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कुरल-काव्य/परिच्छेद १७ ईर्ष्या-त्याग

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १४२ से – १४३ तक

 

 

परिच्छेद १७
ईर्ष्या-त्याग

मन से त्यागो तात तुम, ईर्ष्यापूर्ण विचार।
कारण इसका त्याग ही, धर्म अंग शुभ सार॥१॥
ईर्ष्यामुक्त स्वभाव सम, श्रेष्ठ नहीं वरदान।
उस सम मंगल विश्व में, अन्य न होता भान॥२॥
धर्म तथा धन की जिन्हें रहे न कुछ परवाह।
देख पड़ौसी-वृद्धि को, करते वे ही डाह॥३॥
ईर्ष्या से करते नहीं, परविघात मतिधाम।
ईर्ष्याजन्य बिगाड़ का, जान कटुक परिणाम॥४॥
ईर्ष्यायुत के नाश को, ईर्ष्या ही पर्याप्त।
बैरी चाहे छोड़ दें, उससे क्षय ही प्राप्त॥५॥
जिसे न भाता अन्य का, पर को देना दान।
मांगेगी उस नीच की, अन्न-वस्त्र सन्तान॥३॥
जिसने ईर्ष्या को दिया, अपना मन है सोंप।
तज जाती श्री भी उसे, बड़ी बहिन को सोंप॥७॥
डाइन निर्धनता बुरी, उसे बुलावे डाह।
अधम नरक के द्वार भी, ले जावे यह आह॥८॥
भूंजी तो वैभव भरा, दानी धन से भ्लान।
दोनों ही आश्चर्यमय, बुध को एक समान॥९॥
ईर्ष्या से कोई कभी, फूला फला न तात।
और न दानी अर्थ बिन, सहता दुःखाघात॥१०॥

 

परिच्छेद १७
ईर्ष्यात्याग

१—ईर्ष्या के विचारों को अपने मन में न आने दो, क्योंकि ईर्ष्या से रहित होना धर्माचरण का एक अङ्ग है।

२—सब प्रकार की ईर्ष्या से रहित स्वभाव के समान दूसरा और कोई बड़ा वरदान नही है।

३—जो मनुष्य धन या धर्म की परवाह नहीं करता, वही अपने पड़ौसी की समृद्धि पर डाह करता है।

४—समझदार लोग ईर्ष्याबुद्धि से दूसरो को हानि नहीं पहुँचाते, क्योकि उससे जो खोटा परिणाम होता है, उसे वे जानते है।

५—ईर्ष्यालु के लिए ईर्ष्या ही पूरी बला है, क्योंकि उसके वैरी उसे चाहे क्षमा भी कर दे तो भी वह उसका सर्वनाश ही करेगी।

६—जो मनुष्य दूसरों को देते हुए नहीं देख सकता, उसका कुटुम्ब रोटी और कपड़ों तक के लिए मारा मारा फिरेगा और नष्ट हो जायगा।

७—लक्ष्मी ईर्ष्या करने वाले के पास नही रह सकती, वह उसकी अपनी बड़ी बहिन दरिद्रता की देखरेख में छोड़कर चली जायगी।

८—दुष्टा ईर्ष्या दरिद्रता दानवी को बुलाती है और मनुष्य को नरक के द्वार तक ले जाती है।

९—ईर्ष्या करने वालों की समृद्धि और उदारचित्त पुरुषों की कङ्गाली ये दोनों ही एक समान आश्चर्यजनक है।

१०—न तो ईर्ष्या से कभी कोई फूला फला और न उदारहृदय कभी वैभव से हीन ही रहा।