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कुरल-काव्य/परिच्छेद ७६ धनोपार्जन

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २६० से – २६१ तक

 

 

परिच्छेद ७६
धनोपार्जन

धन भी अद्भुत वस्तु है उस सम अन्य न द्रव्य।
बनता जिससे रंक भी, धन्य प्रतिष्ठित भव्य॥१॥
निर्धन का सर्वत्र ही होता है अपमान।
धनशाली पर विश्व में, पाता है सन्मान॥२॥
धन भी है इस लोक में, एक अखण्ड प्रकाश।
तम में वह भी चन्द्रसम, करता नित्य उजाश॥३॥
शुद्धरीति से आय हो, न्याय तथा हो प्रोत।
तो धन से बहते सदा, पुण्यसुखद वर स्रोत॥४॥
जिस धन में करुणा नहीं, और न प्रेमनिवास।
उसका छूना पाप है, इच्छा विपदाग्रास॥५॥
दण्ड, मृतक, कर, युद्ध धन, विविध शुल्क की आय।
भूष-कोष की वृद्धि में, ये हैं पाँच सहाय॥६॥
है दयालुता प्रेम की, संतति स्वर्ग-उपाय।
पालन को करुणा भरी, सम्पद उसकी धाय॥७॥
धनिक न होवे कार्य रच, चिन्ता में अवरुद्ध।
वह देखे गिरिशृङ्ग से, मानो गज का युद्ध॥८॥
रिपुजय की यदि चाह नो करलो सञ्चित अर्थ।
कारण जय को एक ही, यह है शस्त्र समर्थ॥९॥
संचित है जिसने किया, पौरुष से प्रचुरार्थ।
कलयुग में उसके धरे, शेष युगल पुरुषार्थ॥१०॥

 

परिच्छेद ७६
धनोपार्जन

१—अप्रसिद्ध और अप्रतिष्ठित लोगों को प्रसिद्ध तथा प्रतिष्ठित बनाने में धन जितना समर्थ है, उतना और कोई पदार्थ नही।

२—गरीबों का सभी अपमान करते हैं, पर धनसमृद्ध की सभी जगह अभ्यर्थना होती है।

३—वह अविश्रान्त ज्योति जिसे लोग धन कहते है, अपने स्वामी के लिए सभी अन्धकारमय स्थानों को ज्योत्स्नापूर्ण बना देती है।

४—जो धन पाप रहित निष्कलंक रूप से प्राप्त किया जाता है, उससे धर्म और आनन्द का स्रोत बह निकलता है।

५—जो धन, दया और ममता से रहित है, उसकी तुम कभी इच्छा मत करो और उसको कभी अपने हाथ से छुओ भी मत।

६—दण्ड द्रव्य, बिना वारिस का धन, कर का माल, लगान की सम्पत्ति और युद्ध में प्राप्त धन ये सब राजकोष की वृद्धि करने वाले हैं।

७—दयालुता, जो प्रेम की सन्तति है, उसका पालन पोषण करने के लिए सम्पत्ति रूपिणी दयाहृदया धाय की आवश्यकता है।

८—देवो धनवान् आदमी जब अपने हाथ में काम लेता है तो वह उस मनुष्य के समान मालूम होता है कि जो एक पहाड़ की चोटी पर से हाथियों की लड़ाई देखता है।

९—धन का संचय करो क्योंकि शत्रु का गर्व चूर करने के लिए उससे बढ़कर दूसरा हथियार नहीं है।

१०—देखो जिसने बहुत सा धन एकत्रित कर लिया है, शेष दो पुरुषार्थ धर्म और काम उसके करतलगत है।