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कुरल-काव्य/परिच्छेद ३४ संसार की अनित्यता

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १७६ से – १७७ तक

 

 

परिच्छेद ३४
संसार की अनित्यता

इससे बढ़कर मोह क्या, अथवा ही अज्ञान।
नश्वर को ध्रुव मानना, और न निज पहिचान॥१॥
श्री का आना, खेल में जुड़ती जैसी भीड़।
श्री का जाना, खेल से हटती जैसी भीड़॥२॥
ऋद्धि मिली तो शीघ्र ही, करलो कुछ शुभ कार्य।
कारण टिकती है नहीं, अधिक समय यह आर्य॥३॥
यद्यपि दिखता काल है, सरल तथा निर्दोष।
पर आरे सम काटता, सब का जीवनकोष॥४॥
शुभ कार्यों को प्राज्ञजन, करो लगे ही हाथ।
क्या जाने जिह्वा रुके, कर हिचकी के साथ॥५॥
कल ही था इस लोक में, एक मनुज विख्यात।
आज न चर्चा है कहीं, कैसी अद्भुत बात॥६॥
जीवित रहता या नहीं, पल भर भी सन्देह।
कोटि कोटि संकल्प का, फिर भी यह मन गेह॥७॥
खग लगते ही पंख के, उड़ता अण्डा फोड़।
उस सम देही कर्मवंश, जाता काया छोड़॥८॥
निद्रासम ही मृत्यु है, जीना जगना एक।
निर्णय ऐसा प्राज्ञवर, करते हैं सविवेक॥९॥
लोगो! क्या इस जीव का, निजगृह नही विशेष।
जिससे निन्दित देह में, सहता दुःख अशेष॥१०॥

 

परिच्छेद ३४
संसार की अनित्यता

१—उस मोह से बढ़ कर मूर्खता की बात और कोई नहीं है कि जिसके कारण अस्थायी पदार्थों को मनुष्य स्थिर और नित्य समझ बैठता है।

२—धनोपार्जन करना खेल देखने के लिए आयी हुई भीड़ के सदृश है और धन का क्षय उस भीड़ के तितर-बितर हो जाने के समान है।

३—समृद्धि क्षणस्थायी है। यदि तुम समृद्विशाली हो गये हो तो ऐसे काम करने में देर न करो जिनसे स्थायी लाभ पहुँच सकता है।

४—समय देखने में भोला भाला और निर्दोष मालूम होता है, परन्तु वास्तव में वह एक पारा है जो मनुष्य के जीवन को बराबर काट रहा है।

५—पवित्र काम करने में शीघ्रता करो, ऐसा न हो कि बोली बन्द हो जाय और हिचकिया आने लगे।

६—कल तो एक आदमी विद्यमान था और आज वह नहीं है, संसार में यही बड़े अचरज की बात है।

७—मनुष्य को इस बात का तो पता नहीं कि पल भर के पश्चात् वह जीवित रहेगा या नहीं, पर उसके विचारों को देखो तो वे करोड़ों की संख्या में चल रहे है।

८—पंख निकलते ही चिड़िया का बच्चा फूटे हुए अण्डे को छोड़ कर उड़ जाता है। शरीर और आत्मा की पारस्परिक मित्रता का यही दृष्टान्त है।

९—मृत्यु नींद के समान है और जीवन उस निद्रा से जागने के तुल्य है।

१०—क्या आत्मा का अपना कोई निज घर नही है, जो वह निकृष्ट शरीर में आश्रय लेता है?