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कोविद-कीर्तन/९ इच्छाराम सूर्य्यराम देसाई

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ११४ से – ११८ तक

 


उन्होंने अपना एक स्वतन्त्र पत्र निकालने का सड्क्ल्प किया। यह सड्क्ल्प उन्होंने बहुत जल्द कार्य मे परिणत कर दिखाया।

सन् १८७८ ईसवी के फरवरी महीने से इच्छारामजी 'स्वतन्त्रता' नाम की मासिक पत्रिका निकालने लगे। यह पत्रिका बम्बई से नहीं, सूरत से, निकली। इसमे कभी-कभी बड़े कड़े लेख प्रकाशित होते थे। इसके दूसरे ही अङ्क में लार्ड लिटन की गवर्नमेट द्वारा लगाये हुए 'लाइसेन्स टैक्स' नामक कर के विषय में एक बड़ा ही तीव्र-समालोचनात्मक लेख छपा। दुर्भाग्य से उसी समय सूरत में बलवा हो गया। अधिकारियों ने समझा कि इस लेख ही के कारण यह बलवा हुआ है। अतएव बेचारे इच्छाराम, अपने सात साथियों समेत, राज-विद्रोह के अपराध में गिरफ्तार किये गये। सौभाग्य से बलवेवाले दिन वे बम्बई मे थे। इसलिए पकड़े जाने के बाद ही वे तुरन्त जमानत पर छोड़ दिये गये। परन्तु एक को छोड़कर उनके अन्य साथी न छोड़े गये। अतएव इच्छाराम उनकी पैरवी करने लगे। इस पर सरकारी आज्ञा से वे दुबारा गिरफ़्तार किये गये। उनका मुकद्दमा कोई छः महीने तक चलता रहा। उन्होने बम्बई के विख्यात वारिस्टर सर फीरोज़शाह मेहता को अपना वकील बनाया। कहते हैं कि मेहता महाशय ने इस मुकद्दमे की पैरवी खूब जी-जान लड़ाकर की। इससे उनकी कानूनी योग्यता की धाक बैठ गई और केवल बम्बई प्रान्त हो में नहीं, किन्तु सारे भारत मे उनका

नाम हो गया। अस्तु। अन्त मे सत्य की जीत हुई। अपने साथियों सहित इच्छाराम, निर्दोपी प्रमाणित होकर, छूट गये। परन्तु इस मुकद्दमे मे ख़र्च वहुत अधिक पड़ा । इच्छाराम तथा अन्य अभियुक्तो के सब मिलाकर कोई पचासी हज़ार रुपये खर्च हो गये। कुछ भी हो, इस घटना से सर्व-साधारण को यह निश्चय हो गया कि देसाई महाशय कितने दृढ़-प्रतिज्ञ तथा धुन के कितने पक्के हैं और उनमे साहस तथा निर्भीकता कहाँ तक भरी हुई है।

मुकद्दमे से छुट्टी पाते ही इच्छाराम ने 'गुजरात-मित्र' तथा 'देशी मित्र' नामक पत्रो का सम्पादन स्वीकार किया। यह काम वे कोई छः महीने तक करते रहे। इसके बाद, सन् १८८० ईसवी मे, उन्होने बम्बई के विख्यात करोड-पति, सर मङ्गलदास नाथूभाई, की सहायता से 'गुजराती' नामक समाचारपत्र निकाला। इस पत्र ने थोड़े ही दिनो में अच्छी उन्नति की। इसकी ग्राहक संख्या भी खूब बढ़ी। गुजराती भाषा के बड़े-बड़े प्रसिद्ध कवि और लेखक इसमे लिखने लगे। सन् १८८९ ईसवी मे इस पत्र मे कुछ पृष्ठ और बढ़ाये गये और उनमे अँगरेज़ी भाषा के लेख रहने लगे। तब से लेकर आज तक यह उसी एङ्गलो-गुजराती रूप मे बराबर निकल रहा है। गत सन् १९०४ ईसवी मे इस पत्र को रजत-जयन्ती, बडी धूमधाम से, मनाई गई थी। 'गुजराती' अपनी भाषा के प्रतिष्ठित तथा उच्च श्रेणी के पत्रों मे समझा जाता है और

सर्व-साधारण जन उसे बहुत पसन्द करते हैं। उसके लेख भी बड़े मार्के के होते है। उसके द्वारा बडी निर्भीकता से सत्य तथा न्याय का पक्ष-समर्थन किया जाता है। इस पत्र की सारी उन्नति और सर्वप्रियता के एकमात्र कारण श्रीयुक्त इच्छाराम सूर्यराम देसाई थे। क्योकि वही उसके सर्वस्व थे।

