कुरल-काव्य/परिच्छेद २६ निरामिष-जीवन

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कुरल-काव्य
द्वारा तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

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परिच्छेद २६
निरामिष-जीवन

मांसवृद्धि के हेतु जो, मांस चखे रख चाव।
उस नर में संभव नहीं, करुणा का सद्भाव॥१॥
द्रव्य नहीं जैसे मिले, व्यर्थव्ययी के पास।
आमिषभोजी में नहीं, वैसे दयाविकास॥२॥
जो चखता है मांस को, उसका हृदय कठोर।
डाकू जैसा शस्त्रयुत, झुके न शुभ की ओर॥३॥
निस्संशय है क्रूरता, करना जीव-विधात।
पर चखना तो मांस का, घोर पाप की बात॥४॥
मांसत्याग से ही रहे, जीवन पूर्ण ललाम।
यदि इससे विपरीत तो, बन्द नरक ही धाम॥५॥
खाने की ही कामना, करें नहीं यदि लोग।
आमिष-विक्रय का नहीं, आवे तो कुछ योग॥६॥
एक बार ही जान ले, निज-सम ही परकष्ट।
तो इच्छा कर मांस की, करे न जीवन भ्रष्ट॥७॥
जो नर मिथ्याबुद्धि को, छोड़ बना सज्ञान।
लाश नहीं वह खायगा, तन में रहते प्राण॥८॥
मांस तथा परघात से, जिसको घृणा महान।
कोटि यज्ञ का फल उसे, कहते हैं विद्वान॥९॥
आमिष-हिंसा से घृणा, जो रखता मतिमान।
हाथ जोड़ उसका सभी, करते हैं सम्मान॥१०॥

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परिच्छेद २६
निरामिष जीवन

१—भला उसके मन में दया कैसे आयेगी जो अपना मांस बढ़ाने के लिए दूसरो का मांस खाता है?

२—व्यर्थव्ययी के पास जैसे सम्पत्ति नहीं ठहरती, ठीक वैसे ही मांस खाने वाले के हृदय में दया नहीं रहती।

३—जो मनुष्य मांस चखता है उसका हृदय शस्त्रधारी मनुष्य के हृदय के समान शुभकर्म की ओर नहीं झुकता।

४—जीवों की हत्या करना निस्सन्देह क्रूरता है, पर उनका मांस खाना तो सर्वथा पाप है।

५—मांस न खाने में ही जीवन है। यदि तुम खाओगे तो नरक का द्वार तुम्हे बाहर निकल जाने देने के लिए कभी नहीं खुलेगा।

६—यदि लोग मांस खाने की इच्छा ही न करे तो जगत में उसे बेचने वाला कोई आदमी ही न रहेगा।

७—यदि मनुष्य दूसरे प्राणियो की पीड़ा और यन्त्रणा को एकबार समझ सके, तो फिर वह कभी मांसभक्षण की इच्छा ही न करेगा।

८—जो लोग माया और मूढ़ता के फन्दे से निकल गये है वे लाश को नहीं खाते।

९—प्राणियों की हिंसा व मांसभक्षण से विरक्त होना सैकड़ों यज्ञों में बलि व आहुति देने से बढ़ कर है।

१०—देखो, जो पुरुष हिंसा नहीं करता और मांस न खाने का व्रती है, सारा संसार हाथ जोड़कर उसका सम्मान करता है।