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कुरल-काव्य/परिच्छेद ६५ वाक्-पटुता

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २३८ से – २३९ तक

 

 

परिच्छेद ६५
वाक्-पटुता

वाक् पटुता भी एक है, बड़ा मधुर वरदान।
नहीं किसी का अंश वह, है स्वतंत्र वरदान॥१॥
जिह्वा में करते सदा, जीवन मृत्यु निवास।
इससे बोलो सोचकर, वाणी बुध सोल्लास॥२॥
बढ़ै और भी मित्रता, सुन जिसका परमार्थ।
शत्रुहृदय भी खींचले, वाणी वही यथार्थ॥३॥
पूर्व हृदय में तौल ले, वाणी पीछे बोल।
धर्मबुद्धि इससे मिले, होवें लाभ अमोल॥४॥
वाणी वह ही बोलिए, जो सब की हितकार।
कटे नहीं जो अन्य से, पाकर वाद-प्रहार॥५॥
मन खीचे दे वक्तृता, द्रुत समझे परभाव।
वह नर ही नृपनीति में, रखता अधिक प्रभाव॥६॥
व्याप्त न होता बाद में, जिसको भीति-विकार।
सद्वक्ता उस धीर की, कैसे सम्भव हार॥७॥
वाणी जिसकी ओजमय, परिमार्जित विश्पास्य।
उस नर के संकेत पर, करती वसुधा लास्य[]॥८॥
परिमित शब्दों में नहीं, जिसे कथन का ज्ञान
उस में ही होती सदा, बहुभाषण की वान॥९॥
समझा कर जो अन्य को, कह न सके निजज्ञान
गन्धहीन वह फूलसम, होता नर है भान॥१०॥

 

परिच्छेद ६५
वाक् पटुता

१—वाक्-शक्ति निःसन्देह एक बड़ा वरदान है, क्योकि वह अन्य वरदानों का अंश नहीं किन्तु एक स्वतन्त्र वरदान है।

२—जीवन और मृत्यु जिह्वा के वश में है, इसलिए ध्यान रक्खो कि तुम्हारे मुँह से कोई अनुचित बात न निकले।

३—जो वक्तृता मित्रों को और भी धनिष्ठता के सूत्र में आबद्व करती है और विरोधियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है, बस वही यथार्थ वक्तृता है।

४—हर एक बात को ठीक तरह से तौल कर देखो और फिर जो उचित हो वही बोलो, धर्मवृद्धि तथा लाभ की दृष्टि से इससे बढ़कर उपयोगी बात तुम्हारे पक्ष में और कोई नहीं है।

५—तुम ऐसी वक्तृता दो कि जिसे दूसरी कोई वक्तृता चुप न कर सके।

६—ऐसी वक्तृता देना कि जो श्रोताओं के हृदय को खींचले और दूसरों की वक्तृता के अर्थ को शीघ्र ही समझ जाना यह पक्के राजनीतिज्ञ का कर्तव्य है।

७—जो आदमी सुवक्ता है और जो गड़बड़ाना या डरना नहीं जानता, विवाद में उसको हरा देना किसी के लिए संभव नहीं।

८—जिसकी वक्तृता परिमार्जित और विश्वासोत्पादक भाषा से सुसज्जित होती है सारी पृथ्वी उसके संकेत पर नाचेगी।

९—जो लोग अपने मन की बात थोड़े से चुने हुए शब्दों में कहना नही जानते वास्तव में उन्ही को अधिक बोलने की आदत होती है।

१०—जो लोग अपने प्राप्त किये हुए ज्ञान को समझा कर दूसरों को नहीं बता सकते वे उस फूल के समान है जो खिलता है परन्तु सुगन्धि नहीं देता।

  1. नृत्य।