कुरल-काव्य/परिच्छेद २ मेघमहिमा

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परिच्छेद २
मेघमहिमा

यथासमय की वृष्टि से, धरणी धरती प्राण।
विबुधवृन्द कहते अतः, वारिद सुधासमान॥१॥
सबही मीठे खाद्य का, मूल जलद विख्यात|
यह ही क्यों, जल आप भी, भक्ष्य मधुर विज्ञात॥२॥
मेघदेव वर्षे विना, होता है दुष्काल।
चार जलधि से है घिरी, तो भी भू बेहाल॥३॥
यदि स्वर्गों के स्रोत ये, सूख जांय विधिशाप।
विपदा छावे विश्व में, कृषक तजे कृषि आप॥४॥
अतिवर्षा के जोर से, लोग हुये जो दीन।
वे ही वर्षायोग से, फिर होते सुखलीन॥५॥
नम से यदि आवें नहीं, वारिदविन्दु अनेक।
अन्य कथा तो दूर ही, क्या उपजे तृण एक॥६॥
जावे या आवे नहीं, ऊपर वारिधिनीर।
सिन्धु बने वीभत्स तो, यद्यपि वह गम्भीर॥७॥
स्वर्गसुधा के स्रोत ये, हो जावें यदि लुप्त।
देवों की पूजा तथा, होवे भोज्य विलुप्त॥८॥
दानी तज दें दान को, योगी करना योग।
रण छोड़ें रणवांकुरे, बिना मिले जलयोग॥९॥
होते हैं संसार में, जल से ही सब काम।
सदाचार कहते सुधी, उसका ही परिणाम॥१०॥

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परिच्छेद २
मेघ-महिमा

१—समय पर न चूकने वाली मेघवर्षा से ही धरती अपने को धारण किये हुए है, और इसीलिये लोग उसे अमृत कहते है।

२—जितने भी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ है, वे सब वर्षा ही के द्वारा मनुष्य को प्राप्त होते है, और जल स्वय ही भोजन का एक मुख्य अंग है।

३—यदि पानी न वर्षे तो सारी पृथ्वी पर अकाल का प्रकोप छा जाये, यद्यपि वह चारों ओर समुद्र से घिरी हुई है।

४—स्वर्ग के झरने यदि सूख जावे तो किसान लोग हल जोतना ही छोड़ देंगे।

५—वर्षा हीनष्ट करती है और फिर यह वर्षा ही है, जो नष्ट हुए लोगों को फिर से हरा भरा कर देती है।

६—यदि आकाश से पानी की बौछारे आना बन्द हो जाये तो घास का उगना तक बन्द हो जायगा।

७—स्वंय शक्तिशाली समुद्र में हो कुत्सिन बीभत्सता का दारुण प्रकोप जग उठे, यदि आकाश उसके जल को पान करना और फिर उसे वापिस देना अस्वीकार कर दे।

८—यदि स्वर्ग का जल सूख जाय तो न तो पृथ्वी पर यज्ञ-याग होगे और न भोज ही दिये जायेंगे।

९—यदि ऊपर से जलधाराये आना बन्द हो जाये तो फिर इस पृथ्वी भर में न कही दान रहे, न कही तप।

१०—पानी के बिना संसार में कोई काम नहीं चल सकता, इसलिये सदाचार भी अन्तत वर्षा ही पर आश्रित है।