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कुरल-काव्य/परिच्छेद १०६ भिक्षा

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ३२० से – ३२१ तक

 

 

परिच्छेद १०६
भिक्षा

मांगो उनसे तात तुम, जिनका उत्तम कोष।
कभी बहाना वे करें, तो उनका ही दोष॥१॥
जो मिलती है भाग्यवश, बिना हुए अपमान।
वह ही भिक्षा चित्त को, देती हर्ष महान॥२॥
जो जाने कर्तव्य को, नहीं बहानेबाज।
ऐसे नर से मांगना, रखता शोभा-साज॥३॥
जहाँ न होती स्वप्न में, विफल कभी भी भीख।
कीर्ति बढ़े निज दान सम, लेकर उससे भीख॥४॥
भिक्षा से ही जीविका, करते लोग अनेक।
कारण इसमें विश्व के, दानशूर ही एक॥५॥
नहीं कृपण जो दान को, वे है धन्य धुरीण।
उनके दर्शन मात्र से, दुःस्थिति होती क्षीण॥६॥
बिना झिड़क या क्रोध के, दें जो दया-निधान।
याचक उनको देख कर, पाते हर्ष महान॥७॥
दानप्रवर्तक भिक्षुगण, जो न धरें अवतार।
कठपुतली का नृत्य ही, तो होवे संसार॥८॥
भिक्षुकगण भी छोड़ दें, भिक्षा का यदि काम।
तब वैभव औदार्य का, बसे कौन से धाम॥९॥
भिक्षुक करे न रोष तब, जब दाता असमर्थ।
कारण स्थिति एकसी, कहती नहीं समर्थ॥१०॥

 

परिच्छेद १०६
भिक्षा

१—यदि तुम ऐसे साधनसम्पन्न व्यक्ति देखते हो कि जो तुम्हें दान दे सकते है तो तुम उनसे माँग सकते हो, यदि वे न देने का बहाना करते है, इसमे उनका दोष है तुम्हारा नहीं।

२—यदि तुम बिना किसी तिरस्कार के जो पाना चाहते हो वह पा सको तो माँगना आनन्ददायी होता है।

३—जो लोग अपने कर्तव्य को समझते है और सहायता न देने का झूठा बहाना नहीं करते उनसे माँगना शोभनीय है।

४—जो मनुष्य स्वप्न में भी किसी की याचना को अमान्य नहीं करता उस आदमी से माँगना उतना ही सम्मानपूर्ण है जितना कि स्वयं देना।

५—यदि आदमी, भीख को जीविका का साधन बनाकर निस्सकोच माँगते है तो इसका कारण यह है कि संसार में ऐसे मनुष्य हैं जो मुक्तहस्त होकर दान देने से विमुख नहीं होते।

६—जिन सज्जनों में दान देने के लिए क्षुद्र कृपणता नही है उनके दर्शनमात्र से ही दरिद्रता के सब दुख दूर हो जाते है।

७—जो सज्जन याचक को बिना झिड़क या क्रोध के दान देते है उनसे मिलते ही याचक आनन्दित हो उठते है।

८—यदि दानधर्मप्रवर्तक याचक न हों तो इस सारे संसार का अर्थ कठ-पुतली के नाच से अधिक नहीं होगा।

९—यदि इस संसार में कोई मांगने वाला न हो तो उदारतापूर्वक दान देने की शान कहाँ रहेगी?

१०—याचक को चाहिए कि यदि दाता देने में असमर्थता प्रगट करता है तो उस पर क्रोध न करे, कारण कि उसकी आवश्यकतायें ही यह दिखाने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि दूसरे की स्थिति उस जैसी ही हो सकती है।