुरल की रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं हो सकती थी यदि उन्होंने सेन्टटामस से मलयपुर में ईसा के उपदेशों को न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रदाय वाले कुरल को अपना अपना बनाने के लिए परस्पर होड़ लगा रहे हैं।

इन सबके बीच जैन कहते हैं कि "यह तो जैन ग्रन्थ है, सारा ग्रन्थ "अहिंसा परमो धर्म" की व्याख्या है और इसके कर्ता श्री एलाचार्य है, जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य है।"

शैव और वैष्णवधर्म की साधारण जनता में यह भी लोकमत प्रचलित है कि कुरल के कर्ता अछूत जाति के एक जुलाहे थे। जैन लोग इस पर आपत्ति करते हैं कि नहीं, वे क्षत्री और राजवंशज हैं। जैनों के इस कथन से वर्तमान युग के निष्पक्ष तथा अधिकारी तामिल-भाषा विशेषज्ञ सहमत हैं। श्रीयुत राजाजी-राजगोपालाचार्य [ १० ]तामिलवेद की प्रस्तावना में लिखते हैं कि—"कुछ लोगों का कथन है कि कुरल के कर्ता अछूत थे, पर ग्रन्थ के किसी भी अंश से या उसके उदाहरण देने वाले अन्य ग्रन्थ-लेखकों के लेखों से इसका कुछ भी आभास नहीं मिलता।" और हमारी रायमें बुद्धि कहती है कि अकेली एक तामिल भाषा का ज्ञाता अछूत कुरल को नहीं बना सकता, कारण कुरल में तामिल प्रांतीय विचारों का ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय विचारों का दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान कौटिलीय अर्थशास्त्र की कोटि का है। इस ग्रन्थ का रचयिता निःसन्देह बहुश्रुत और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए, जैसे एलाचार्य थे।

तामिल भाषा के कुछ समर्थ जैनेतर लेखकों की यह भी राय है कि 'कुरल के कर्ता का वास्तविक परिचय अब तक हम लोगों को अज्ञात है, उसके कर्ता तिरुवल्लवर का यह कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनकी जीवन-घटना ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों से अपरिपूर्ण है।'

अन्तःसाक्षी—

अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओं का आधार छोड़कर ग्रन्थ की अन्तःसाक्षी और प्राप्त ऐतिहासिक उदाहरणों को लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थ सत्य की खोज हो सके। जो भी निष्पक्ष विद्वान् इस ग्रन्थ का सूक्ष्मता के साथ परीक्षण करेगा उसे यह बात पूर्णतः स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगी कि यह ग्रन्थ शुद्ध अहिंसाधर्म से परिपूर्ण है और इसलिए यह जैन मस्तिष्क की उपज होना चाहिए। श्रीयुत् सुब्रह्मण अय्यर अपने अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में लिखते हैं कि 'कुरलकाव्य का मंगलाचरण वाला प्रथम अध्याय जैनधर्म से अधिक मिलता है।'

फूल भले ही यह न कहे कि मैं अमुक वृक्ष का हूँ, फिर भी उसकी सुगन्धि उसके उत्पादक वृक्ष को कहे बिना नहीं रहती, ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रंथ के कर्ता का धर्म हमें भले ही ज्ञात न हो पर उसके भीतरी विचार उसे धर्म विशेष का घोषित किये बिना न रहेंगे। लेकिन इन विचारों का पारखी होना चाहिए। यदि जैनेतर [ ११ ]विद्वान् जैनवाङ्मय के ज्ञाता होते तो उन्हें कुरल को जैनाचार्यकृत मानने में कभी देरी न लगती। ग्रन्थकर्ता ने जैन भाव इस काव्य में कलापूर्ण ढंग से लिखे हैं, उनको ये लोग जैनधर्म से ठीक परिचित न होने के कारण नहीं समझ सके हैं। कुरल की सारी रचना जैन मान्यताओं से परिपूर्ण है। इतना ही नहीं, किन्तु उसका निर्माण भी जैन पद्धति को लिये हुए है। इसका कुछ दिग्दर्शन हम यहाँ कराते हैं।

इसमें किसी वैदिक देवता की स्तुति न देकर जैनधर्म के अनुसार मंगलकामना की गई है। जैनियों में मंगल कामना करने की एक प्राचीन पद्धति है, जिसका मूल यह सूत्र है कि "चत्तारि मंगल, अरहता मंगल, सिद्धा मंगल, साहू मंगल, केवलिपरणत्तो धम्मो मंगल।" अर्थात् चार हमारे लिये मंगलमय है—अरहत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्रणीत धर्म। देखिए 'ईश्वरस्तुति' नामक प्रथम अध्याय में प्रथम पद्य से लेकर सातवें तक अरहन्त स्तुति है और आठवें में सिद्धस्तुति है। नवमें और दशवें में साधु के विशेष भेद-आचार्य और उपाध्याय की स्तुति है।

