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कुरल-काव्य/परिच्छेद ६३ संकट में धैर्य

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २३४ से – २३५ तक

 

 

परिच्छेद ६३
संकट में धैर्य

करो हँसी से सामना, जब दे विपदा त्रास।
विपदाजय को एक ही, प्रवल सहायक हास॥१॥
अस्थिर भी एकाग्र हो, लेलेता जब चाय।
क्षुब्ध जलधि भी दुःख का, दबजाता तब आप॥२॥
विपदा को वियदा नहीं, माने जब नर आप।
विपदा में पड़ लौटती, विपदाएँ तब आप॥३॥
करे विपद का सामना, भैंसासम जी-तोड़।
तो उसकी सब आपदा, हटतीं आशा छोड़॥४॥
विपदा की सैना बड़ी, खड़ी सुसज्जित देख।
नही तजै जो धैर्य को, डरें उसे वे देख॥५॥
किया न उत्सव गेह में, जब था निजसौभाग्य।
तब कैसे वह बोलता, हा आया 'दुर्भाग्य'॥६॥
विज्ञ स्वयं यह जानते, विपदागृह है देह।
विपदा में पड़कर तभी, बने न चिन्ता गेह॥७॥
अटल नियम में सृष्टि के, गिनता है जो दुःख।
उस अविलासी धीर को, बाधा से क्या दुःख॥८॥
वैभव के वर-लाभ में, जिसे न अति आह्लाद।
होगा उसके नाश में, क्योंकर उसे विषाद॥९॥
श्रम दवाव या वेग में, माने जो नर मोद।
फैलाते उस धीर की, अरि भी गुण-आमोद[]॥१०॥

 

परिच्छेद ६३
संकट में धैर्य

१—जब तुम पर कोई आपदा आ पड़े तो तुम हंसते हुए उसका सामना करो क्योकि मनुष्य को आपत्ति का सामना करने के लिए सहायता देने मे मुस्कान से बढ़कर और कोई वस्तु नही है।

२—अनिश्चित मन का पुरुष भी मन को एकाग्र करके जब सामना करने को खड़ा होता है तो आपत्तियों का लहराता हुआ सागर भी दबकर बैठ जाता है।

३—आपत्तियों को जो आपत्ति नही समझते, वे आपत्तियों को ही आपत्ति में डालकर वापिस भेज देते है।

४—भैसे की तरह हर एक संकट का सामना करने के लिए जो जी तोड़कर श्रम करने को तैयार है, उसके सामने विघ्न-बाधा आयँगी पर निराश होकर अपना सा मुँह लेकर वापिस चली जायेंगी।

५—आपत्ति की एक समस्त सेना को अपने विरुद्ध सुसज्जित खड़ी देखकर भी जिसका मन बैठ नहीं जाता, वाधाओं को उसके पास आने में स्वयं वाधा होती है।

६—सौभाग्य के समय जो हर्ष नहीं मनाते क्या वे कभी इस प्रकार का दुखौना कहते फिरेगे कि हाय! हम नष्ट हो गये।

७—बुद्धिमान् लोग जानते है कि यह देह तो विपत्तियों का घर है और इसीलिए जब उन पर कोई संकट आ जाता है तो वे उसकी कुछ पर्वाह नहीं करते।

८—जो आदमी भोगोपभोग की लालसा में लिप्त नहीं और जो जानता है कि आपत्तिया भी सृष्टि-नियम के अन्तर्गत है, वह वाधा पड़ने पर कभी दुखित नहीं होता।

९—सफलता के समय जो हर्ष में मग्न नहीं होता, असफलता के समय उसे दुख से घबराना नही पड़ता।

१०—जो आदमी परिश्रम के दुख, दबाव और आवेग को सच्चा सुख समझता है उसके वैरी भी उसकी प्रशंसा करते है।

  1. सुगन्धि।