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कुरल-काव्य/परिच्छेद १२ न्यायशीलता

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १३२ से – १३३ तक

 

 

परिच्छेद १२
न्यायशीलता

न्यायनिष्ठ का चिन्ह यह, हो निष्पक्ष उदार।
जिसका जिसको भाग दे, शत्रु मित्र सम धार॥१॥
न्यायनिष्ठ की सम्पदा, कभी न होती क्षीण।
वंश-क्रम से दूर तक, चली जाय अक्षीण॥२॥
मत लो वह धन भूल से, जिसमें नीति-द्वेष।
हानि बिना उससे भले, होवें लाभ अशेष॥३॥
न्यायी या नयहीन की, करनी हो पहिचान।
तो जाकर बुध देख लो, उसकी ही सन्तान॥४॥
स्तुति-निन्दा-द्वय से भरे, सब ही जीव समान।
पर नयज्ञ मनका अहो, है अपूर्व ही मान॥५॥
नीति छोड़ मन दौड़ना, यदि कुमार्ग की ओर।
तो समझो आया निकट, सर्वनाश ही घोर॥६॥
न्यायी यदि दुर्दैव से, हो जावे धनहीन।
पर उसकी होती नहीं, कभी प्रतिष्ठा क्षीण॥७॥
तुलादण्ड सीधा तथा, है सच्चा जिस रीति।
हो ऐसी ही न्याय के, अधिकारी की नीति॥८॥
जिसका मन भी नीति से, डिगे न खाकर चोट।
नित्य-सत्य बोले वचन, उस न्यायी के ओठ॥९॥
जो करता परकार्य भी, अपने कार्य समान।
धन्य गृही, वह कार्य में, पाता सिद्धि महान्॥१०॥

 

परिच्छेद १२
न्यायशीलता

१—न्यायनिष्ठा का सार केवल इसी में है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर, धर्मशीलता के साथ दूसरे के देय अंश को दे देवे, फिर चाहे लेने वाला शत्रु हो या मित्र।

२—न्यायनिष्ठ की सम्पत्ति कभी कम नहीं होती। वह दूर तक, पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाती है।

३—सन्मार्ग को छोड़कर जो धन मिलता है, उसे कभी हाथ न लगाओ, भले ही उससे लाभ के अतिरिक्त और किसी बात की सम्भावना न हो।

४—भले और बुरे का पता उसकी सन्तान से चलता है।

५—भलाई और बुराई का प्रसंग तो सभी को आता है, पर एक न्यायनिष्ठ मन बुद्धिमानों के लिए गर्व की वस्तु है।

६—जब तुम्हारा मन सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर झुकने लगे तो समझ लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है।

७—संसार धर्मात्मा और न्याय-परायण पुरुष की निर्धनता को हेय- दृष्टि से नहीं देखता।

८—बराबर तुली हुई उस तराजू की डंडी को देखो, वह सीधी है और दोनों ओर एक सी है। बुद्धिमानों का गौरव इसी में है कि वे इसके समान ही बने, न इधर को मुके और न उधर को।

९—जो मनुष्य अपने मन में भी नीति से नही डिगता, उसके न्यायमार्गी ओठों से निकली हुई बात नित्य-सत्य है।

१०—उस सद्व्यवहारी पुरुष को देखो कि जो दूसरे के कामों को भी अपने विशेष कार्यों के समान ही देखता भालता है। उसके उद्योग-धन्दे अवश्य उन्नति करेगे।