कुरल-काव्य/परिच्छेद २३ दान

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परिच्छेद २३
दान

दीनजनों को प्रेम से, देना ही है दान।
अन्य तरह का दान तो, है उधार ही दान॥१॥
स्वर्ग मिले यदि दान में, लेना दान न धर्म।
स्वर्गद्वार भी बन्द हो, फिर भी देना धर्म॥२॥
दानी सब ही हैं भले, पर है वही कुलीन।
जो देने के पूर्व ही, रहे निषेधविहीन॥३॥
होता दानी को नही, तब तक मन में मोद।
जब तक वह देखे नहीं, याचकमुख पर मोद॥४॥
विजयों में बस आत्मजय, सबसे अधिक महान।
क्षुधाशमन तो अन्य का, उससे भी जयवान॥५॥
आर्तक्षुधा के नाशहित, यही नियम अव्यर्थ।
धनिकवर्ग करता रहे, घर में संचित अर्थ॥६।।
जो करता है बाँटकर, भोजन का उपयोग।
कभी न व्यापे भूख का, उसे भयंकर रोग॥७॥
कृषण द्रव्य को जोडकर, करे नाश का योग।
चाखा उसने ही नहीं, मधुरदात का भोग॥८॥
भिक्षाभोजन से बुरा, वह है अधिक जघन्य।
एकाकी जिस अन्न को, खाता कृपण अधन्य॥९॥
सबसे अप्रिय वस्तु है, तीन लोक में मृत्यु।
दानशक्ति यदि हो नहीं, तब रुचती यह मृत्यु॥१०॥

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परिच्छेद २३
दान

१—गरीबो को देना ही दान है, और सब तरह का देना उधार देने के समान है।

२—दान लेना बुरा है चाहे उससे स्वर्ग ही क्यो न मिलता हो और दान देने वाले के लिए चाहे स्वर्ग का द्वार ही क्यों न बन्द हो जाये, फिर भी दान देना धर्म है।

३—"हमारे पास नहीं है" ऐसा कहे बिना दान देने वाला पुरुष ही केवल कुलीन होता है।

४—याचक के ओठों पर सन्तोष-जनित हँसी की रेखा देखे बिना दानी का मन प्रसन्न नहीं होता।

५—आत्म-जयी की विजयों में श्रेष्ठ जय है भूख को जीतना, पर उसकी विजय से भी बढ़ कर उस मनुष्य की विजय है जो दूसरे की क्षुधा को शान्त करता है

६—गरीबों के पेट की ज्वाला को शान्त करने का यही एक मार्ग है कि जिससे श्रीमानों को अपने पास विशेष करके धनसंग्रह कर रखना चाहिए।

७—जो मनुष्य अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँट कर खाता है उसको भूख की भयानक बीमारी कभी स्पर्श नहीं करती।

८—वे निष्ठुर कृपण लोग जो धनसंग्रह कर कर के उसको निकम्मा करते है, क्या उन्होंने कभी दूसरो को दान देने का आनन्द ही नहीं लिया?

९—भिक्षान्न से भी बढ़ कर अप्रिय उस कंजूस का भोजन है जो अकेला बैठ कर खाता है।

१०—मुत्यु से बढ़ कर और कोई कड़वी बात नहीं, परन्तु मृत्यु भी उस समय मीठी लगती है जब किसी मे दान की सामर्थ्य नही रहती।