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कोविद-कीर्तन/७ मौलाना मुहम्मद ज़काउल्लाह

विकिस्रोत से
कोविद-कीर्तन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १०३ से – १०८ तक

 

७--खानबहादुर, शम्सुल्-उल्मा, मौलाना मुहम्मद ज़काउल्लाह

हाल मे हमारे एक मित्र ने एक किताब लिखी है। उसकी भूमिका मे उन्होंने लिखा है कि अब हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक पैदा हो गये हैं। इसका क्या मतलब है, मालूम नही। हमारी राय मे तो हिन्दी मे अभी कुछ भी नहीं है। टूटे-फूटे शब्दो मे हम जैसे दो-चार आदमी जो हिन्दी लिखते हैं उनसे काम ही कितना हो सकता है। दस-पाँच बूँद डाल देने से एक छोटा सा घडा भी नही भर सकता, समुद्र भरने का तो ज़िक्र ही नही। हिन्दी मे अभी है ही क्या ? उसका मैदान बिलकुल ही खाली पड़ा है। जिस भाषा को हम लोग देशव्यापक भाषा बनाना चाहते हैं उसकी इतनी दरिद्रता देखकर दुःख होता है। जब हम हिन्दी के साहित्य का मुकाबला उर्दू से करते हैं तब यह दुःख दूना-चौगुना हो जाता है। इसका दोष किसके सिर है? हमारे ही न! यदि हम चाहें तो बहुत जल्द इसका इलाज हो सकता है। पर हम चाहते ही नहीं। अकेले इस सूबे में हजारों आदमी ऐसे हैं जो अच्छी तरह हिन्दी लिख-पढ़ सकते हैं, अथवा बहुत थोड़े प्रयत्न से वे अच्छे लेखक बन सकते हैं। पर नहीं बनना

चाहते। उनकी शिकायत है कि उन्हे समय नही---अवकाश नही। जो लोग सरकारी मुलाज़िम हैं उनकी समय-सम्बन्धी शिकायत की तो कुछ पूछिए ही नही। औरों की हम नही कह सकते, पर जो लोग शिक्षा विभाग मे कर्मचारी हैं क्या उनको भी समय नहीं मिलता? जी हाँ, उन्हें भी समय नहीं मिलता। वे भी सरकारी काम की चक्की मे पीसे जाते हैं। कहते तो वे यही हैं। आर० सी० दत्त को कलेक्टरी और कमिश्नरी का काम करके किताबें लिखने के लिए समय मिल जाता था। बङ्किम बाबू को डिपुटी मैजिस्ट्रेटी करके भी साहित्य-सेवा के लिए समय मिलता था। विन्सेंट स्मिथ, ग्रियर्सन, ड्यू हस्र्ट आदि बड़े-बड़े अँगरेज-कर्मचारियों को भी समयाभाव की शिकायत नही करनी पड़ी। उनके अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ इसका साक्ष्य दे रहे हैं। परन्तु हमारे स्कूलो और कालेजों के अध्यापकों और शिक्षाविभाग के अन्यान्य कर्मचारियो को एक मिनट की भी फुरसत नही। अपने मद्दाह मुदर्रिसों और मातहतों से घिरे आप घण्टों बैठे फिजूल बातें किया करेगे, पर हिन्दी लिखने के लिए आपको कभी समय नहीं मिलता। कालेजों के संस्कृत-प्रोफेसरों को बहुत ही कम काम पड़ता है, परन्तु बेचारी हिन्दी पर उन्हे भी दया नही आती। उनमे से कुछ महाशय यह उज्र पेश करते हैं कि हिन्दी हमारी मातृभाषा नही। अच्छा तो आप अपनी मातृभापा ही मे कुछ लिख डालने की कृपा करते। सो भी तो आपने नही

किया। जिस भाषा को आपने अपनी माँ का स्तन्य-पान करते समय सीखा और जिसमे आप सदा अपने माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-कलत्र से बाते करते हैं वह भाषा आपको नहीं आती! कभी अगर कोई भाषा लिखना आपको आ जाता है, तो वह छः हज़ार मील दूर के एक टापू की भाषा है। बरसों सिरखपी करके और N-o No, S-o So, रटकर जिसका आपने अभ्यास किया उसमे आप कभी-कभी कुछ लिख देते हैं तो लिख देते हैं। परन्तु उसमे भी आप ऐसी बाते लिखते हैं जिन्हें केवल आप ही के जैसे दो-चार आचार्य और उपाध्याय समझ सकते हैं, सभी अँगरेज़ी जाननेवाले नहीं। इस दशा मे हिन्दी की उन्नति क्या ख़ाक हो सकती है। समयाभाव की शिकायत बिलकुल ही निर्मूल है। इच्छा होने पर बहुत समय मिल सकता है। दस मिनट रोज़ निकालने से महीने मे पॉच घण्टे होते हैं। इतने समय मे एक छोटा ही सा लेख सही। पर आप कुछ न करेंगे। जब आपको अपने बने-बिगड़े की परवा ही नही तब आपको क्यों कभी समय मिलेगा और आप जिस हिन्दी को पैशाची भाषा से भी अधिक क्लिष्ट समझ रहे हैं उसमे लिखना सीखने की चेष्टा भी आप क्यों करेगे। ख़ैर! आज आप एक ऐसे लेखक की दो-चार बाते सुन लीजिए जो म्यूर-सेन्ट्रल कालेज मे बहुत बरसों तक अरबी-फ़ारसी के प्रोफेसर रहे। तिस पर भी उन्हे अपनी मातृभाषा मे किताबे और लेख लिखने के लिए

