कुरल-काव्य/परिच्छेद ६९ राज-दूत

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परिच्छेद ६९
राज-दूत

जन्मा हो वर-वंश में मन से दयानिधान।
नृपमण्डल को मोद दे दूत वही गुणवान॥१॥
स्वामि-भक्ति, प्रज्ञाप्रखर, भाषण कलाअधान।
दूनों में ये तीन गुण, होते बहुत महान॥२॥
प्रभुहित का जिसने लिया, नृरमण्डल में भार।
प्राज्ञों में वह प्राज्ञ हो, वचन सुधामय सार॥३॥
मुखमुद्रा जिसकी करे, नर पर अधिक प्रभाव।
उस बुध का दूतत्व पर, दिखना योग्य चुनाव॥४॥
दूत सदा संक्षेप में, कहकर साधे काम।
अप्रिय-वाणी त्याग कर, बोले वचन ललाम॥५॥
विद्वत्ता समयज्ञता, चाणी भरी-प्रभाव।
आशुबुद्धि ये दूत में, गुण रखते सद्भाव॥६॥
स्थान समय कर्तव्य की, जिसको है पहिचान।
बोले पहिले सोचकर, वह ही दूत महान॥७॥
जो स्वभाव से लोक में, हृदयाकर्षक आर्य।
दृढ़प्रतिज्ञ वह विज्ञ ही करे दूत के कार्य॥८॥
कहे न अनुचित बात जो, पाकर भी आवेश।
ले जावे परराष्ट्र में, वह ही नृपसन्देश॥९॥
नहीं हटे कर्तव्य से, रख संकट में प्राण।
लाख यत्न से दूतवर, करता प्रभुहित त्राण॥१०॥

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परिच्छेद ६९
राज-दूत

१—दयालु हृदय, उच्च कुल और राजाओं को प्रसन्न करने की रीतियाँ ये सब राज-दूतों की विशेषताएँ है।

२—स्वामिभक्ति, सुतीक्ष्णबुद्धि और वाक्-पटुता ये तीनों बाते राज- दूत के लिए अनिवार्य है।

३—जो मनुष्य राजाओं के समक्ष अपने स्वामी को लाभ पहुँचाने वाले शब्दों को बोलने का भार अपने शिर लेता है उसे विद्वानों में परमविद्वान होना चाहिए।

४—व्यावहारिक ज्ञान, विद्वत्ता और प्रभावोत्पादक मुखमुद्रा ये बातें जिसमे हों उसी को राज-दूत के नाम पर बाहिर जाना चाहिए।

५—संक्षिप्त वक्तृता, वाणी की मधुरता और सावधानी के साथ अप्रिय-भाषा का त्याग, ये ही साधन है जिनके द्वारा राज-दूत अपने स्वामी को लाभ पहुँचाता है।

६—विद्वता, प्रभावोत्पादक वक्तृता शान्तवृत्ति और समयसूचकता प्रगट करने वाली सुसयत प्रत्युत्पन्नमति, ये सब राज-दूत के आवश्यक गुण है।

७—वही सबसे योग्य राज-दूत है जिसको समुचित क्षेत्र और समुचित समय की परख है, जो अपने कर्तव्य को जानता है तथा जो बोलने से पहिले अपने शब्दों को जाँच लेता है।

८—जो मनुष्य दूत कर्म के लिए भेजा जाय वह दृढ़-प्रतिज्ञ-पवित्र-हृदय और चित्ताकर्षक स्वभाव वाला होना चाहिए।

९—जो दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष अपने मुख से हीन और अयोग्य वचन कभी नही निकलने देता विदेशी दरवारों में राजाओं के सन्देश सुनाने के लिए वही योग्य पुरुष है।

१०—मृत्यु का सामना होने पर भी सच्चा राज-दूत अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होता बल्कि अपने स्वामी के कार्य की सिद्धि के लिए पूरा यत्न करता है।