इससे यह न समझना चाहिए कि देसाई महाशय जन्म भर केवल पत्र-सम्पादन ही करते रहे; उन्होने और कुछ किया ही नहीं। वे गुजराती भाषा के आचार्य और बड़े भारी लेखक तथा कवि थे। गुजराती-साहित्य-संसार के वे एक स्तम्भ माने जाते थे। उन्होने अनेक पुस्तकें लिखी और अनेकों का अनुवाद भी किया। अपने गुजराती प्रिंटिग प्रेस के द्वारा उन्होने अपनी तथा औरो की कितनी ही नवीन और प्राचीन पुस्तकें प्रकाशित की।

इच्छारामजी ने पहले पहल सत्यनारायण की प्रसिद्ध कथा का अनुवाद, गुजराती मे, किया। उसके बाद उन्होंने महाकवि होमर के 'इलियड' नामक काव्य का पद्यात्मक अनुवाद अपनी मातृ-भाषा मे किया। परन्तु वह उनकी पसन्द न आया। इसलिए उन्होने उसे जला डाला । फिर उस पुस्तक की बारी आई जो अपने नाम में धर्मात्मा गुजरातियों के लिए जादू का असर रखती है। उसका नाम है---'चन्द्रकान्त' । यह एक धार्मिक ग्रन्थ है। देसाईजी ने पहले सैकड़ों धार्मिक ग्रन्थो का अध्ययन तथा मनन किया। फिर कितने ही सच्चे

साधु-महात्माओं के साथ ज्ञानालोचना की। इसके बाद उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की। गुजराती-साहित्य में इस पुस्तक का दरजा बहुत ऊँचा है। अब तक इसकी हजारों प्रतियॉ बिक चुकी हैं। 'काव्यदोहन' भी देसाईजी की बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है। शुरू से लेकर अब तक, कोई तीन सौ वर्षों मे, जितने गुजराती कवि हुए है उन सबकी अच्छी-अच्छी कविताओं का संग्रह इसमे है। यह ग्रन्थ बड़ी-बड़ी सात जिल्दों मे समाप्त हुआ है। सुप्रसिद्ध महात्मा टाड के 'राजस्थान' का भी अनुवाद उन्होंने किया। श्रीमद्भागवत, महाभारत, रामायण, कई पुराण, शुक्र-नीति, कलाविलास आदि कितने ही संस्कृत-ग्रन्थों के गद्यपद्यानुवाद भी इच्छाराम महाशय ने किये। इनके सिवा और भी बहुत सी लौकिक तथा धार्मिक पुस्तकों की रचना उन्होंने की। देसाईजी की पुस्तकें बम्बई प्रान्त मे खूब प्रसिद्ध हैं और सब कही बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। कहते हैं कि उनकी लिखी हुई सब मिलाकर कोई १२० पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी भाषा बड़ी ही ओजस्विनी और हास्यरस-पूर्ण होती थी; लोग उसे बहुत पसन्द करते थे।

श्रीयुक्त इच्छाराम बड़े ही सचरित्र और धर्मात्मा पुरुष थे। उनके धार्मिक विचार पुराने ढङ्ग के थे। हिन्दू-धर्म के वे पक्के अनुयायी थे। यदि हिन्दू-शास्त्रो या आचार-विचारों पर कोई ज़रा भी कटाक्ष करता तो वे उसे सहन न कर सकते और तुरन्त मुँहतोड़ उत्तर देते थे। सामाजिक विषयों में भी

वे पुरानी चाल के कट्टर पक्षपाती थे। समाज-सुधारको से उनकी कभी न पटती थी। स्त्रियों को शिक्षा न देना, बाल- विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों को यद्यपि वे भी अच्छा न समझते थे तथापि उनको दूर करने के लिए जो उपाय आजकल किये जाते हैं उनसे वे सहमत न थे। देसाईजी के राजनैतिक विचार कांग्रेस से मिलते-जुलते थे। वे न तो राजपुरुषों की बेजा खुशामद करना ही अच्छा समझते थे और न ख़्वाहमख़्वाह गवर्नमेंट से विरोध करना ही उन्हे अच्छा लगता था। जहाँ उनकी यह राय थी कि वर्तमान समय मे इस देश के लिए अँगरेज़ी गवर्नमेट की बड़ो भारी आवश्यकता है वहाँ उनका यह भी मत था कि गवर्नमेंट के अनुचित कार्यों की नेकनीयती के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक आलोचना करना राजा और प्रजा दोनों के लिए हितकर है।

अब तक जो कुछ हमने लिखा उससे पाठक समझ गये होंगे कि श्रीयुत इच्छाराम सूर्यराम देसाई बड़े ही निडर, साहसी, दृढ़प्रतिज्ञ, स्पष्टवक्ता, परिश्रमी, सदाचारी, उदार, विद्वान् तथा धार्मिक पुरुष थे। उन्होंने अपने पत्र तथा पुस्तकों के द्वारा अपने देश की और अपनी मातृ-भाषा के साहित्य की बड़ी भारी सेवा की।

क्या कभी ऐसा भी समय आवेगा जब हिन्दी बोलनेवाले लोगो मे भी कोई 'देसाई' उत्पन्न होगा?

[ मार्च १९१३

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