सम्राट् मौर्य चन्द्रगुप्त के समय उत्तर भारत में १२ वर्ष का एक बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण साधुचर्या कठिन हो गई थी। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में आठ हजार मुनियों का संघ उत्तर भारत से दक्षिण भारत चला गया था। मेघवर्षा के बिना साधुचर्या नहीं रह सकती, यह भाव उस समय सारी जनता में छाया था, इसलिए कुरल के कर्ता ने उसी भाव से प्रभावित होकर 'मुनि-स्तुति' नामक तृतीय अध्याय के पहिले 'मेघ महिमा' नामक द्वितीय अध्याय को लिखा है। साधुस्तुति के पश्चात् चौथे अध्याय में मंगलमय धर्म की स्तुति की गई।

ईश्वरस्तुति नामक प्रथम अध्याय के प्रथम पद्य में 'आदिपकवन' शब्द आया है, जिसका अर्थ होता है 'आदि भगवान' जो कि इस युग के प्रथम अरहन्त भगवान आदीश्वर ऋषभदेव का नाम है। दूसरे पद्य में उनकी सर्वज्ञता का वर्णन कर पूजा के लिए उपदेश दिया गया है। तीसरे पद्यमें 'मलर्मिशै' अर्थात् कमलगामी कहकर उनकी अरहत अवस्था के एक अतिशय का वर्णन है। चौथे पद्य में उनकी वीत[ १२ ]रागता का व्याख्यान कर, पाँचवे पध में गुणगान करने से पापकर्मों का क्षय कहा गया है, छठे पद्यमें उनसे उपदिष्ट धर्म तथा उसके पालन का उपदेश दिया गया है। और सातवे में उपयुर्क्त देव की शरण में आने से ही मनुष्य को सुख शांति मिल सकती है ऐसा कहा है। जैन धर्म में सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुण माने गये है, इसलिए सिद्धस्तुति करते हुए आठवें पद्य में उनके आठ गुणों का निर्देश किया गया है।

जैनधर्म मे पृथ्वी वातवलय से वेष्टित बतलाई गई है। कुरल में भी पच्चीसवे अध्याय के पांचवें पद्य में दया के प्रकरण में कहा गया है—'क्लेश दयालु पुरुष के लिए नहीं है, भरी पूरी वायु वेष्ठित पृथ्वी इस बात की साक्षी है।'

सत्य का लक्षण कुरलमें वही कहा गया है जो जैनधर्म को मान्य है—'ज्यों की त्यों बात कहना सत्य नहीं है किंतु समीचीन अर्थात् लोक हितकारी बात का कहना ही सत्य है, भले ही वह ज्यों त्यों न हो।'

नहीं किसी भी जीव को जिससे पीड़ा कार्य।
सत्य वचन उसको कहे, पूज्य ऋषीश्वर आर्य॥१॥

वैदिक पद्धति में जब वर्णव्यवस्था जन्ममूलक है तब जैन पद्धति में वह गुणमूलक है। कुरल में भी गुणमूलक वर्णव्यवस्था का वर्णन हैं—'साधु-प्रकृति-पुरुषों को ही ब्राह्मण कहना चाहिए, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया रखते है।'

वैदिक वर्णव्यवस्था में कृषि शूद्र का हो कर्म है, तब कुरल अपने कृषि अध्याय में उसे सबसे उत्तम आजीविका बताता है, क्योंकि अन्य लोग पराश्रित तथा परपिण्डोपजीवी है। जैन शास्त्रानुसार प्रत्येक वर्ण वाला व्यक्ति कृषि कर सकता है।

उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग।
और कमाई अन्य की, खाते बाकी लोग॥

जैन शास्त्रों में नरकों को 'विवर' अर्थात बिलरूप में तथा मोक्ष स्थान को स्वर्गलोक के ऊपर माना है। कुरल में ऐसा ही वर्णन है, जैसा कि उसके पद्यों के निम्न अनुवाद से प्रकट है—

जीवन में ही पूर्व से, कहे स्वंय अज्ञान।
अहो नरक का छुद्र बिल, मेरा भावी स्थान॥

[ १३ ]

'मेरा' मैं? के भाव तो, स्वार्थ गर्व के थोक।
जाता त्यागी है वहाँ, स्वर्गोपरि जो लोक॥

सागारधर्मामृत के एक पद्य में पं॰ आशाधर जी ने प्राचीन जैन परम्परा से प्राप्त ऐसे चौदह गुणों का उल्लेख किया है जो, गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने वाले नर-नारियों में परिलक्षित होने चाहिए। वह पद्य इस प्रकार हैं—

 न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्,
अन्योऽन्यानुगुण तदर्हगृहिणी स्थानालयो ह्रीमय।
युक्ताहारविहार आर्यसमिति प्राज्ञ कृतज्ञो वशी,
शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभी सागारधर्म चरेत्॥