समय मिल गया। उन्होंने कभी इस बात की लज्जाजनक शिकायत नही की कि मुझे अपनी माँ की बोली बोलना या लिखना नहीं आता। उनका नाम है---ज़काउल्लाह। उनका शरीरपात हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ।

मौलवी ज़काउल्लाह की जन्मभूमि देहली है। वही के कालेज से उन्होंने शिक्षा पाई थी। शिक्षाप्राप्ति के बाद आप उसी कालेज में गणित के अध्यापक हो गये। वहाँ से आपकी बदली आगरा-कालेज को हुई। वहाँ आप अरबी-फारसी पढ़ाते रहे। सात वर्षों तक यह काम आपने किया। तदनन्तर आप स्कूलों के डिपुटी इन्सपेक्टर हुए। इस ओहदे पर आप ग्यारह वर्षों तक रहे। १८६९ मे आप देहली के नार्मल स्कूल के हेडमास्टर हुए। तीन वर्ष बाद आपको इलाहाबाद के म्यूर-कालेज मे जगह मिली। वहाँ आप पन्द्रह वर्षों तक अरबी और फ़ारसी पढ़ाते रहे। इसके बाद आपने पेन्शन ले ली। उसका उपभोग आपने कोई चौबीस वर्षों तक किया।

जकाउल्लाह साहब ने उर्दू के साहित्य को अपनी बनाई हुई सैकड़ों किताबों से भर दिया। बहुत थोड़ी उम्र ही से आपको लिखने का शौक हुआ था। आपने सरकारी काम करके अवशिष्ट अवकाश को कभी व्यर्थ नहीं जाने दिया। पेन्शन लेने के बाद तो आप इस तरह साहित्य के काम मे जुट गये कि कितने ही बड़े-बड़े और अनमोल ग्रन्थ आपने लिख डाले। इतिहास और गणित से आपको बड़ा प्रेम था।
परन्तु इन्हीं दो विषयों पर नही, और भी कितने ही विषयों पर आपने पुस्तक-रचना की। सम्पत्तिशास्त्र एक बहुत ही गहन और रूखा विषय है। पर उस पर भी आपने किताबें लिखी और ऐसे समय मे लिखीं जब इस विषय की प्राय: बिलकुल ही चर्चा इन प्रान्तो मे न थी। यदि यह कहा जाय कि आप उर्दू के सबसे बड़े लेखक थे तो कोई अत्युक्ति न होगी। आपकी विद्वत्ता को देखकर गवर्नमेट ने आपको शम्सुल्-उल्मा की पदवी दी। गणितशास्त्र पर आपने जो किताबें लिखी हैं उनके उपलक्ष मे गवर्नमेट ने डेढ़ हज़ार रुपया इनाम भी आपको दिया। खॉ बहादुर का खिताब भी आपको मिला। आप इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के फेलो भी थे।

मौलवी ज़काउल्लाह ने छत्तीस वर्षों तक तो सरकारी नौकरी की और चौबीस वर्षों तक पेन्शन लेकर घर बैठे। आपने सब मिलाकर कोई डेढ़ सौ किताबें लिखी। अकेले गणित-विषय पर आपने ८७ किताबे लिख डाली। भूगोल और इतिहास पर आपने १७ किताबे लिखी। शेष किताबे और-और विषयो पर आपने लिखी। दस-पाँच किताबो को छोड़कर आपकी और सब किताबे प्रकाशित हो गई हैं। किसी-किसी की तो अनेक आवृत्तियाँ हो चुकी हैं। जो कुछ आपने लिखा प्रायः उर्दू ही मे लिखा। आप चतुरस्र विद्वान् थे। कोई विषय ऐसा न था जिसमे आपकी गति न हो।

आपका सबसे बड़ा और सबसे अधिक महत्त्व का ग्रन्थ

भारतवर्ष का इतिहास ( तारीखे हिन्दोस्तान ) है। इसकी तेरह जिल्दे हैं। बड़ी खोज से यह लिखा गया है। हिन्दी के पक्षपाती हम हिन्दुओं को यह सुनकर, यदि और कुछ न बन पड़े तो, क्षण भर के लिए अपना सिर ही नीचा कर लेना चाहिए। ब्रिटिश गवर्नमेट का इतिहास भी इन्होने तीन जिल्दो मे लिखा है। महारानी विक्टोरिया का जीवनचरित जो इन्होंने लिखा है वह भी बड़े विस्तार से लिखा गया है और बहुत अच्छा समझा जाता है। मरने के पहले आप एक और बहुत बड़े काम में लगे थे। आप मुसल्मानों का एक इतिहास लिख रहे थे। पर वह पूरा न हो पाया।

मौलवी साहब की बनाई हुई हिसाब की किताबे बहुत बरसों तक इन प्रान्तों और पञ्जाब के सरकारी स्कूलों में जारी रह चुकी हैं। इनकी उर्दू रीडरे भी बहुत समय तक "कोर्स" मे थी।

इतनी किताब लिखकर भी मौलवी जकाउल्लाह साहब को उर्दू के अखबारों और मासिक पुस्तकों में लेख लिखने के लिए भी समय मिल जाता था। इनके लिखे हुए दस-पाँच नही, हजारों लेख निकले होंगे।

पाठक, आइए, हम और आप दोनों मिलकर परमेश्वर से प्रार्थना करे कि वह एक-आध हिन्दी लिखनेवाला भी ऐसा ही प्रोफेसर पैदा करके हिन्दी पर दया दिखावे। अथवा वर्तमान प्रोफसरों और अध्यापकों की रुचि ही को हिन्दी की तरफ झुका दे।

[ अप्रेल १९११

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