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कुरल-काव्य/परिच्छेद ३६ सत्य का अनुभव

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १८० से – १८१ तक

 

 

प‌रिच्छेद ३६
सत्य का अनुभव

क्षण भंगुर संसार में, कोई वस्तु न सत्य।
दुःखित जीवन भोगते, वे जो समझें सत्य॥१॥
भ्रान्ति-भाव से मुक्ति हो, जो नर निर्मल दृष्टि।
दुःखतिमिर उसका हटे, और मिले सुख-सृष्टि॥२॥
जिसने छोड़ असत्य को, पाया सत्य प्रदीप।
पृथ्वी से भी स्वर्ग है, उसको अधिक समीप॥३॥
कभी न चाखा सत्य यदि, जो है शाश्वत अर्थ।
मनुजयोनि में जन्म भी, लेना तब है व्यर्थ॥४॥
इसमें इतना सत्य है, शेष मृषाव्यवहार।
ऐसा निर्णय वस्तु का, करती मेघासार॥५॥
धन्य पुरुष, स्वाध्याय से, जिसके सत्य विचार।
शिव-पथ के उस पान्थ को, मिले न फिर संसार॥६॥
ध्यानाधिक से प्राप्त हो, जिसको सत्य अपार।
भावी जन्मों के लिए, उसे न सोच विचार॥७॥
शुद्ध ब्रह्ममय आप हो, करे अविद्या दूर।
जो जननी भर रोग की, वही बुद्धि गुण पूर॥८॥
शिव साधन का विज्ञ जो, मोह विजय संलग्न।
उसके भावी दुःख सब बिना यत्न ही भग्न॥९॥
काम क्रोधयुत मोह भी, ज्यों ज्यों होगा क्षीण।
त्यों अनुगामी दुःख भी, होते अधिक विलीन॥१०॥

 

फरिच्छेद ३६
सत्य का अनुभव

१—मिथ्या और अनित्य पदार्थों को सत्य समझने के भ्रम से ही मनुष्य को दुखमय जीवन भोगना पड़ता है।

२—जो मनुष्य भ्रमात्मक भावों से मुक्त है और जिसकी दृष्टि निर्मल है उसके लिए दुख और अन्धकार का अन्त हो जाता है तथा आनन्द उसे प्राप्त होता है।

३—जिसने अनिश्चित बातों से अपने को मुक्त कर लिया है और सत्य अर्थात् आत्मा को पा लिया है, उसके लिए स्वर्ग पृथ्वी से भी अधिक समीप है।

४—मनुष्य जैसी उच्च योनि को प्राप्त कर लेने से भी कोई लाभ नहीं, यदि आत्मा ने सत्य का आस्वादन नही किया।

५—कोई भी बात हो, उसमे सत्य को झूठ से पृथक् कर देना ही मेधा का कर्तव्य है।

६—वह पुरुष धन्य है जिसने गम्भीरता पूर्वक स्वाध्याय किया है और सत्य को पा लिया है। वह ऐसे मार्ग से चलेगा जिससे उसे इस संसार में न आना पड़ेगा।

७—निस्सन्देह जिन लोगों ने ध्यान और धारणा के द्वारा सत्य को पा लिया है उन्हें आगे होने वाले भावों का विचार करने की आवश्यकता नहीं।

८—जन्मों की जननी-अविद्या से छुटकारा पाना और सच्चिदानन्द को प्राप्त करने की चेष्टा करना ही बुद्धिमानी है।

९—देखो, जो पुरुष मुक्ति के साधनों को जानता है और सब मोहों को जीतने का प्रयत्न करता है, भविष्य में आने वाले सब दुख उससे दूर हो जाते हैं।

१०—काम, क्रोध और मोह ज्यों ज्यो मनुष्य को छोड़ते जाते हैं, दुख भी उनका अनुसरण करके धीरे धीरे नष्ट हो जाते है।