हम देखते हैं कि इन चौदह गुणों की व्याख्या ही सारा कुरलकाव्य है।

ऐताहासिक बाहरी साक्षी—

१. शिलप्पदिकरम्—यह एक तामिल भाषा का अति सुन्दर प्राचीन जैनकाव्य है। इसकी रचना ईसा की द्वितीय शताब्दी में हुई थी। यह काव्य, कला की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही तामिल जाति की समृद्धि, सामाजिक व्यवस्थाओं आदि के परिज्ञान के लिए भी बड़ा उपयोगी है, और प्रचलित भी पर्याप्त है। इसके रचयिता चेरवंश के लघु युवराज राजर्षि कहलाने लगे थे। इन्होंने अपने शिलप्पदिकरम् में कुरलके अनेक पद्य उद्धरण में देकर उसे आदरणीय जैनग्रन्थ माना है।

२. नीलकेशी—यह तामिल भाषा में जैनदर्शन का प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र है। इसके जैन, टीकाकार अपने पक्ष के समर्थन में अनेक उद्धरण बड़े आदर के साथ देते हैं, जैसे कि 'इम्मे ट्टू' अर्थात् हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ कुरल में कहा है।

३. प्रबोधचन्द्रोदय—यह तामिल भाषा में एक नाटक है, जोकि संस्कृत प्रबोधचन्द्रोद्य के आधार पर शंकराचार्य के एक शिष्य द्वारा लिखा गया है। इसमें प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधि अपने अपने धर्म ग्रन्थ का पाठ करते हुए रंगमंच पर लाये गये हैं। जब एक निर्ग्रन्थ जैन मुनि स्टेज पर आते है तब वह कुरल के उस विशिष्ट [ १४ ]पद्य को पढ़ते हुए प्रविष्ट होते है जिनमें अहिंसा सिद्धान्त का गुणगान इस रूप में किया गया है—

सुनते हैं बलिदान से, मिलतीं कई विभूति।
वे भव्यों की दृष्टि में, तुच्छघृणा की मूर्ति॥

यहाँ यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि नाटककार की दृष्टि में कुरल विशेषतया जैनग्रन्थ था, अन्यथा वह इस पद्य को जैन सन्यासी के मुख से नहीं कहलाता।

इस अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग साक्षी से इस विषय में सन्देह के लिए प्राय कोई स्थान नहीं रहता कि यह ग्रन्थ एक जैनकृति है। निस्सन्देह नीति के इस ग्रन्थ की रचना महान् जैन विद्वान् के द्वारा विक्रम की प्रथम शताब्द के लगभग इस ध्येय को लेकर हुई है कि अहिंसा सिद्धान्त का उसके सम्पूर्ण विविधरूपों में प्रतिपादन किया जावे।

कुरल पर प्रभाव

जिस ग्रन्थका कुरल पर प्रभाव पड़ा है वह है 'नलदियार' दोनोंका ही नामकरण छन्द विशेष के कारण पड़ा है। कुरल के समान नालदी भी तामिल भाषा का एक विशिष्ट छन्द है। 'कुरल' और 'नालदी' ये ग्रन्थ आपस में टीका का काम करते हैं। दोनों ही नीति विषयक काव्य हैं तथा उनकी विषय-विवेचन-शैली भी ऐसी है कि जिससे धर्म, अर्थ, काम ये तीनों पुरुषार्थ मूल अहिंसा धर्म से सम्बद्ध रहे। इसीलिए दोनों ग्रन्थों में विपरीत विचारों की आलोचना के साथ ही अहिंसा के विविध अंगों का वर्णन किया गया है। तामिल भाषा के महा विद्वानों का कथन है कि 'कुरल' और 'नालिदी' नीति के १८ काव्यों में एक विशिष्ट महत्व का स्थान रखते हैं। तामिल सरस्वती का समस्त शृङ्गार इन दो काव्यों में ही निहित है।

नलदियार कुरल से पूर्ववर्ती है। उसकी रचना इससे पूर्व ३०० वर्ष पहिले आठ हजार जैन मुनियों ने मिलकर की थी। खेद है कि ८ हजार पद्यों में से अब केवल चार सौ पद्य ही रह गये हैं। अन्य पद्य कैसे नष्ट हो गये, इसकी एक विशिष्ट ऐतिहासिक कथा वृद्ध-परम्परा से चली आती है, कि— [ १५ ]

