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कुरल-काव्य/परिच्छेद ४ धर्म-महिमा

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ११६ से – ११७ तक

 

 

परिच्छेद ४
धर्म-महिमा

धर्म भिन्न फिर कौन है, कहो सुधी कल्याण।
जिससे मिलता स्वर्ग है, तथा कठिन निर्वाण॥१॥
धर्म तुल्य इस लोक में, अन्य न कुछ भी श्रेय।
और न उसके त्याग सम, अन्य अधिक अश्रेय॥२॥
सत्कर्मों को विज्ञजन, कहते सुख की खान।
यथाशक्ति उत्साह से, करो सतत धीमान्॥३॥
अपने मन की शुद्धि ही, धर्मों का सब सार।
शब्दाडम्बर मात्र हैं, वृथा अन्य व्यापार॥४॥
क्रोध लोभ के साथ में, त्यागो ईर्ष्या, मान।
मिष्टवचन-भाषी बनो, यही धर्म-सोपान॥५॥
आज काल को छोड़कर, अब ही कर तू धर्म।
मृत्यु समय भी साथ दे, परम मित्र यह धर्म॥६॥
धर्म किये क्या लाभ है, यह मत पूछो बात।
देखो नृप की पालकी, बाहक-गण ले जात॥७॥
धर्मशून्य जाता नहीं, जिसका दिन भी एक।
बन्द किया भवद्वार ही, उसने हो सविवेक॥८॥
धर्मजन्य सुख को कहें, सच्चा सुख धीमान्।
और विषय सुख को कहें, लज्जा दुःखनिदान॥९॥
जिसका साथी धर्म है, करो सदा वह काम।
जिसके साथ अधर्म है, छोड़ो उसका नाम॥१०॥

 

परिच्छेद ४
धर्म-महिमा

१—धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है और उससे स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है, फिर भला, धर्म से बढ़कर, लाभदायक वस्तु और क्या है।

२—धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है।

३—सत्कर्म करने में तुम लगातार लगे रहो, अपनी पूरी शक्ति और पूर्ण उत्साह के साथ उन्हें करते रहो।

४—अपना अन्त करण पवित्र रक्खो, धर्म का समस्त सार बस एक इसी उपदेश में समाया हुआ है, अन्य सब बातें और कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र हैं।

५—ईर्ष्या, लालच, क्रोध और अप्रिय बचन, इन सबसे दूर रहो, धर्म-प्राप्ति का यही मार्ग है।

६—यह मत सोचो कि मैं धीरे धीरे धर्म-मार्ग का अवलम्बन करूणा, किन्तु अभी बिना बिलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो क्योकि धर्म ही वह वस्तु है जो मृत्यु के समय तुम्हारा साथ देने वाला, अमर मित्र होगा।

७—मुझसे यह मत पूछो कि धर्म करने से क्या लाभ है? बस एक बार पालकी उठाने वाले कहारों की ओर देख लो और फिर उस आदमी को देखो, जो उसमे सवार है।

८—यदि तुम, एक भी दिन व्यर्थ नष्ट किये बिना, समस्त जीवन सत्कर्म करने में बिताते हो तो तुम आगामी जन्मों का मार्ग बन्द किये देते हो।

९—केवल धर्म-जनित सुख ही वास्तविक सुख है, शेष सब तो पीड़ा और लज्जा-मात्र है।

१०—जो काम धर्मसङ्गत है, बस वही कार्यरूप में परिणत करने योग्य है। दूसरी जितनी बाते धर्मविरुद्ध है, उनसे दूर रहना चाहिए।