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खग्रास/अनोखी यात्रा

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खग्रास
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ २३ से – २७ तक

 

 

अनोखी यात्रा

सात नवम्बर सन् १९५७ की शाम के वक्त मानव-इतिहास की एक सर्वथा अनूठी अभूतपूर्व घटना घटी, जिसका पता सारे संसार मे केवल एक बाईस वर्षीया अज्ञात युवती ही को लगा। इस समय सोवियत-जन-स्वातन्त्र्य की चालीसवीं वर्षगाठ नई दिल्ली के ट्रावनकोर भवन स्थित सोवियत दूतावास में मनाई जा रही थी। यह समारोह प्रति वर्ष धूमधाम से मनाया जाता है और नई दिल्ली का एक विशिष्ट भव्य समारोह माना जाता है। पर इस वर्ष इसमे निराली सरगर्मी थी। क्योंकि रूस ने अपने दो स्पूतनिक आकाश मे भेज कर संसार को आश्चर्यचकित कर दिया था। बिजली की सहस्रों रंगबिरंगी बत्तियों के प्रकाश से सारा भवन आलोकित था। उस समय भारत की राजनगरी दिल्ली के सौन्दर्य और वैभव का इत्र वहाँ एकत्रित था। नाना प्रकार के वेशभूषा धारी नर-नारियों से भवन का प्रशस्त प्रांगण परिपूर्ण था। भिन्न-भिन्न देश के भिन्न-भिन्न भाषाभाषी और विचार के स्त्री-पुरुषों की भीड़ वहाँ भरी थी। कोई कुछ खा-पी रहा था, कोई मित्र— गोष्टी मे गप्पे उड़ा रहा था। रूप उजागरी भव्य वेशधारिणी महिलायां हंस हंस कर आलाप कर रही थी। कोई हथिनी की भाति झूमती हुई, कोई हंसनी की भाति इठलाती हुई, कोई मैना की भांति चहकती हुई वहाँ के वातावरण को भव्य बना रही थी। उनके हीरे-मोती रत्नमणि के आभरण नए निराले सूबुक वेशभूषा पर गुलाबी चमक से जगमगा रहे थे। किसी की चम्पक वर्णी सुतनु उ गलियो मे नजाकत से पकड़ी हुई रूसी ढ़ग की चुरुट, किसी की चुटकियों मे फसाहत से उठाया हुआ काफी का प्याला, किसी के कर पल्लव मे एक छोटी सी प्लेट बहार बखेर रही थी। ठौर-ठौर दो-दो चार-चार दस-दस पाच-पाच भद्रजन एकाध नई नवेली को घेरे बाते करते जाते थे, चाय काफी की चुस्की लेते जाते थे। कोई पौढ पुरुष अकेले ही फिलास्फराना शान से चुरुट के धुएँ से आकाश मे जादू सा कर रहे थे। बहार ही बहार थी। बहार मे बालाएँ भी थी, तरुणियां भी थी, प्रौढाएँ भी थी। बनाव शृंगार में प्रौढा भी नवेलियो से कम न थी। भारतीय और अभारतीय दोनो ही प्रकार के भद्र सम्भ्रान्त नर नारियो से उस समय वह दूतावास आपूर्यमाण हो रहा था। दर्जनो बैरा, खानसामा खाने-पीने की दर्जनो ट्रे सजाए घूम फिर कर अतिथियों की अभ्यर्थना कर रहे थे। देश देशान्तर के राजदूत, राजपुरुष, राज प्रतिनिधि, साहित्यकार और गण्यमान्य नरनारी वहाँ उपस्थित थे। रूप वहां बिखरा जा रहा था। महिलाओ की मन्द मुस्कान, उनके अंगो पर धारण किए रत्नमणि हीरे बिजली के प्रकाश मे आँखो मे चकाचौंध लगा रहे थे। उनके लिपस्टिक रजित ओठो से निकले मर्मर शब्द और उनके वस्त्रो से निकली हुई भाँति-भाँति की सुगन्ध से वातावरण भरा था। एक ओर मृदुमन्द ध्वनि सगीत प्रसारित हो रहा था। परन्तु प्रत्येक के मुँह पर स्पूतनिक की चर्चा थी। अपने अपने ज्ञान और समझ के अनुसार लोग नानाविधि अटकलें लगा रहे थे।

इसी समय वह अघट घटना घटी। एक भारी सी वस्तु आकाश मे उडती हुई भवन की छत पर आहिस्ता से आ टिकी। ज्योही उस वस्तु का भवन की छत पर भू-स्पर्श हुआ, एक हलके से खटके के साथ वह वस्तु दो भागो मे फट गई और उसमे से सिर से पैर तक एक विचित्र लसलसे से मटमैले रग के आवेष्टन मे लिपटी हुई मनुष्य मूर्ति निकल पडी। पहले उसने सिर का आवरण हटाया, और मुक्त वायु मे दो तीन बार जोर-जोर से सास ली। अब भी उसके सारे अग प्रत्यग उस अद्भुत आवेष्टन मे लिपटे हुए थे जिसमे बिजली के असख्य अति सूक्ष्म तारो का जाल फैला हुआ था, जिनका सम्बन्ध आवेष्टन मे स्थित अनगिनत छोटे बड़े यन्त्रो से था। इसके अतिरिक्त वह सारा ही आवेष्टन ताम्बे और किसी अत्यन्त हल्की धातु के तारो से निर्मित था, उसकी बनावट ऐसी थी कि जीवन की सारी ही क्रियाएँ उसी पोशाक मे निहित थी। यहाँ तक कि श्वास प्रश्वास की प्रणाली भी उसमे थी। जिसका लाभ उस आवेष्टन के धारण करने वाले पुरुष को उसके शरीर के रोम कूपो द्वारा मिल रहा ला। उसका न हृदय काम कर रहा था न नाड़ी सस्थान, न फुफुस। ये सारी ही क्रियाएँ इस आवेष्टन द्वारा उसे अपने शरीर के रोम कूपी द्वारा प्राप्त हो रही थी जो उसके शरीर से लिपटा हुआ था।