जब चन्द्रगुप्त मौर्य के समय उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तब आठ हजार मुनियों का संघ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत गया। और वहां जाकर पाण्ड्य नरेश के रक्षण में ठहरा। पाठक ऐतिहासिक शोधों से देखेंगे कि दक्षिण में पाण्ड्य, चोल और चेर नामक बड़े सुदृढ़ और समृद्ध राज्य विद्यमान थे। अशोक के शिलालेखों में इनको पराजित राज्यों की श्रेणी में न लिखकर मित्र राज्यों की श्रेणी में लिखा गया है। दुर्भिक्ष का समय निकल जाने पर इन मुनियों ने उत्तर भारत लौट जाने की जब चर्चा चलाई तब स्नेही पाण्ड्य नरेश ने उनको न जाने का ही आग्रह किया। इस समय इन मुनियों के प्रधान नेता विशाखाचार्य थे, जिनकी स्मृति में आज भी दक्षिण में विजगापट्टम अर्थात् विशाखापट्टम अवस्थित है। विशाखाचार्य को अन्य लेखकों ने ज्ञान का कल्पवृक्ष लिखा है। इस अगाध पाण्डित्य के कारण ही पाण्ड्यराजा को इनकी जुदाई पसन्द न थी, फिर भी मुनिगण न माने और उन्होंने एक एक विषय पर दश दश मुनियों का विभाग करके अपने जीवन के अनुभव का सार-स्वरूप एक एक पद्य ताड़पत्र पर लिखकर वहा छोड़ दिया और चुपचाप चल दिये।

पाण्ड्यपति को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने क्रोधावेश में आकर उन ताडपत्रो को बैगी नदी में फिकवा दिया, किन्तु प्रवाह के विरुद्ध जब ये चार सौ पत्र किनारे पर आ लगे तब राजा की ही आज्ञा से ये संगृहीत कर लिये गये और उन्हीं की आज्ञा से वर्तमान व्यवस्थित रूप हुआ।

मूल नलदियार में एक स्थल पर 'मुत्तरियर' शब्द आया है, जिसका अर्थ होता है 'मुक्ता नरेश' अर्थात् मोतियों के राजा। प्राचीन समय में पाण्ड्य राज्य के बन्दरगाहों से बहुत मोती निकाले जाते थे। जिनका व्यापार केवल भारत में ही नही किन्तु रोम तक होता था। इसी कारण पाण्ड्य राज्य के अधीश्वर मोतियों के राजा कहलाते थे। इस प्रकार 'मुत्तरियर' शब्द ही उक्त कथा के ऊपर प्रकाश डालता है। कुरल और नलदियार के बनते समय तामिल जनता के ऊपर जैनधर्म की इतनी गहरी छाप थी कि वह धर्म का नामकरण 'अरम' अर्थात् [ १६ ]अहिंसा और पाप का नामकरण 'पोरम' अर्थात् हिंसा से करती थी। नलदियार संस्कृत भाषा में न होकर जनता की भाषा में है, इसलिए कुछ लोग इसको 'बेल्लार वेदम्' भी कहते है। जिसका अर्थ है किसानो का वेद।

वर्तमान साहित्य का जब जन्म ही नहीं हुआ था तब जैनों ने कई सहस्र वर्ष पहिले समीचीन अर्थात् सही ज्ञान देने वाले सार्वजनिक साहित्य को संसार के सामने उपस्थित किया था और यह साहित्य तामिल भाषा में है, जिसका हम यहाँ दिग्दर्शन कराते है।

तामिल भाषा में अन्य महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ

१. टोलकाप्पियम्—यह तामिल भाषा का अति प्राचीन विस्तृत और व्यवस्थित व्याकरण है। भारतके प्रसिद्ध आठ वैयाकरणों में जिसका प्रथम नाम आता है उस इन्द्र के व्याकरण के आधार पर यह तामिल भाषा का व्याकरण लिखा गया है। खेद है कि यह इन्द्र का व्याकरण अब संसार से लुप्त हो गया है। टोलकाप्पियम् के उदाहरणों से तामिल देश की सभ्यता और समृद्धि का बोध होता है। 'प्रतिमायोग' जीवो के इन्द्रीविभाग आदि, जैन-विज्ञान के उदाहरण देने से ज्ञात होता है कि इसका रचयिता जैन विज्ञान से पूर्णपरिचित था।

२. शिलप्पदि करम—इस महा काव्य की चर्चा हम ऊपर कर आये है।

३. जीवक चिन्तामणि—तामिल भाषा के पांच महाकाव्यों में इसे अत्यन्त महत्वपूर्ण गौरव प्राप्त है। इसकी इतनी अधिक सुन्दर रचना है कि इसके एक प्रेमी ने यहां तक लिखा था कि यदि कोई चढ़ाई करके तामिल देश की सारी समृद्धि ले जाना चाहे तो भले ही ले जाए, पर 'जीवक चिन्तामणि' को छोड़ दे।

४. अरनेरिच्चारम्—'सधर्ममार्गसार' के रचयिता तिरुमुनैप्पादियार नामक जैन विद्वान् है। यह अन्तिम संगमकाल में हुए थे। इस महान् ग्रन्थ में जैनधर्म से सम्बन्धित पाँच सदाचारों का वर्णन है। [ १७ ]

