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कुरल-काव्य/परिच्छेद ८१ घनिष्ट मित्रता

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २७० से – २७१ तक

 

 

परिच्छेद ८१
घनिष्ट मित्रता

मैत्री वही घनिष्ट है, जिम में दो अनुरूप।
आत्मा को अर्पण करें, प्रेमी को रुचिरूप॥१॥
बुधसम्मत बह मित्रता, जिसमें यह वर्ताव।
स्वाश्रित दोनों पक्ष हों, रखें न साथ दवाव॥२॥
मित्रवस्तु पर मित्र का, दिखे नहीं कुछ स्वत्व।
तो मैत्री किस मूल्य की और रखे क्या तत्व॥३॥
बिना लिये ही राय कुछ, कर लेवे यदि मित्र।
तो प्रसन्न होता अधिक, सचमुच गाढा मित्र॥४॥
कष्ट मिले यदि मित्र से, तो उसका भावार्थ।
या तो वह अज्ञान है, या मैत्री सत्यार्थ॥५॥
एकहदय सन्मित्र का, सच्चे तजें न साथ।
नाशहेतु होवे भले, चाहे उसका साथ॥६॥
जिस पर है चिरकाल से, मन में अति अनुराग।
करदे यदि वह हानि तो, होता नहीं विराग॥७॥
मित्र नहीं सन्मित्र पर, सहता दोषारोप।
फूले उसदिन मित्र जत्र, हरले अरि आटोप॥८॥
जिसके हृदयहिमाद्रि से, प्रेमसिन्धु की धार।
बहे निरन्तर एकसी, उसे विश्व का प्यार॥९॥
चिरमित्रों के साथ भी, शिथिल न जिसका प्रेम।
ऐसे मानवरत्न को, अरि भी करते प्रेम॥१०॥

 

परिच्छेद ८१
घनिष्ट मित्रता

१—वही मैत्री घनिष्ट है जिसमे अपने प्रीतिपात्र की मर्जी के अनुकूल व्यक्ति अपने को समर्पित करदे।

२—सच्ची मित्रता वही है जिसमे मित्र आपस में स्वतंत्र रहे और एक दूसरे पर दबाव न डाले। विज्ञजन ऐसी मित्रता का कभी भी विरोध नही करते।

३—वह मित्रता किस काम की, जिसमे मित्रता के नाम पर ली गई किसी काम की स्वतन्त्रता में सहमति न हो।

४—जब कि दो व्यक्तियों में प्रगाढ़ मैत्री है उनमे से एक दूसरे की अनुमति के बिना ही कोई काम कर लेता है तो दूसरा मित्र आपस के प्रेम का ध्यान करके उससे प्रसन्न ही होगा।

५—जब कोई मित्र ऐसा काम करता है जिसमे तुम्हे कष्ट होता है तो समझ लो कि वह मित्र तुम्हारे साथ या तो परिपूर्ण मैत्री का अनुभव करता है या फिर अज्ञानी है।

६—सच्चा मित्र अपने अभिन्न मित्र को नहीं छोड़ सकता, भले ही वह उसके विनाश का कारण क्यो न हो।

७—जो व्यक्ति किसी को हृदय से और दीर्घकाल से प्रेम करता है वह अपने मित्र को घृणा नही कर सकता, भले ही वह उसे बार बार हानि क्यों न पहुँचाता हो।

८—उन व्यक्तियों के लिए जो अपने अभिन्न मित्र के विरुद्ध किसी प्रकार का आरोप सुनने से इनकार कर देते है, वह दिवस बड़ा आनन्दप्रद होता है जब कि उसका मित्र आरोपकों को हानि पहुँचाता है।

९—जो व्यक्ति दूसरे को अटूट प्रेम करता है उसे सारा संसार प्रेम करता है।

१०—जो व्यक्ति पुराने मित्रों के प्रति भी अपने प्रेम में अन्तर नहीं आने देते उन्हें शत्रु भी स्नेह की दृष्टि से देखते है।