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कुरल-काव्य/परिच्छेद ४७ विचार पूर्वक काम करना

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २०२ से – २०३ तक

 

 

परिच्छेद ४७
विचार पूर्वक काम करना

व्यय क्या अथवा लाभ क्या?, क्या हानि इस कार्य।
ऐसा पहिले सोच कर, करे उसे फिर आर्य॥१॥
ऐसों से कर मंत्रणा, जो उसके आचार्य।
राज्य करे उस भूप को, कौन असम्भव कार्य॥२॥
लालच दे बहुलाम का, करदे क्षय ही मूल।
बुध ऐसे उद्योग में, हाथ न डालें भूल॥३॥
हँसी जिसे भाती नहीं, करवानी निजनाम।
बिना विचारे वह नहीं, करता बुध कुछ काम॥४॥
स्वयं न सज्जित युद्ध को, पर जूझे कर टेक।
करता वह निज राज्य पर, मानों अरि अभिषेक॥५॥
अनुचित कार्यों को करे, तब हो नर का नाश।
योग्यकर्म यदि छोड़दे, तो भी सत्यानाश॥६॥
बिना विचारे प्राज्ञगण, करे न कुछ भी काम।
करके पीछे सोचते, उनकी बुद्धि निकाम॥७॥
नीतिमार्ग को त्याग जो, करना चाहे कार्य।
पाकर भी साहाय्य बहु, निष्फल रहे अनार्य॥८॥
नरस्वभाव को देखकर, करो सदा उपकार।
चूक करे से अन्यथा, होगा दुःख अपार॥९॥
निन्दा से जो सर्वथा शून्य, करो वे काम।
कारण निन्दित काम से, गौरव होता श्याम॥१०॥

 

परिच्छेद ४७
विचारपूर्वक काम करना

१—पहिले यह देखलो कि इस काम में लागत कितनी लगेगी, कितना माल खराब जायगा और लाभ इसमे कितना होगा, पीछे उस काम को हाथ में लो।

२—देखो, जो राजा सुयोग्य पुरुषों से सलाह करने के पश्चात् ही किसी काम को करने का निर्णय करता है उसके लिए ऐसी कोई बात नहीं है जो असम्भव हो।

३—ऐसे भी उद्योग है जो नफे का हरा भरा बाग दिखा कर अन्त में मूलधन को नष्ट कर देते है, बुद्धिमान् लोग उनमें हाथ नहीं लगाते।

४—जो लोग यह नहीं चाहते कि दूसरे आदमी उन पर हँसे वे पहिले अच्छी तरह से विचार किये बिना कोई काम प्रारम्भ नहीं करते।

५—सब बातों की अच्छी प्रकार मोर्चाबन्दी किये बिना ही लड़ाई छेड़ देने का अर्थ यह है कि तुम शत्रु को पूरी सावधानी के साथ तैयार की हुई भूमि पर लाकर खड़ा कर देते हो।

६—कुछ काम ऐसे हैं कि जिन्हें नहीं करना चाहिए और यदि तुम करोगे तो नष्ट हो जाओगे तथा कुछ काम ऐसे है कि जिन्हें करना ही चाहिए, यदि तुम उन्हें न करोगे तो भी मिट जाओगे।

७—भली रीति से पूर्ण विचार किये बिना किसी काम को करने का निश्चय मत करो। वह मूर्ख है जो काम प्रारम्भ कर देता है और मनमे कहता है कि पीछे सोच लेंगे।

८—जो योग्यमार्ग से काम नहीं करता उसका सारा परिश्रम व्यर्थ जावेगा, चाहे उसकी सहायता के लिए कितने ही आदमी क्यों न आ जायँ।

९—जिसका तुम उपकार करना चाहते हो, उसके स्वभाव का यदि तुम ध्यान न रक्खोगे तो तुम भलाई करने में भी भूल कर सकते हो।

१०—तुम जो काम करना चाहते हो वह सर्वथा अपवाद रहित होना चाहिए, क्योंकि जगत में उसका अपमान होता है जो अपने पद के अयोग्य काम करने पर उतारू हो जाता है।