५. पलमोलि अथवा सूक्तियां—इसके रचयिता मुनरुनैयार अरैयानार नामक जैन है। इनमे नलदियार के समान वेणवावृत्त में ४०० पद्य है। इसमे बहुमूल्य पुरातन सूक्तियां है, जो न केवल सदाचार के नियम ही बताती है बल्कि बहुत अंश में लौकिक बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण है। तामिल के नीति विषयक अष्टादश ग्रन्थों में कुरल-नालदियार के बाद इसका तीसरा नम्बर है।

६. तिनैमालैनूरैम्बतु—इसके रचयिता कणिमेदैयार हैं। यह जैन लेखक भी संगम के कवियों में अन्यत्तम है। यह ग्रन्थ शृङ्गार तथा युद्ध के सिद्धान्तों का वर्णन करता है।

७. 'नान्‌मणिक्कडिगे'—अर्थात् रत्नचतुष्टय प्रापक है। इसके लेखक जैन विद्वान् विलम्बिनथर है। यह वेणवा छन्द में हैं। प्रत्येक पद्य में रत्नतुल्य सदाचार के नियम चतुष्टय का वर्णन है।

८. एलाति—यह ग्रन्थ अपने अर्थ से इलायची, कर्पूर, इरीकारम् नामक सुगन्धित काष्ठ, चन्दन तथा मधु के सुगन्धपूर्ण संग्रह को घोषित करता है। ग्रन्थ के इस नामकरण का कारण यह है कि इसके प्रत्येक पद्य में ऐसे ही सुरभिपूर्ण पांच विषयों का वर्णन है। इसके कर्ता का नाम कणिमेडियार है, जो कि जैनधर्म के उपासक थे। इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा सब पंडित एक स्वर से करते हैं। अब हम इस विषय में और कुछ न लिखकर अन्त में यही कहेंगे कि ये सब महान् जैन ग्रन्थ हिन्दू धर्म के पुनरुद्धार के पहिले के बने हुए है, इसलिए इन्हे सातवीं सदी के पूर्ववर्ती मानना चाहिए।

(१) तामिल जनता में प्राचीन परम्परा से प्राप्त जनश्रुति चली आती है कि कुरलका सबसे प्रथम पारायण पांडियराज 'उग्रवेरुव बद्धि' के दरबार में मदुरा के ४९ कवियों के समक्ष हुआ था। इस राज का राज्यकाल श्रीयुत एम श्रीनिवास अय्यर ने १२५ ईस्वी के लगभग सिद्ध किया है।

(२) जैन ग्रन्थों से पता लगता है कि ईस्वी सन से पूर्व प्रथम शताब्द में दक्षिण पाटलिपुत्र में द्रविडसंघ के प्रमुख श्री कुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एलाचार्य थे। इसके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकों में [ १८ ]कुरल का उल्लेख आया है उनमें सबसे प्रथम अधिक प्राचीन 'शिलप्पदिकरम्' नाम का जैनकाव्य और 'मणिमेखले' नामक बौद्धकाव्य है। दोनों का कथा-विषय एक ही है तथा दोनों के कर्ता आपस में मित्र थे। अतः दोनों ही काव्य सम-सामयिक है और दोनों में कुरल काव्य के छठे अध्याय का पाँचवाँ पद्य उद्धृत किया गया है। इसके अतिरिक्त दोनों में कुरल के नाम के साथ ५४ श्लोक और उद्धृत हैं। 'शिलप्पदिकरम्' तामिल भाषा के विद्वानों का इतिहासकाल जानने के लिए सीमानिर्णायक का काम करता है और इसका रचनाकाल ऐतिहासिक विद्वानों ने ईसाकी द्वितीय शताब्दी माना है।

(३) यह भी जनश्रुति है कि तिरुवल्लुवर का एक मित्र एलेलाशिङ्गन नाम का एक व्यापारी कप्तान था। कहा जाता है कि यह इसी नामके चोलवंश के राजा का छठा वंशज था, जो लगभग २०६० वर्ष पूर्व राज्य करता था और सिंहलद्वीप के महावंश से मालूम होता है कि ईसासे १४० वर्ष पूर्व उसने सिंहलद्वीप पर चढ़ाई कर उसे विजय किया और वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। इस शिङ्गन और उक्त पूर्वज के बीच में पाँच पीढ़ियाँ आती हैं और प्रत्येक पीढ़ी ५० वर्ष की माने तो हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि एलेलाशिङ्गन ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी में थे।

बात असल में यह है कि एलाचार्य का अपभ्रंश एलेलाशिङ्गन हो गया है। यह एलेलाशिङ्गन और कोई नहीं एलचार्य ही हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ऐलक्षत्रियों के वंशधर थे, इसलिए इनका नाम एलाचार्य था।

