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कुरल-काव्य/परिच्छेद ४५ योग्य पुरुषों की मित्रता

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १९८ से – १९९ तक

 

 

परिच्छेद ४५
योग्य पुरुषों की मित्रता

करते करते धर्म जो, हो गये वृद्ध उदार।
उनका लेलो प्रेम तुम, करके भक्ति अपार॥१॥
आगे के या हाल के, जो हैं दुःख अथाह।
उनसे रक्षक के सखा, बनो सदा सोत्साह॥२॥
जिसे मिली वर मित्रता, पा करके सद्भाग्य।
निस्संशय उस विज्ञ का, हरा भरा सौभाग्य॥३॥
अधिकगुणी की मित्रता, जिसे मिली कर भक्ति।
उसने एक अपूर्व ही, पाली अद्भुत शक्ति॥४॥
होते हैं भूपाल के, मंत्री लोचनतुल्य।
इससे उनको राखिए, चुनकर ही गुणतुल्य॥५॥
सत्पुरुषों से प्रेममय, जिसका है व्यवहार।
उसका वैरी अल्प भी, कर न सके अपकार॥६॥
झिड़क सकें ऐसे सखा, प्रति दिन जिस के पास।
गौरव के उस गेह में, करती हानि न बास॥७॥
मंत्री के जो मंत्रसम, वचन न माने भूप।
बिना शत्रु उसका नियत, क्षय ही अन्तिमरूप॥८॥
जैसे पूंजी के बिना, मिले न धन का लाभ।
प्राज्ञों की प्रतिमा बिना, त्यों न व्यवस्थालाभ॥९॥
जैसे अखिल विरोध है, बुद्धिहीनता दोष।
सन्मैत्री का त्याग पर, उससे भी अतिदोष॥१०॥

 

परिच्छेद ४५
योग्य पुरुषों की मित्रता

१—जो लोग धर्म करते करते वृद्ध हो गये है उनकी तुम भक्ति करो तथा मित्रता प्राप्त करने का यत्न करो।

२—तुम जिन कठिनाइयों में फँसे हुए हो, उनको जो लोग दूर कर सकते हे और आने वाली बुराइयों से जो तुम्हें बचा सकते है उत्साहपूर्वक उनके साथ मित्रता करने की चेष्टा करो।

३—यदि किसी को योग्य पुरुषों की प्रीति और भक्ति मिल जाय तो यह महान् से महान् सौभाग्य की बात है।

४—जो लोग तुमसे अधिक योग्यता वाले है, वे यदि तुम्हारे मित्र बन गये है तो तुमने ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिसके सामने अन्य सब शक्तियाँ तुच्छ है।

५—मंत्री ही राजा की आँखे है, इसलिए उनके चुनने में बहुत ही समझदारी और चतुराई से काम लेना चाहिए।

६—जो लोग सुयोग्य पुरुषों के साथ मित्रता का व्यवहार रख सकते है, उनके वैरी उनका कुछ बिगाड़ न सकेंगे।

७—जिस आदमी को ऐसे लोगों की मित्रता का गौरव प्राप्त है कि जो उसे डांट-फटकार सकते है उसे हानि पहुँचाने वाला कौन है?

८—जो राजा ऐसे पुरुषों की सहायता पर निर्भर नही रहता कि जो समय पर उसको झिड़क सके, शत्रुओं के न रहने पर भी उसका नाश होना अवश्यम्भावी है।

९—जिनके पास मूल धन नहीं है, उनको लाभ नहीं मिल सकता, ठीक इसी तरह प्रामाणिकता उन लोगों के भाग्य में नहीं होती कि जो बुद्धिमानो की अविचल सहायता पर निर्भर नही रहते।

१०—बहुत से लोगों को शत्रु बना लेना मूर्खता है किन्तु सज्जन पुरुषों की मित्रता को छोड़ना उससे भी कही अधिक बुरा है।