खुली वायु मे श्वास लेते ही पुरुष की सब स्वाभाविक जीवन क्रियाएँ लौट आईं। हृदय अपना काम करने लगा और नाडियो मे रक्त तेजी से घूमने लगा। फेफड़े स्वच्छ वायु खीचने और गन्दी वायु बाहर फेकने लगे। कुछ ही क्षणो में स्वस्थ होकर उस पुरुष ने वह आवेष्टन अपने शरीर से पृथक् कर दिया और एक बटन दबाकर उसकी सब गैस निकाल दी। अब वह सिकुड़ कर छोटा सा ढेर हो गया जिसे समेटने पर उसकी आकृति एक साधारण अटैचीकेस जैसी हो गई। आवेष्टन के बाहर आते ही उस पुरुष की भव्य आकृति और सुन्दर पोशाक स्पष्ट दीखने लगी। पुरुष की आयु कोई अडतीस बरस की होगी। वह एक बड़े ही दृढ शरीर का पुरुष था। रग उसका अत्यन्त गोरा था। ज्यो ज्यो ताजा वायु मे वह श्वास लेता जाता था, उसके चेहरे पर सुर्सी और आँखो मे चमक बढ़ती जाती थी। उसने काले रंग का एक सूट धारण किया था जो एकदम नया था। उसका चेहरा ऐसा था जैसे अभी-अभी उसने शेव किया हो, बालो मे जैसे इसी क्षण कधा किया हो, जूतो पर जैसे अभी पालिश किया हो। उसने एक अगडाई ली. सूटकेस उठाया, और सीढियाँ उतर कर नीचे आ भीड मे मिल गया। किसी ने भी उसे नही देखा किसी ने भी उस पर लक्ष्य नही किया। अटैची को दाहिने हाथ मे लटकाए हुए, वह भीड मे आकर इधर उधर किसी को देखने लगा। एक बैरा से उसने एक चुरुट लेकर सुलगाई और आगे बढा।

भीड मे घुसकर इधर-उधर वह किसी को खोजने लगा। उसे अधिक खोजना नहीं पडा। उसने देखा--एक युवती भीड से छिटक कर जरा एकान्त मे एक झाड के निकट अपने कान से एक छोटा-सा यन्त्र लगाए खडी है। तरुण लपकता हुआ युवती के पास जा पहुँचा। युवती उसे देखते ही हर्ष से विह्वल हो उसकी ओर लपकी, उसने कहा---"ओह जोरोवस्की, तुमने पूरे तीन मिनट देर लगादी। मैं तो डर गई थी। खैर कहो, तुम्हारी यात्रा निर्विघ्न हुई?"

"बिल्कुल निर्विघ्न।"

"क्या तुम थक गए हो?"

"तनिक भी नही।"

"तुम अपनी यात्रा मे सफल हुए?"

"मैंने पूरे तीन दिन चन्द्रलोक में व्यतीत किए और लगभग चार सौ फोटो लिए हैं।"

"मैं तुम्हे मुबारकवाद देती हूँ। जोरोवस्की, तुम आज ससार के सबसे अद्भुत पुरुष हो।"

"हॉ प्रिये, कदाचित्। मानव इतिहास का सबसे अद्भुत पुरुष। लेकिन तुम मुझे एक पैग वोदका दो।" "क्या, क्या ड्रिक नही है?"

"न, दिल्ली ड्राई है। सुना नही था तुमने?"

"ओह, मै तो भूल ही गया, लेकिन मेरा तो कण्ठ सूख रहा है।"

"तो चलो, होटल चलें। अशोक होटल मे मैंने अपने कमरे के साथ ही दो कमरे तुम्हारे लिए ठीक कर रखे है।"

"बहुत अच्छा किया। किन्तु मेरे यन्त्र?" "एक कमरे मे वे सब ठीक-ठीक फिट कर दिए गए हैं।"

"क्या मैं तुरन्त उनका उपयोग कर सकता हूँ?"

"ओह, तुरन्त।"

"तो चलो प्रिये, मुझे अभी कुछ महत्वपूर्ण सन्देश मास्को भेजने है।"

"चलो।"

हाँ, तो भीड़ को चीरते हुए वे बाहर निकल आए। युवती की मोटर बाहर तैयार थी। युवती स्वयं ड्राइव करने बैठ गई, और मोटर शान्त सन्नाटे से भरी सड़कों पर तेजी से चल दी। किसी ने भी नहीं जाना कि इस समय इस मोटर मे दो अत्यन्त रहस्यपूर्ण व्यक्ति उड़े चले जा रहे हैं।