इन पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर हमने कुरलकाव्य का रचनाकाल ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी निश्चित किया है और यही समय अन्य ऐतिहासिक शोधों से श्री ऐलाचार्य का ठीक बैठता है। मूलसंघ की उपलब्ध दो पदावलियों में तत्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति के पहिले श्री एलाचार्य का नाम आता है और यह भी प्रसिद्ध है कि उमास्वाति के गुरु श्री एलाचार्य थे। अतः कुरल की रचना तत्वार्थसूत्र के पहले की है। यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है। [ १९ ]

कुरल-कर्ता कुन्दकुन्द (एलाचार्य)

विक्रम सं॰ ९९० में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने दर्शनसार नामक ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य नाम के साथ उनके अन्य चार नामों का उल्लेख करते हैं—

[१]पद्‌मनन्दि वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य।

श्री कुन्दकुन्द के गुरु द्वितीय भद्रबाहु थे ऐसा बोधप्राभृत की निम्नलिखित गाथा से ज्ञात होता है—

सद्दवियारों हूओं भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय।
सो तह कहिय णण सीसेण य भद्दबाहुस्स॥

ये भद्रबाहु द्वितीय नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीर निर्वाण से ४९२ वर्ष बाद हुए हैं।

कुरलकर्ता के अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव

कुरल का प्रत्येक अध्याय अध्यात्म-भावना से ओतप्रोत है, इसलिए विज्ञपाठक के मनमें यह कल्पना सहज ही उठती है कि इस के कर्ता बड़े अध्यात्मरसिक महात्मा होंगे। और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके रचयिता के एलाचार्य है जो कि अध्यात्मचक्रवर्ती थे तो यह कल्पना यथार्थता का रूप धारण कर लेती है, कारण एलाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही अद्वितीय ग्रन्थों के प्रणेता है।

उनके समयसारादि ग्रन्थों को पढ़े बिना कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने पूरा जैन तत्वज्ञान अथवा अध्यात्मविद्या जान ली। जिस सूक्ष्म तत्व की विवेचनशैली का आभास उनके मुनि जीवनसे पहले रचे हुए कुरलकाव्य से होता है वह शैली इन ग्रन्थों में बहुत [ २० ]ही अधिक परिस्फुट हो गई है। ये ग्रन्थ ज्ञानरत्नाकर हैं, जिनसे प्रभावित होकर विविध विद्वानों ने यह उक्ति निश्चित की है"—न है न होएँगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्द से।"

पीछे के ग्रन्थकारों ने या शिलालेख लिखने वालों ने कुन्दकुन्द को 'मूलसंघव्योमेन्दु, मुनींद्र, मुनिचक्रवर्ती' पदों से भूषित किया है। इससे हम सहज में ही यह जान सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना गौरवपूर्ण है। दिगम्बर जैनसंघ के साधुजन अपने को कुन्दकुन्द आम्नाय का घोषित करने में सम्मान समझते है। वे शास्त्र-विवेचन करते समय प्रारम्भ में यह अवश्य पढ़ते है कि—

'मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमोगणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥'

इनके रचे हुए चौरासी प्राभृत (शास्त्र) सुने जाते है, पर अब वे पूरे नहीं मिलते। प्रायः नीचे लिखे ग्रन्थ ही मिलते हैं—(१ समयसार (२) प्रवंचनसार, (३) पंचास्तिकाय, (४) अष्टपाहुड, (५) नियमसार, (६) द्वादशानुप्रेक्षा, (७) रयणसार। ये सब ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है और प्रायः सब ही जैनशास्त्रभण्डारों में मिलते हैं।

ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने कोएडकुन्द पुर में रहकर षट्खण्डागम पर बारह हजार श्लोक परिमित एक टीका लिखी थी जो अब दुष्प्राप्य है। समयसार ग्रन्थ पर विविध भाषाओं में अनेक टीकाएँ उपलब्ध है। हिन्दी के प्राचीन महाकवि पं॰ बनारसीदास जी ने इसके विषय में लिखा है कि "नाटक पढ़त हिय फाटक खुलत है" समयसार, प्रवचनसार और पवास्तिकाय ये तीनों ग्रन्थ विज्ञसमाज में नाटकत्रयी नाम से प्रसिद्ध हैं और तीनों ही ग्रन्थ निःसन्देह आत्मज्ञान के आकर है।

इन सब ग्रन्थों के पठन पाठन का यह प्रभाव हुआ कि दक्षिणा पथ से उत्तरापथ तक आचार्यकी उज्ज्वल कीर्ति छागई और भारतवर्ष में वे एक महान् आत्मविद्या के प्रसारक माने जाने लगे, जैसा कि श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरिस्थ निम्नलिखित शिलालेख से प्रकट होता है— [ २१ ]

वन्धों विभुर्भ्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्द
कुन्द-प्रभा-प्रणयिकीर्ति-विभूषिताश।
यश्वारु-चारण-कराम्बुजचश्चरीक—
श्चक्र श्रुतस्य भरते प्रयत्त प्रतिष्ठाम्॥५॥

तपस्या के प्रभाव से श्री कुन्दकुन्दाचार्य को 'चारण-ऋद्धि' प्राप्त हो गई थी, जिसका कि उल्लेख श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है। तीन का उद्धरण हम यहाँ देते हैं।

तस्यान्वये भूविदिते बभूव य पद्मनन्दी प्रथमाभिधान।
श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य सत्सयमादुद्गत चारणर्द्धि॥
श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचायशब्दोत्तर कौण्डकुन्द।
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारणार्द्ध॥
रजोभिरस्पृष्टतममन्त-वर्वाश्येपि सव्यञ्जयितु यतीश।
रज पद भूमितल बिहाय चचार मन्ये चतुरगुल स॥

इन सब विवरणों को पढ़कर हृदय को पूर्ण विश्वास होता है कि ऐसे ही महान ग्रन्थकारकी कलमसे कुरलकी रचना होनी चाहिए।

कुरलकर्ता का स्थान—

इस वक्तव्य को पढकर पाठकों के मन में यह विचार उत्पन्न अवश्य होगा कि कुरल आदि ग्रन्थो के रचयिता श्री पलाचार्य का दक्षिण मे वह कौनसा स्थान है जहा पर बैठकर उन्होने इन ग्रन्थो का अधिकतर प्रणयन किया था। इस जिज्ञामा की शान्ति के लिए हमेंनीचे लिखा हुआ पद्य देखना चाहिए-

दक्षिणदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मामीत्।
एलाचार्यों नाम्ना द्रविडगणाधीश्वरो धीमान्॥

यह श्लोक एक हस्तलिखित 'मन्त्रलक्षण' नामक ग्रन्थमें मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त में हेमग्राम के निवासी थे, और द्रविसघ के अधिपति थे। यह हेमग्राम कहाँ है इसकी खोज करते हुए श्रीयुत मल्लिनाथ चक्रवर्ती एम॰ ए॰ एल॰ टी॰ ने अपनी प्रवचनसार की प्रस्तावना में लिखा है कि—मद्रास प्रेसीडेन्सी के मलाया प्रदेशमें 'पोन्नूरगांव' को ही प्राचीन [ २२ ]समयमें हेमग्राम कहते थे और सम्भवत यही कुण्डकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य की चरणपादुका बनी हैं, जहाँ पर बैठकर वे तपस्या करते थे। आस पास की जनता आज भी ऐसा ही मानती है और बरसात के दिनो में उनकी पूजा के लिए वहाँ एक मेला भी प्रतिवर्ष भरता है। श्रीयुत स्व जैनधर्म भूषण ब्र॰ शीतलप्रसाद जी ने भी इसके दर्शन का जन मित्र में ऐसा ही लिखा था।

देश की तात्कालिक स्थिति—

जब हम कुरल की रचना के समय देश की तात्कालिक स्थिति पर दृष्टि डालते हैं तो ज्ञात होता है कि सारा देश उस समय ऋद्धि सिद्धि से भरपूर था। इतिहास से ज्ञात होता है कि उस समय जैनधर्म कलिङ्ग की तरह तामिल देश में भी राष्ट्रधर्म था। उसके प्रभाव से राजघरानों में भी शिक्षा और सदाचार पूर्णरूपेण विद्यमान था। अध्यात्म विद्या के पारगामी क्षत्री राजा बनने में उतनी प्रतिष्ठा व सुख नहीं मानते थे जितना कि राजर्षि बनने में, जिसके उदाहरण आचार्य समन्तभद्र (पाण्ड्यराज्य की राजधानी उरगपुर के राजपुत्र) शिलप्पदिकरम के कर्ता युवराज राजर्षि (चेर राजपुत्र) और एलाचार्य हैं। उस समय क्षत्रियगण शासक और शास्ता दोनों थे। स्वतन्त्र व धार्मिक भारत उस समय के दिव्य विचार रखता था इसकी बानगी के लिए कुरल अच्छा काम देता है।

—गोविन्दराय शास्त्री।

 

यदि पङ्कजमध्ये वससि, हे जगदम्ब तदैव।
तव वसतिर्मम मानसे, पङ्कमयेऽप्युचितैव॥
विधेर्निर्दयशापेन दृष्टिर्विफलतां गता।
अतोऽन्तर्दृष्टिलाभेन काव्यमेतद् वितन्यते॥

[ सम्मतियाँ ] 

सम्मतियाँ

वीणानिनाद इव श्रोत्रमनोहरश्रीर्भव्यप्रभातमिव सुप्तविबोधदक्ष।
सत्सङ्गम सुहृदिव प्रतिमातिवर्ती दिष्टादुदेति कृतिना कविताकलाप॥
सत्सारसै सततसेवितपादपद्म सद्मामल किमपि वाचि विदग्धताया।
गोविन्दरायरचित कविताविलासो जीयाच्चिर कुरलकाव्यकलाश्रितश्री॥

झाँसीमण्डलमण्डन सहृदय विद्वद्वर पं॰ गोविन्दरायविरचित संस्कृत-हिन्दीकाव्यपरिणत तामिलभाषानिबद्ध कुरल महाकाव्य को मैंने घण्टों सतृष्ण हृदय से सुना। वह प्रसन्नव्युत्पत्ति-सम्पत्तिसभृत सुन्दर और मनोहर रचना तथा उसकी एकान्तनिष्ठा है।

इस अनुपम काव्य से भारतीय नवयुवकों को उत्साह, कर्तव्यपरायणता, जागरण और सदुपदेश का अभ्यर्थनीय लाभ होगा। मैं इस काव्य का दिनोंदिन अभ्युदय और भारतीय प्रबुद्ध समाज में व्यापक प्रचार का पूर्ण समर्थन हार्दिक भावना से करता हूँ।

दिनाङ्क
२८-१०-४५
रविवार

महादेव शास्त्री पाण्डेय
न्यायव्याकरण, साहित्याचार्य, कवि तार्किक चक्रवर्ती
अध्यक्ष—साहित्य विभाग, ओरिएण्टल कॉलेज
काशी विश्वविद्यालय

प्रज्ञाचक्षु पं॰ श्री गोविन्दराय शास्त्री ने तामिल वेद कुरल काव्य का हिन्दी और संस्कृत पद्यमय अनुवाद किया है, उसको मैंने सुना। तामिल भाषा के श्रेष्ठ ग्रन्थरत्न का आस्वादन सारे देश को कराने के दो ही साधन हैं—संस्कृत और हिन्दुस्तानी। दोनों के द्वारा कुरल का परिचय कराके पंडित जी ने देश की अच्छी सेवा की है।

कुण्डेश्वर, टीकमगढ़ — काका कालेलकर।
११-६-४९

प्रसन्नता हुई, आपने सरल और ललित संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में त्रिक्कुरल तैमिल ग्रन्थकी रचना सुनाई। आपको इससे बड़ा आनन्द मिलता होगा तथा सहारा हो गया है। इसके पाठ से विषयवासना की प्रवृत्ति से मन छूटता और आन्तरिक जगतका आनन्द मिलता है।

काशी विश्वविद्यालय — मदनमोहन मालवीय।
५-१०-४५
[ सम्मतियाँ ] 

कुरल काव्य तामिल भाषा के छन्दों में है। इसके रचयिता श्री १००८ कुन्दकुन्दाचार्य हैं। आपके द्वारा समयसारादि ८४ पाहुडो की रचना हुई है, जिनके द्वारा वर्तमान समय में गणधरदेव सदृश उपकार हो रहा है।

उनके द्वारा रचित कुरल ग्रन्थ का अनुवाद संस्कृत तथा भाषा छन्द तथा भाषा गद्य में श्रीमान् पं॰ गोविन्दराय शास्त्री ने महान् परिश्रम के साथ किया है, जिसको पढ़कर मनुष्यमात्र आत्मीय कर्तव्य को जान सकता है।

क्षेत्रपाल, ललितपुर गणेश वर्णी।
भादो बदी १२ सं २००८

कुरल का हिन्दी और संस्कृत दोनों अनुवाद कुछ कुछ देख गया, प्रसन्नता हुई। यह ग्रन्थ नीति और धर्मबोध की उत्तम शिक्षा देगा। इसके अलावा दक्षिण और उत्तर भारत को जोड़ने में मदद देगा। भारत देश की सांस्कृतिक एकता कितनी गहरी है यह इसके अवलोकन से लोगों के दिलों में स्पष्ट हो जायगी। संस्कृत का मद्रास में बहुत प्रचार होगा। हिन्दी तो उत्तर और दक्षिण दोनों में विजयशाली हो सकेगी। आपके परिश्रम के लिए धन्यवाद है।

महरौनी — बिनोवा।
१०-१०-५१

श्रीमान् विद्वद्वर्य गोविन्दराय जी शास्त्री करके अनूदित तामिल कुरल काव्यके कतिपय छन्दोंको श्रवण कर हृदय आल्हादपूर्ण हुआ। हिन्दीप्रसार के इस युग में अतीव प्राचीन अनुभवपूर्ण विद्वत्कृतियों की प्रभावना शास्त्रीसदृश उद्भट विद्वानों करके ही हो सकती है। हिन्दी भाषा के गरीयत्व को यह रचना पुष्ट करती है।

सहारनपुर

स्नेहानुरक्तमना
माणिकचन्दः कौन्देयः न्यायाचार्यः

वैशाख कृ १२ सं॰ २००५

  1. पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ, जिनादिचन्द्र समभूदतन्द्र।
    ततोऽभवत् पच सुनामधामा, श्री पद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती॥
    आचार्य कुन्दकुन्दारव्यों वक्रग्रीवों महामति।
    एलाचार्यों-गृद्धपृच्छ पद्मनन्दी वितायते॥
    (मूलसंघ की पट्टावलि)